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by
May 8, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 May 2007 00:00:00

अंग्रेजों के शासनकाल में स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान कांग्रेस के अनेक नेता राष्ट्रभाषा हिन्दी को महत्व दिये जाने का प्रचार करते थे। पर उन्हीं दिनों कांग्रेस के कुछ नेताओं को लगा कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए ऐसी भाषा का निर्माण किया जाए जिसमें उर्दू व फारसी के शब्दों का समावेश हो तथा उसे हिन्दी की जगह “हिन्दुस्तानी” नाम दिया जाए। बौद्ध साहित्य के गंभीर अध्येता तथा हिन्दी के परमभक्त भिक्षु भदन्त आनन्द कौशल्यायन ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के शिमला अधिवेशन के मंच से इस “हिन्दुस्तानी” भाषा को हिरण्यकश्यप का अवतार बताते हुए जो ऐतिहासिक भाषण दिया वह “साप्ताहिक-लोकमान्य” के 7 फरवरी, 1946 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसे भक्त रामशरण दास संग्रहालय (पिलखुवा) से प्राप्त कर उसका संक्षिप्त अंश यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।”हिन्दुस्तानी” हिरण्यकश्यप का अवतार है-भिक्षु प्रवर भदन्त आनन्द कौशल्यायनहिन्दी साहित्य सम्मेलन अपने स्थापना दिवस से, जिसे आज पूरे पैंतीस वर्ष हो गये हैं, राष्ट्रभाषा हिन्दी और राष्ट्र लिपि-देवनागरी का प्रचार कर रहा है। उसकी प्रथम नियमावली में ही राष्ट्रभाषा हिन्दी और राष्ट्रलिपि देवनागरी शब्द आये हैं। उसके इस कथन का विरोध अंंग्रेजों ने करना चाहा लेकिन उसने बता दिया कि जब तक विदेशी हुकूमत है तब तक अंग्रेजी भले ही शासन की भाषा और राजभाषा बनी रहे किन्तु वह हिन्द की राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती। उर्दू की ओर से यह आवाज बुलन्द हुई कि उर्दू ही इस देश की कौमी जबान है।यह सब सही है लेकिन अंग्रेजी और उर्दू के बाद इधर दो-तीन वर्ष से एक नई विचारधारा ने अपना सर उठाया है। उसका नाम है हिन्दुस्तानी विचारधारा। जिस प्रकार किसी बोतल पर लगा हुआ लेबल बना रहे लेकिन उसके अन्दर की चीज बदल जाए, वही हाल हिन्दुस्तानी लेबल का है। पहले इसका मतलब था कि चाहे हिन्दी कहो चाहे हिन्दुस्तानी कहो, बात एक ही है। लेकिन अब इस “अथवा” का अर्थ किया जा रहा कि हिन्दी और हिन्दुस्तानी- दोनों में किसी एक का चुनाव करना होगा। यदि हिन्दी का तो हिन्दुस्तानी का नहीं और हिन्दुस्तानी का, तो हिन्दी का नहीं।हम हिन्दी वाले वर्षों से प्रचार करते आये हैं कि क्योंकि हिन्दी राष्ट्रभाषा है इसलिए प्रत्येक हिन्दी को, प्रत्येक भारतवासी को इसे सीखना चाहिए। इस नयी विचारधारा ने, जिससे हमें सावधान रहना चाहिए, कहना आरम्भ किया है कि हिन्दी हिन्दुओं की भाषा है और उर्दू मुसलमानों की। यह ठीक है कि हिन्दी हिन्दुओं की भाषा है किन्तु हिन्दुओं की ही नहीं और इसी प्रकार उर्दू भी मुसलमानों की नहीं। सर तेज बहादुर सप्रू उर्दू के प्रसिद्ध समर्थक हैं। वे मुसलमान नहीं कश्मीर के ब्राहृण हैं। और अंजुमन तरक्की उर्दू की मुख्य पत्रिका “हमारी जबान” के सम्पादक श्री ब्राजमोहन दत्तात्रेय हैं। कोई भी भाषा किसी धर्म की बपौती नहीं। जो लोग हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा कहकर और उसी प्रकर उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहकर हिन्दुस्तानी के द्वारा हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य के सम्पादन की बात करते हैं- मुझे भय है कि इतिहास ऐसे लोगों को- सांप्रदायिकता के असाधारण प्रचारक न सिद्ध करे।हिन्दुस्तानी भाषा के बारे में कहा गया है कि जब हिन्दी वाले उर्दू और उर्दू वाले हिन्दी सीख लेंगे तब दोनों के मेल से एक नई “सरस्वती” पैदा होगी। मेरा तो जी चाहता है कि, यदि किसी का जी न दुखे तो, हिन्दुस्तानी विचारधारा की उपमा प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप से दूं। उसे वरदान था कि “न दिन में मरूं न रात में मरूं, न अन्दर मरूं, न बाहर मरूं न आदमी के हाथ से मरूं न किसी पशु के द्वारा मरूं”- उसका क्या हाल हुआ? उसी की तरह इस हिन्दुस्तानी भाषा का भी कहना है कि मैं वह भाषा हूं जिसमें “न संस्कृत के शब्द रहते हैं न अरबी-फारसी के, जो न हिन्दुओं की भाषा है न मुसलमानों की, और जो न देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, न उर्दू में ही।” यह सब हिरण्यकश्यप के नकारात्मक बचाव हैं। अभी तक इस हिरण्यकश्यप रूपी हिन्दुस्तानी के प्रचार के प्रयत्नों का जो प्रभाव देखने में आया है वह इतना ही है कि अनेक कार्यकर्ताओं में बुद्धि भेद पैदा हो गया है। और इतना निश्चय से कहा जा सकता है कि हिन्दुस्तानी कुछ न कुछ लोगों को राष्ट्रभाषा हिन्दी पढ़ने से रोक अवश्य सकेगी। जिनके लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार कार्य एक जीवन-व्रत है उनके लिए यह चिंतन का ही विषय नहीं, कुछ करने का आह्वान है।21

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