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May 8, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 May 2007 00:00:00

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की 125वीं जयन्ती (1 अगस्त) पर विशेषजब हिन्दी को हिन्दुस्तानी बनाने का दुष्प्रयास विफल हुआशिवकुमार गोयलअंग्रेजों के शासनकाल में हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर हिन्दी भाषा को उर्दूमय बनाने का प्रयास किया गया था। कांग्रेस के नेताओं के एक वर्ग का तर्क था कि हिन्दी को संस्कृत भाषा के शब्दों से मुक्ति दिलाकर तथा उसमें उर्दू, फारसी, अरबी के शब्दों का समावेश करके उसे सरल व सभी के लिए स्वीकार्य बनाया जा सकता है। इस भाषा को “हिन्दुस्तानी” भाषा नाम दिया गया था। किन्तु महान हिन्दी भक्त व तेजस्वी कांग्रेसी नेता राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन ने अपने हिन्दी प्रेमी सहयोगियों के माध्यम से इस दुष्प्रयास को असफल कर दिया था।हिन्दुस्तानी भाषा के पाठ्यक्रम की एक पुस्तक वर्धा से प्रकाशित की गई। इसमें “बादशाह दशरथ” के चार बेटे “शहजादा राम”… आदि थे, “शहजादा राम” की “बेगम सीता” को रावण हर कर ले गया, जैसे वाक्य दिये गये थे। इसे पढ़ते ही हिन्दी प्रेमियों में हंगामा मच गया था।सन् 1982 में टंडन जी के जन्मशती समारोह के अवसर पर उनके अनन्य सहयोगी तथा तेजस्वी हिन्दी भक्त पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने टंडन जी पर लिखे संस्मरणों, जो टंडन जी को लिखे लम्बे पत्र के रूप में दिये गये तथा “धर्मयुग” के 1 अगस्त, 1982 के अंक में प्रकाशित हुए, लिखा-“सन् 1938 में प्रयाग के हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन शिमला में होने वाला था। उसी वर्ष के प्रारंभ में मैं शिक्षा प्रसार अधिकारी के पद पर लखनऊ आ गया। एक दिन टंडन जी ने अचानक मुझे चाय पीने के लिए बुलवाया। चायपान के दौरान उन्होंने कहा कि “तुम्हें मालूम होगा कि एक अधिवेशन में साहित्य सम्मेलन ने हिन्दी की परिभाषा बदल दी है। उसने प्रस्ताव करके कहा है कि हिन्दी वह भाषा है जो उत्तर भारत के नगरों में बोली जाती है और देवनागरी, फारसी या उर्दू लिपि में लिखी जाती है। हिन्दी की यह परिभाषा गलत है और हिन्दी के हित में नहीं है। यह हिन्दी साहित्य सम्मेलन को “हिन्दुस्तानी सम्मेलन” बना देगी। मैंने पूछा, “आपकी सम्मति में हिन्दी की परिभाषा क्या होनी चाहिए?” टंडन जी बोले- “हिन्दी वह भाषा है जो उत्तर भारत में जनता द्वारा बोली जाती है और जिसकी परम्परा चंदबरदाई, सूर, तुलसी, कबीर, रसखान, खानखाना, देव आदि से चली आती है और जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है”।टंडन जी ने मुझे आदेश दिया- “मैंने उदय नारायण तिवारी से बात की थी। तुम प्रांतीय सम्मेलन की ओर से प्रतिनिधियों के साथ शिमला अधिवेशन में चले जाओ तथा वहां हिन्दी का स्वरूप बनाये रखने का प्रयास करो, सफलता मिल सकती है।”पं. श्रीनारायण ने आगे लिखा- “मैं बहुत वर्षों से सम्मेलन के अधिवेशनों में नहीं जाता था। किन्तु टंडन जी की आज्ञा का पालन करने के लिए मैं समान विचार वाले प्रतिनिधियों को लेकर शिमला गया। श्री जमनालाल बजाज अधिवेशन के अध्यक्ष थे। काका कालेलकर भी पधारे थे। वे दोनों ही हिन्दी का रूप बदलने के पक्षपाती थे। अधिवेशन में हिन्दी और हिन्दुस्तानी के पक्षधरों में बड़ी रस्साकशी हुई। पंजाब, बिहार, मध्य प्रदेश आदि के बहुसंख्यक प्रतिनिधियों ने हमारा समर्थन किया और भारी बहुमत से हिन्दी की वह परिभाषा स्वीकृत हुई, जिसे टंडन जी आदि चाहते थे। डा. सम्पूर्णानंद जी ने भी हिन्दी के शुद्ध रूप का समर्थन किया था।”पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी ने अपने संस्मरणात्मक पत्र में लिखा- “जब टंडन जी ने सम्मेलन का भार लिया तब दशा यह थी कि एंग्लो वर्नाक्यूलर स्कूलों में तीसरी कक्षा से ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था। यूनिवर्सिटी मैट्रिक की परीक्षा लेती थी। अंग्रेजी आदि कई विषय अनिवार्य थे किन्तु हिन्दी वैकल्पिक विषय था। इन्टर, बी.ए. और एम.ए. में तो एक विषय के रूप में भी हिन्दी नहीं पढ़ायी जाती थी। सरकारी कामकाज में उच्च स्तर पर अंग्रेजी और निम्न स्तर पर उर्दू का एकाधिपत्य था। सरकार में हिन्दी अस्पृश्य मानी जाती थी। हिन्दी लेखकों और विद्वानों की कहीं पूछ नहीं थी। टंडन जी सम्मेलन के द्वारा जनता में हिन्दी की चेतना उत्पन्न की। उन्होंने प्रत्येक प्रांत में कर्मठ हिन्दीनिष्ठ कार्यकर्ताओं को परखा, चुना और प्रान्तीय सम्मेलन बनाने के लिए अनुप्राणित किया। यह प्रमाणित करने के लिए मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक के स्तर की शिक्षा हिन्दी के द्वारा दी जा सकती है, टंडन जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में मैट्रिक, बी.ए. और एम.ए. स्तर की समकक्ष परीक्षाएं चलायीं। यह भी प्रमाणित कर दिया कि उच्च स्तर की मानविकी और विज्ञान की शिक्षा हिन्दी के माध्यम से दी जा सकती है। सम्मेलन की मध्यमा परीक्षा बी.ए. स्तर की थी। अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति भी, जैसे श्रीकृष्णदत्त पालीवाल ने मध्यमा परीक्षा उत्तीर्ण कर गर्व से “विशारद” की उपाधि नाम के साथ लगाई। राजर्षि टंडन ने “हिन्दी विद्यापीठ” की स्थापना की थी। सुविख्यात विद्वान व दार्शनिक डा. भगवान दास से इसका उद्घाटन कराया था।आगे चलकर हिन्दी-हिन्दुस्तानी के प्रश्न पर राजर्षि टंडन का गांधी जी से टकराव हुआ। महाप्राण निराला जी ने भी हिन्दी भाषा को उर्दू-फारसी मय नई “हिन्दुस्तानी” भाषा बनाने के प्रयासों की कड़ी भत्र्सना की। टंडन जी ने हिन्दी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने के लिए संविधान सभा में संघर्ष किया। हिन्दी के प्रश्न पर सिद्धान्तों से समझौता न करके कांग्रेस अध्यक्ष पद का परित्याग करने में उन्होंने तनिक भी देर नहीं लगाई। आगे चलकर “हिन्दुस्तानी” भाषा के प्रश्न ने इतना उग्र रूप धारण किया कि गांधी जी ने भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन से त्यागपत्र दे दिया। राजर्षि टंडन जी द्वारा हिन्दी के प्रश्न पर तथा अन्य अनेक मतभेदों के कारण कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे देने से नेहरू जी क्रोध में तिलमिला उठे तथा टंडन जी के इस कार्य को “दिखावा” कहकर उनके प्रति कटु वचनों का प्रयोग किया। उन्होंने राजर्षि को एक कटु पत्र भी लिख डाला। पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लिखा- “टंडन जी ने नेहरू जी के पत्र का उत्तर दिया, “मैंने दिखावा नहीं किया है। मैं तुम्हें अनुज मानता रहा हूं। तुम मेरे प्रति चाहे जितने कटु शब्दों का प्रयोग करो, परन्तु मुझे अपने प्रति कटु बनाने में तुम कभी सफल नहीं हो सकोगे।”राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का हिन्दी के साथ-साथ गोहत्या बन्द न किए जाने, शराब को राजस्व का साधन बनाए रखने तथा “धर्मनिरपेक्षता” की आड़ में पाठ पुस्तकों में से धार्मिक-नैतिक प्रेरणा देने वाली सामग्री हटाये जाने जैसे विषयों पर कांग्रेस से निरन्तर विरोध रहा। पौराणिक साहित्य के मर्मज्ञ, महान गोभक्त संत प्रभुदत्त ब्राहृचारी जी महाराज का टंडन जी से निकट का आत्मीय सम्बंध था। टंडन जी के गोलोकवासी होने के बाद ब्राहृचारी जी ने “कल्याण” पत्रिका में टंडन जी के संस्मरण में लिखा- “वे मुझे अपनी सब बातें ह्मदय खोलकर बताते थे। कहते थे “एक बार चित्रकूट के कुछ लोग मालवीय जी के पास आये और कहने लगे- “महाराज! हमारे यहां गोवध होता है।” मालवीय जी ने मुझे वहां भेजा। मैंने वहां पूछा- “गऊ को क्यों मारते हो?” उन दिनों गोमांस को मुसलमान भी नहीं खाते थे। चमड़े के लिए गोवध करते थे। मांस को तो वे फेंक भी देते थे। उसी दिन मैंने चमड़े के जूते न पहनने की प्रतिज्ञा की।”20

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