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इतिहास दृष्टि

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May 8, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 May 2007 00:00:00

1857 के महासमर की मूल प्रेरणा-4ब्रिटिश धोखाधड़ी का विरोधडा. सतीश चन्द्र मित्तलकुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्राध्यापक रहे डा. सतीश चन्द्र मित्तल द्वारा लिखित इतिहास के विभिन्न आयामों पर “इतिहास दृष्टि” स्तंभ के अंतर्गत 1857 के महासमर की मूल प्रेरणा की समापन किस्त और महासमर की व्यापकता की पहली किस्त प्रस्तुत है। -सं.स्वाभाविक रूप से भारतीय नेताओं ने ब्रिटिश सरकार का कटु विरोध किया। नाना साहेब ने माना, “आज तक अंग्रेज धोखाधड़ी से भारतीयों का धर्म भ्रष्ट करने का प्रयत्न करता रहा है। धोखाधड़ी से काम नहीं बनता है। यह देखकर अब उन्होंने इस काम को बलपूर्वक प्रारम्भ कर दिया है।” रानी झांसी ने तुलसी व गंगाजल लेकर सैनिकों का संघर्ष के लिए आह्वान किया। तात्या टोपे ने कहा, “हमारा संघर्ष अंग्रेजों से राजसत्ता प्राप्त करना ही नहीं, बल्कि भारत को ईसाई देश बनाने से रोकना है। हमारा लक्ष्य ईसाइयों के मिशन से भारत की रक्षा करना है।” अवध की अनेक घोषणाओं में इसी धर्म रक्षा की गूंज सुनाई देती है। बहादुरशाह जफर ने क्रांतिकारियों द्वारा उन्हें शहंशाह-ए-हिन्दुस्थान घोषित होने पर अपनी पहली घोषणा में कहा, “इन दिनों में समस्त अंग्रेज कुत्सित योजनाओं में लगे रहे हैं- प्रथम, हिन्दुस्थानी सेना का धर्म नष्ट करने में तथा उन पर जबरदस्ती ईसाई मत थोपने में। इसलिए हम निश्चय करते हैं कि अपने धर्म के आधार पर, सब व्यक्तियों के साथ एकत्रित हैं। इन शर्तों पर हमने दिल्ली में दिल्ली वंश की पुनस्स्थापना की है।”1857 का स्वतंत्रता संघर्ष पूर्णत: असफल न हुआ। इसके विपरीत भारतीयों में धर्म तथा स्वदेश का बोध तीव्र हुआ। विश्वव्यापी ब्रिटिश साम्राज्यवाद भारत को ईसाई देश न बना सका। भारतीय मामलों के मंत्री चाल्र्स वुड के व्यक्तिगत कागजातों से ज्ञात होता है कि वह अपने समकालीन भारतीय वायसरायों- लार्ड कैनिंग, लार्ड एलगिन व लार्ड लारेंस को समय-समय पर ईसाईकरण की नीतियों पर नियंत्रण तथा निगरानी रखने को कहता रहा। अंग्रेज भारत को आस्ट्रेलिया या उत्तरी अफ्रीका की भांति ईसाई देश न बना सके तथा उन्होंने भारत में स्थायी निवास का विचार भी त्याग दिया।इसी 1857 की नवीन चेतना तथा मूल प्रेरणा को धार्मिक तथा सामाजिक जागरण के रूप में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, बंकिम चन्द चट्टोपाध्याय तथा महर्षि अरविन्द ने आगे बढ़ाया।1857 के महासमर की व्यापकता-11857 का महासमर भारतीय इतिहास की एक गरिमामयी युगान्तकारी घटना है। यह भारतीयों के बलिदानों तथा संघर्षों की गौरवगाथा है। तत्कालीन गुप्त दस्तावेजों, व्यक्तिगत संस्मरणों, पारस्परिक पत्र व्यवहारों, राष्ट्रीय तथा विभिन्न प्रांतों के अभिलेखागारों से प्राप्त प्रचुर मात्रा में सामग्री, कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेंसियों में हुए सैनिकों के कोर्ट मार्शल के आंकड़ों तथा अंदमान एवं अन्य जेलों में रहे क्रांतिकारियों की जानकारी से स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि इस संघर्ष में भारत के विभिन्न क्षेत्रों, वर्गों, सम्प्रदायों तथा जातियों ने भाग लिया। वस्तुत: 1857 का यह संघर्ष अंग्रेजों के प्रतिरोध का एक समुच्य बोध था। इस संघर्ष में सम्पूर्ण भारत एक युद्ध क्षेत्र बन गया था।सीमित क्षेत्र की भ्रामक धारणासामान्यत: सभी ब्रिटिश इतिहासकारों तथा विद्वानों ने इस महासमर का दायरा सीमित बताने का प्रयत्न किया। कुछ ने इसे केवल उत्तरी भारत व मध्य भारत तक सीमित बताया। कुछ ने इसका विस्तार बंगाल, मध्य भारत, अवध तथा रुहेलखण्ड तक बताया। कुछ ने कहा, बम्बई तथा मद्रास क्षेत्र अप्रभावित रहे। कुछ को पंजाब वफादार लगा। कुछ ने राजस्थान को शांत कहा। वस्तुत: इस महासमर को सीमित कहना अंग्रेज प्रशासकों की एक सोची समझी नीति का भाग था। ब्रिटिश सरकार भारत में ब्रिटिश सैनिकों तथा अधिकारियों के मनोबल को बनाये रखना तथा इंग्लैण्ड में बढ़ती बेचैनी को कम करना चाहती थी। तत्कालीन ब्रिटिश पत्रों तथा रानी विक्टोरिया के पत्रों से ब्रिटिश जनमानस के भयभीत तथा चिंतित होने की जानकारी मिलती है। अनेक को चिंता थी कि अब भारत से व्यापार ठप्प हो जायेगा। कुछ को भय था कि उनके परिवार भारत से लौटेंगे अथवा नहीं। अगले अंक में जारी5

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