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अमरीका से परमाणु संधि के संदर्भ में अनुच्छेद 123 के बारे में इस प्रकार के समाचार आए हैं जिनसे आभास होता जा रहा है कि पिछले वर्ष प्रधानमंत्री ने संसद को जो आश्वासन दिया था वह पूरी तरह से इस संधि के अन्तर्गत शामिल है। यह भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके प्रतिनिधि भारत के सर्वोच्च हित में ही इस संधि को मान्य करेंगे अन्यथा पिछले 6 महीने से लगातार कवायद नहीं की जाती। भारत सरकार इस बात का श्रेय लेना चाहती है कि उसने अमरीका को, भारतीय संवेदनाओं को और सुरक्षा आवश्यकताओं को संधि के अन्तर्गत शामिल करने के लिए राजी किया है। यदि ऐसा सत्य है तो भला भारतीय हित में ऐसे किसी समझौते से कोई क्यों परेशान होगा। परंतु दिक्कत यह है कि इस संधि का वास्तविक निर्णीत मसौदा सामने नहीं रखा जा रहा, इससे संदेहों को और बल मिलता है। हम डा0 मनमोहन सिंह पर बेवजह संदेह भी नहीं करना चाहते और यह भी मानना चाहते हैं कि देशभक्त भारतीय प्रधानमंत्री के नाते वे जो भी करेंगे देश हित में ही करेंगे। ऐसी स्थिति में यह अपेक्षा अनुचित नहीं है कि वे इस महत्वपूर्ण परमाणु संधि के बारे में अपनी स्थिति स्पष्ट करें और उचित को उचित बताते हुए देश का समर्थन प्राप्त करें। इसी संदर्भ में यहां देश के दो शीर्ष वैज्ञानिकों प्रो0 राजगोपाल और डा. गोपालकृष्णन के विचार यहां प्रस्तुत हैं।अमरीका से संधि करते समय तारापुर का उदाहरण याद रखना चाहिए-प्रो. एस. राजगोपाल, पूर्व सचिव, आण्विक ऊर्जा आयोगभारत के सुप्रसिद्ध आण्विक वैज्ञानिक तथा आण्विक ऊर्जा आयोग के पूर्व सचिव प्रो. राजगोपाल विश्व में भारतीय परमाणु ऊर्जा, अनुसंधान एवं आण्विक ऊर्जा के सैन्य उपयोग जैसे विषयों के प्रतीक शिखर पुरुष हैं। वे पिछले सप्ताह मुम्बई में थे। पाञ्चजन्य के सम्पादक तरुण विजय ने उनसे भारत-अमरीकी परमाणु संधि के बारे में विस्तार से चर्चा की। इस चर्चा में उन्होंने अपने व्यक्तिगत आधार पर विचार व्यक्त किए जो इस संधि के संदर्भ में सार्वजनिक की गई जानकारी पर अवलम्बित थे। यहां प्रस्तुत हैं उस बातचीत के मुख्य अंश।-तरुण विजयभारत-अमरीका परमाणु संधि के संदर्भ में अद्यतन स्थिति यह है कि मोटे तौर पर प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष संसद को जो आश्वासन दिए थे वे मान लिए गए हैं। ऐसा कह कर संधि को देशहित में स्वीकार करने का आग्रह किया जा रहा है। आपका इस बारे में क्या मत है?अधिकृत तौर पर वास्तविक स्थिति क्या है यह अभी तक बताया नहीं गया है। सरकारी तौर पर केवल यही मालूम है कि यह संधि अंतिम रुप लेने के बाद जब तक भारतीय संसद और अमरीकी कांग्रेस के सामने प्रस्तुत नहीं की जाती तब तक उसमें क्या लिखा गया है, यह प्रकट नहीं किया जाएगा। ऐसी स्थिति में अधिकृत तौर पर कोई भी टिप्पणी करना किसी के लिए भी संभव नहीं है। यह वांछनीय है कि भारतीय सुरक्षा और भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण प्रभाव रखने वाली ऐसी संधि का प्रारुप वैज्ञानिकों और सुरक्षा विशेषज्ञों के सामने रखकर उसके बाद अंतिम निर्णय लिया जाए। समाचार पत्रों और अन्य मीडिया से छन छनकर जो खबरें आ रही हैं उनसे यह प्रतीत होता है कि भारत को अपने भविष्य की सामरिक नीति के प्रकाश में ही इस संधि को स्वीकार करना चाहिए। जैसे, परमाणु ऊर्जा उत्पादन के लिए प्रयुक्त किए गए ईंधन के भविष्य का प्रश्न है, इस प्रयुक्त ईंधन में प्लूटोनियम होता है जो कि सैन्य इस्तेमाल के लिए उपयोगी होता है। इस डर से कि प्रयुक्त ईंधन से प्लूटोनियम निकालकर हम उसका सैन्य इस्तेमाल कर सकते हैं अमरीका ने उस ईंधन के पुन: प्रसंस्करण और उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है और कहा है कि हम उस ईंधन को अपने पास सुरक्षित रखें।इस संदर्भ में हमारी आपत्ति क्या है?कुछ ही समय बाद प्रयुक्त ईंधन का भंडार करने में बहुत अधिक धनराशि, स्थान और भंडारण व्यवस्था की तो आवश्यकता होती ही है, जिससे देश पर एक अतिरिक्त और अनावश्यक बोझ होता है। इसके अलावा बहुत समय तक भंडार करना सुरक्षा की दृष्टि से भी घातक है। यह बात अब स्वयं अमरीका को समझ आ रही है। उसके अपने निजी परमाणु ऊर्जा केन्द्रों से जो प्रयुक्त ईंधन निकलता था वह सरकार अपने कब्जे में लेकर सुरक्षित भंडारों में रखती थी, क्योंकि उसे डर था कि यह प्रयुक्त ईंधन निजी हाथों से गुजरते हुए जिहादी आतंकवादियों के हाथों में पहुंच सकता है। लेकिन अब अमरीका संभवत: इस बात पर राजी हो रहा है कि वह भारत के इस आश्वासन को मान ले कि वह भारत में ही प्रयुक्त ईंधन को पुन: प्रसंस्कृत कर उसके नागरिक उपयोग को सुनिश्चित करके यह तमाम विधि एवं संयंत्र अन्तरराष्ट्रीय निगरानी में रखे तो उसे आपत्ति नहीं होगी।लेकिन क्या किसी भी अमरीकी आश्वासन पर भरोसा किया जा सकता है?हमें सदैव तारापुर का उदाहरण याद रखना चाहिए। तारापुर परमाणु ऊर्जा केन्द्र के बारे में अमरीका से स्थायी आधार पर समझौता हुआ था, जिसके अन्तर्गत अमरीका तारापुर को अबाधित तौर पर ईंधन की आपूर्ती करने के लिए वचनबद्ध था। लेकिन 1978 में जिमी कार्टर राष्ट्रपति बने और उनके समय अमरीका ने परमाणु अप्रसार अधिनियम पारित किया तथा यह शर्त लगा दी कि जो देश इस अधिनियम के अन्तर्गत परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे उन्हें ईंधन की आपूर्त्ति नहीं की जाएगी। अचानक तारापुर को ईंधन दिया जाना बंद कर दिया गया। ऐसी स्थिति में हमें फ्रांस, रुस और यहां तक कि चीन से ईंधन लेना पड़ा। चीन से ईंधन लेने के समझौते पर स्वयं मैंने ही बीजिंग जाकर हस्ताक्षर किए थे। अमरीका की उदारता यदि कहीं दिखी, या उसे आप उदारता कहना चाहें, तो वह सिर्फ इतनी थी कि उसने फ्रांस, चीन और रुस पर इस बात के लिए दबाव नहीं डाला कि ये देश भारत को ईंधन न दें। अगर हमें उन देशों से ईंधन नहीं मिलता तो तारापुर संयंत्र बंद करना पड़ता। इसलिए अमरीका जिस बारे में लिखित रुप से वचनबद्ध था, वह तारापुर में तोड़ दिया गया था।यदि किसी सुरक्षा आवश्यकता के समय भारत को परमाणु बम के इस्तेमाल की आवश्यकता हुई या परमाणु बम निर्माण करना पड़ा तो इस संधि का क्या असर होगा?मैं इस संधि के संदर्भ में बिना किसी अधिकृत प्रारुप को देखे कोई टिप्पणी नहीं कर सकता, लेकिन परमाणु अप्रसार संधि (एन.पी.टी.) और सी.टी.बी.टी. संधि में यह अनुच्छेद है कि उन पर हस्ताक्षर करने वाले देश सर्वोच्च आपातकाल या अपनी सुरक्षा के सर्वोच्च हित में उन संधियों से बाहर निकलकर आवश्यक कार्रवाई कर सकते हैं। अभी वर्तमान भारत-अमरीका परमाणु संधि को जारी रखे जाने के संकेत मिले हैं, लेकिन ऐसे क्षण का निर्धारण अमरीकी राष्ट्रपति करेगा, भारत का राष्ट्रपति नहीं। यानी भारत यदि कहे कि उसकी सुरक्षा को सबसे तीव्र खतरा पैदा हो गया है और वह परमाणु अस्त्र का इस्तेमाल करना चाहता है या उस स्थिति में वह परमाणु बम का निर्माण करना चाहता है तो वह स्थिति वास्तव में आपातकाल है या नहीं, यह फैसला अमरीकी राष्ट्रपति के पास भेजे गए परिस्थिति-विवरण के आधार पर वाशिंगटन से किया जाएगा।यह तो हमारी संप्रभुता और आत्मसम्मान से समझौता हुआ?देखिए, एनडीए सरकार ने भविष्य में किसी भी परमाणु प्रशिक्षण पर स्वयं प्रतिबंध लगाए हैं। वैसे प्रतिबंध पाकिस्तान ने भी अपने पर लगाए हैं। इसलिए भारत की ऊर्जा आवश्यकता और सारी दुनिया में उसके लिए जो ऊर्जा उत्पादन हेतु परमाणु सहयोग के द्वार बंद हो गए हैं उनको देखते हुए अमरीका से संधि उस स्थिति में आपत्तिजनक नहीं मानी जानी चाहिए जिस स्थिति में भारत के दूरगामी सामरिक हितों से समझौता न हो। भारत को इस बात की तीव्र आवश्यकता है कि वह अपने परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिए ईंधन प्राप्त करे। आज उसके संयंत्र केवल 60 से 65 प्रतिशत क्षमता पर काम कर रहे हैं। अत: अमरीका से परमाणु संधि यदि हमारे दूरगामी सामरिक हितों को नकारात्मक रुप से प्रभावित नहीं करती तो यह संधि हमारी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए बहुत उपयोगी होगी। वैसे भी भारत को परमाणु प्रतिरोधक क्षमता हासिल हो चुकी है और उस क्षमता के लिए अब उसे पुन: किसी परमाणु परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं है, यह वैज्ञानिकों ने ही कहा है। परमाणु बम के इस्तेमाल की तो बात ही बहुत दूर है।अंतिम निर्णय संसद करे-डा. ए. गोपालकृष्णन,पूर्व अध्यक्ष, भारतीय परमाणु ऊर्जा विनियमन बोर्डअमरीका-भारत परमाणु सहयोग उन्नयन कानून- 2006 को संयुक्त राज्य अमरीकी कांग्रेस के हाउस आफ रीप्रेजेंटेटिव्स ने 26 जुलाई, 2006 को पारित किया था। 231 में से 219 रिपब्लिकन सांसदों और 201 में से 140 डेमोक्रेटिक सांसदों ने इस कानून के पक्ष में मतदान किया। अमरीकी संसद ने उन सभी चेतावनियों और विरोधों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जो अमरीका के परमाणु अप्रसार गुट ने उठाए थे और मूल प्रस्ताव (एच.आर. 4974) में इन आशंकाओं को संज्ञान में लेते हुए बहुत से बदलाव किए। वहां इस विधेयक को जो समर्थन मिला वह इस बात का सूचक है कि संयुक्त राज्य अमरीका के हित सुरक्षित हैं। साथ ही, हमें यह भी स्वीकारना होगा कि यह भारतीय हितों के लिए एक बड़ा झटका था।इस संधि के अमरीकी संसद और सीनेट द्वारा पारित स्वरूपों के संदर्भ में भारतीय मीडिया के भी कुछ ल‚ोग उत्साहित होकर कहने लगे कि इस प्रक्रिया में उन “मारक प्रस्तावों” पर काबू पा लिया गया जो इस समझौते की संभावना को समाप्त कर देते। इससे ऐसा वातावरण बना दिया गया मानो दोनों समितियों से छनकर जो कानून पारित हुआ है, उसमें भारत के प्रति लाभदायक रवैया अपनाया गया है और उन सभी धाराओं को हटा दिया गया है जिनके बारे में भारतीय आलोचक चिंता कर रहे थे। सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। अंतिम दिनों में कुछ नए अतिरिक्त संशोधन सामने रख दिए गए ताकि भारत पर शिकंजा और अधिक कस दिया जाए। एच आर 5682 में वर्णित सभी मौलिक प्रतिबंध और मांगें पूर्ववत् ही रहीं। अमरीकी प्रशासन द्वारा दिये गए अधिकतर आश्वासन वहां की संसद ने नामंजूर कर दिए और कानून को उस प्रकार का स्वरूप दिया जो उन्हें अपने राष्ट्रीय हितों के लिए उचित लगता था।देश के हित की बात करने वाले कुछ समाचार पत्रों ने, जिसमें एशियन एज प्रमुख था, और कुछ अनुभवी और दृढ़ निश्चयी परमाणु वैज्ञानिकों ने, जिन्होंने अपना जीवन स्वदेशी भारतीय परमाणु परियोजना में लगाया है, ने भारत हित को सर्वोपरि रखने का बीड़ा उठाया। इस समूह ने भारतीय संसद में विपक्षी दलों का समर्थन पाया और उनके जरिए लोकसभा और राज्यसभा, दोनों में परमाणु संधि के विरोध का मुद्दा उठाया। इससे प्रधानमंत्री वरिष्ठ परमाणु वैज्ञानिकों से बात करने को बाध्य हुए और अगस्त, 2006 में भारतीय संसद को उन्होंने कुछ ठोस आश्वासन दिए ताकि विरोधी दलों द्वारा संधि के तीखे विरोध और नाराजगी को कुछ हद तक शांत किया जा सके। इधर दोनों देशों की सरकारों में अंतहीन वार्ता का सिलसिला चलता रहा और उधर देश अंतिम फैसले की प्रतीक्षा करता रहा। इस बात का बिल्कुल भी पता नहीं था कि मनमोहन सिंह सरकार के कुछ लोग इस मुद्दे पर देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं।हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय विश्लेषकों और वैज्ञानिकों द्वारा उठाई गईं कई गंभीर आपत्तियां अभी भी परमाणु संधि यानी हाइड एक्ट-2006 में मौजूद हैं। हम इस तथाकथित 123 समझौते में चाहे जो भी शब्दावली जोड़ लें, यह हाइड एक्ट ही भारत-अमरीकी परमाणु सम्बंधों और सहयोग की दिशा नियंत्रित करेगा। हाइड एक्ट-2006 में अभी भी ईरान के साथ हमारे घनिष्ठ सम्बंधों का जिक्र है और यह हमें हिदायत देता है कि पारम्परिक ऊर्जा क्षेत्र में भी हम ईरान से सहयोग न करें। यह बहु-मार्गी परमाणु ईंधन की आपूर्ति की गारंटी को सिरे से खारिज करता है, जैसा कि प्रधानमंत्री ने संसद को आश्वासन दिया था। यह हम पर एक नियम भी थोपता है कि हम अमरीका के साथ एफ.एम.सी.टी. पर सहयोग करेंगे। हमारा तात्कालिक ध्यान इस बात पर रहे कि कैसे हमारे आज के और आने वाले समय के हित सुरक्षित रहें। क्या हमें इसकी जिम्मेदारी केवल और केवल संप्रग सरकार को ही सौंप देनी चाहिए या भारतीय संसद को यह जिम्मेदारी देनी चाहिए कि यह सरकार और आने वाली सरकारें परस्पर मान्य सीमाओं में ही काम करें?प्रधानमंत्री ने अपने चुनिंदा लोगों को इस समझौते की नींव रखने के लिए, इसे यथार्थ रूप देने के लिए, नीतिगत चर्चा के लिए और शायद अन्य उल्लिखित समझौतों पर अमरीकी प्रशासन से सहमति बनाने के लिए भेजा। सरकार ने उन वरिष्ठ अधिकारियों को इस कार्य के लिए चुना, जिन पर प्रधानमंत्री को विश्वास था और जो अमरीकी दृष्टिकोण के समर्थक थे। संसद, केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य, प्रशासन और आम जनता को इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि क्या हो रहा है। इसलिए जैसे अमरीकी संसद ने अपने हितों का ध्यान रखा, भारत की संसद को भी अपने राष्ट्रीय हितों के प्रति जाग जाना चाहिए। यह स्पष्ट कहना चाहिए कि भारत के हितों की दृष्टि से इस समझौते पर संसद की मंजूरी व समीक्षा जरूरी है।हमारी संसद में भी प्रधानमंत्री ने इस समझौते पर कई मौकों पर आश्वासन व वक्तव्य दिए हैं। लेकिन जैसी स्थिति सामने आ रही है, उससे लगता है कि प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त किए गए वार्ताकार अमरीकी प्रशासन पर ऐसा कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए ताकि प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए आश्वासन कुछ खरे उतरते। जो कुछ हो रहा है, उससे साफ है कि यह सरकार संसद को वह आदर नहीं दे रही है जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत संसद को दिया जाना चाहिए।हमारी संसद को भी यह समझना चाहिए कि उसके पास भी बहुत से अधिकार और जिम्मेदारियां हैं जो हमारा संविधान उसे देता है। संसद को यह भी देखना चाहिए कि सरकार सही राह पर चल रही है या नहीं। (रीडिफ डाट काम से साभार)15
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