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1000 वर्ष से अनवरत चली आ रही है अनोखी वारकरी यात्रा

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May 8, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 May 2007 00:00:00

विट्ठल विट्ठल विठोबा-विद्याधर मा. ताठेसंपादक, एकता मासिक, पुणेभगवान विट्ठल के दर्शनवारकरी यात्रा का एक विहंगम दृश्य।संत ज्ञानेश्वर की छवियात्रा में पालकी के साथ झूमते-गाते वारकरीमहाराष्ट्र के सोलापुर जिले में पुण्यपावन भीमा नदी के तट पर दक्षिणकाशी कही जाने वाली श्रीक्षेत्र पंढरपुर नगरी है। भगवान श्रीकृष्ण जी ने यहां “पांडुरंग” स्वरूप में अपने परम भक्त पुंडलिक को दर्शन दिए और उसी की इच्छा के अनुसार भगवान उसी नगरी में, भक्त द्वारा भावपूर्वक बैठने के लिए लगाई गई एक ईंट पर खड़ी मुद्रा में विग्रह रूप में स्थापित हो गए। भक्त पुंडलिक एवं भगवान पांडुरंग की यह कथा पद्मपुराण में वर्णित है। श्रीक्षेत्र पंढरपुर नगरी की यह महिमा प्राचीनकाल से चली आ रही है। केरल से कश्मीर की ओर यात्रा करते समय आद्य शंकराचार्य जी ने रास्ते में श्रीक्षेत्र पंढरपुर में निवास किया था। उसी समय यहां के मंदिर में भगवान पांडुरंग तथा विट्ठलजी की सुंदर मूर्ति देखकर आचार्य जी के मुख से हर्ष एवं आनंद से जो उद्गार निकले, वही उद्गार “पांडुरंग अष्टम” नाम से “आचार्य वाङमय” में हैं। भक्त पुंडलिक का समय इतिहास के पन्नों में अज्ञात है, लेकिन आद्य शंकराचार्य जी की पंढरपुर यात्रा एवं “श्री पांडुरंग अष्टक” स्तोत्र रचना इतिहास के पन्नों में विद्यमान श्रीक्षेत्र पंढरपुर की सबसे पुरानी कृति है।महाराष्ट्र में संत और भक्त समान माने जाते हैं। यह महाराष्ट्र की अपनी विशेषता है। महाराष्ट्र का नाम ही यहां के संतों के महान कार्यों से हमेशा “महाराष्ट्र” सिद्ध हुआ है। सन् 1275 में जन्मे (शालिवाहन शाके 1197 और विक्रम संवत् 1332) संत ज्ञानेश्वर से संत विनोबा भावे तक महाराष्ट्र में संतों की परम्परा अक्षुण्ण चली आयी है। संत ज्ञानेश्वर जी, उनके परम सखा-साथी संत नामदेव जी, संत एकनाथ जी, संत तुकाराम जी एवम् संत समर्थ रामदास जी को महाराष्ट्र के “पंचप्राण” नाम से गौरवान्वित किया जाता है।इन्हीं संतों के लोक प्रबोधन कार्य की पृष्ठभूमि पर यहां छत्रपति शिवाजी महाराज के हिन्दवी स्वराज्य का उदय हुआ। महाराष्ट्र की भूमि को “दारूल इस्लाम” बनाने की कसम खाकर स्वयं औरंगजेब कई बरस तक जूझता रहा, पर इसमें सफलता पाने के बजाय महाराष्ट्र की भूमि पर ही उसको दम तोड़ना पड़ा।भागवत भक्ति संप्रदाय यानी वारकरी संप्रदायमहाराष्ट्र की भूमि पर नाथ संप्रदाय, दत्त संप्रदाय, महानुभव संप्रदाय, समर्थ संप्रदाय आदि कई पंथ-संप्रदायों का उदय एवं विस्तार हुआ। किन्तु भागवत भक्ति संप्रदाय यानी संत ज्ञानेश्वर जी प्रणीत “वारकरी भक्ति संप्रदाय” इस भूमि पर उदित हुआ सबसे विशाल संप्रदाय रहा है। गांव-गांव, बस्ती-बस्ती तक पहुंचने वाला, सभी वर्ण, जाति, उपजाति के लोगों को जोड़ने वाला संप्रदाय वारकरी संप्रदाय रहा है। “जय जय राम कृष्ण हरि”, यह इस संप्रदाय का मंत्र है। यह संप्रदाय सामाजिक समरसता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यहां किसी वर्ण या जाति को विशेष स्थान नहीं है, यहां सब समान हैं। ब्राहृण हो, शूद्र हो, श्रीमंत हो, गरीब हो, शैव हो, वैष्णव हो, सगुण उपासक हो, निर्गुणी उपासक हो, द्वैती हो, अद्वैती हो, यहां सबका स्वागत है। एक बार विट्ठल भक्त वारकरी बन जाते हैं तब आप सिर्फ वारकरी हो जाते हैं। इसीलिए इस संप्रदाय में ब्राहृणों के साथ-साथ अन्य वर्ण-जाति के लोगों को गुरुपद का स्थान एवं मान दिया गया है। संत ज्ञानेश्वर वारकरी भक्ति संप्रदाय के मुख्य प्रवर्तक माने जाते हैं। मराठी रचनाओं में “ज्ञानदेव रचिला पाया” नाम से उनके कार्य का गौरवगान किया गया है। संतों ने ज्ञानदेव जी को गुरुओं का गुरु कहा है। वैसे संत ज्ञानदेव का अवतार कार्य केवल 24 साल का है। उम्र के 24वें वर्ष में ही संत ज्ञानदेव जी ने संजीवन समाधि ली और अपना इहलोक कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण किया।पारमार्थिक समता की भूमिकाज्ञानेशो भगवान्विष्णुर्निवृत्तिर्भगवान्हर:।।सोपानो भगवान्ब्राहृा मुक्ताख्या ब्राहृचित्कला।।इन शब्दों में सभी समकालीन व बाद के संतों ने संत ज्ञानदेव, उनके गुरु निवृत्तिनाथ, उनके छोटे भाई सोपान एवम् छोटी बहन मुक्ताबाई को भगवान विष्णु, महेश, ब्राहृदेव एवम् ब्राहृचित्कला कहा है। इन चार भाई-बहनों ने वारकरी संप्रदाय के विस्तार में अपूर्व योगदान दिया है। ये चारों प्रज्ञा-प्रतिभा एवं भक्ति योग के धनी थे। विनय एवं करुणा उनके अलंकार थे। माली समाज में सावता जी, नाई समाज में सेनाजी, दलित महार जाति में संत चोखामेला, कुम्हार समाज में संत गोरा जी, दर्जी समाज में संत नामदेव जी, धोबी समाज में संत जनबाई इन्हीं के नेतृत्व में एकत्र हुए थे। संत ज्ञानेश्वर जी के पश्चात् संत नामदेव जी वारकरी भक्ति का संदेश लेकर पंजाब तक गए। सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में संत नामदेव जी की 63 रचनाएं सम्मिलित हैं। यह महाराष्ट्र के संतों की राष्ट्रव्यापी उदात्त दृष्टि का आज भी हमें बोध कराती है। संत नामदेव जी के बाद संत एकनाथ जी ने वारकरी संप्रदाय की बागडोर संभाली। संत एकनाथ जी ने “भावार्थ रामायण” लिखकर भगवान राम का क्षत्रिय स्वरूप लोगों के सामने रखा। “परित्राणाय साधुनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्”, श्रीराम के ऐसे स्वरूप को संत एकनाथ जी ने लोगों में प्रचारित किया। संत एकनाथ के बाद वारकरी संप्रदाय का नेतृत्व संत तुकाराम जी ने किया। संत तुकाराम के समय छत्रपति शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज्य की स्थापना हुई।पंढरी की “वारी”संत ज्ञानेश्वर प्रणीत भागवत भक्ति संप्रदाय को महाराष्ट्र में “वारकरी संप्रदाय” के नाम से जाना जाता है, क्योंकि पंढरी नगरी की “वारी” करना इस संप्रदाय की प्रमुख विशेषता है। वारी करना यानी प्रत्येक साल निर्धारित समयों पर पंढरपुर में महायात्रा के निमित्त जाना। पंढरपुर की महायात्रा करने वाले व्यक्ति को वारी करने वाला “वारकरी” कहा जाता है। श्रीक्षेत्र पंढरपुर में एक वर्ष में चार बड़े मेले लगते हैं। इन मेलों के लिए वारकरी करीब पांच-दस लाख की संख्या में इकट्ठे होते हैं। चैत्र, आषाढ़, कार्तिक, माघ, इन चार महीनों में शुक्ल एकादशी के दिन पंढरपुर की चार यात्राएं होती हैं। आषाढ़ माह की यात्रा को “महायात्रा” कहते हैं। इस में महाराष्ट्र के कोने-कोने से लाखों भक्त गाते-झूमते पैदल पंढरपुर आते हैं। संतों की प्रतिमाएं, पादुकाएं पालकियों में सजाकर वारकरी अपने साथ लेकर चलते हैं। पूना के निकट संत ज्ञानेश्वर महाराज का समाधि स्थान है आलंदी। यहां से करीब 2 लाख भक्त संत ज्ञानदेव जी की पालकी लेकर 17 दिन पैदल चलकर पंढरपुर जाते हैं। रास्ते भर वे भगवान के भजन गाते हैं। इन गीतों को मराठी में “अभंग” कहते हैं।आलंदी से पंढरपुर ढाई सौ किलोमीटर दूर है। हर रोज पालकी 20 से 30 किलोमीटर मार्ग तय करके सूर्यास्त के साथ विश्राम के लिए रुक जाती है। इस यात्रा के दर्शन के लिए पूरे 250 कि.मी. रास्ते पर दोनों ओर लोगों की भारी भीड़ होती है।संत ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी यात्रा जैसी करीब एक सौ यात्राएं अलग-अलग संतों के जन्म स्थान या समाधि स्थान से प्रारंभ होकर पैदल पंढरपुर पहुंचती हैं। देहू ग्राम से संत तुकाराम महाराज की पालकी निकाली जाती है। जलगांव से संत मुक्ताबाई की, शेगांव से संत गजानन महाराज की, पैठणक्षेत्र से संत एकनाथ महाराज की, सतारा सज्जनगढ़ से समर्थ रामदास जी की पालकी पंढरपुर आती है। लाखों की संख्या में यात्रा में शामिल वारकरी भक्तों को न प्यास की सुधबुध होती है, न भूख लगती है, न कोई थकान महसूस होती है। विट्ठल-विट्ठल रट लगाते हुए वे ऐसी अनूठी दुनिया में खो जाते हैं जिसे वे आनंदलोक कहते हैं। पैदल यात्रा की साधना वारकरी भक्तों को ईश्वर दर्शन जैसी लगती है।श्रीक्षेत्र पंढरपुर में भीमा नदी को चंद्रभागा कहते हैं। इस पावन नदी में स्नान करना, पंढरीक्षेत्र की नगर प्रदक्षिणा करना, भगवान विट्ठल के दर्शन और कथा-संकीर्तन सुनना, भजन-प्रवचन में शामिल होना इस महायात्रा का ही अंग हैं। एकादशी का दिन विशेष होता है और पूर्णिमा के दिन गोपलकाला नामक सामूहिक विधान से यात्रा का समापन होता है। प्रसाद लेकर वारकरी-भक्त कृतार्थ भाव से अपने अपने घर लौट जाते हैं। और अगले साल पुन: वारकरी यात्रा में शामिल होने की भगवान से प्रार्थना करते हैं।38

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