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जिसकी राख और अस्थियों से भी भयभीत थे अंग्रेज-डा. सतीश चन्द्र मित्तलदेश की धरती से दूर देश की स्वतंत्रता के लिए स्वयं फांसी का फंदा गले में डालने वाले प्रथम क्रांतिकारीभारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन अनेक क्रांतिकारियों के संघर्षों, त्यागमय कार्यों तथा साहसिक गतिविधियों की अमर गाथा है। मदनलाल धींगरा इनके पथ-प्रदर्शकों में एक थे। 23 जुलाई, 1909 को फांसी की सजा सुनने पर उसका अभिनन्दन करते हुए मदनलाल धींगरा ने कहा था, “धन्यवाद, मुझे प्रसन्नता है कि मैं अपने देश के लिए मरने का गौरव प्राप्त कर रहा हूं।” वे लंदन में पहले भारतीय शहीद थे, जो 17 अगस्त, 1909 को पेन्टीविला बन्दीगृह में हंसते-हंसते फांसी के फंदे से स्वयं झूल गये थे।मदनलाल धींगरा का जन्म पंजाब की आध्यात्मिक नगरी अमृतसर में 1887 ई. में हुआ। अमृतसर सदैव ही स्वतंत्रता संघर्ष के क्षेत्र में आगे रहा है। पर दुर्भाग्य से मदनलाल धींगरा का परिवार इसका अपवाद था। उनके पिता रायसाहिब दित्तामल अमृतसर के एक प्रसिद्ध डाक्टर व बड़े जमींदार थे। सम्पूर्ण परिवार पूर्णत: राजभक्त था। मदनलाल धींगरा अपने सात भाई-बहनों में छठे नम्बर पर थे। सभी भाई पढ़े-लिखे तथा अंग्रेज सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर थे।मदनलाल धींगरा बचपन से ही घुमक्कड़ प्रवृत्ति के थे। उन्होंने अमृतसर से मैट्रिक तथा लाहौर से इन्टर की परीक्षा पास की और इन्जीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड गए। वहां वे भारतीय क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आये। प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा वीर सावरकर से सम्पर्क हुआ। लाला लाजपतराय के इन वाक्यों, “युवकों आपका लहू गर्म है, राष्ट्र रूपी वृक्ष आपके लहू की मांग करता है” से वे अत्याधिक प्रभावित हुए। जब ब्रिटिश सरकार भारत में अनेक क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दे रही थी तब एक दिन शहीदों की स्मृति में लिखित एक पट्टी लगाकर ये अपनी कक्षा में पहुंचे थे। कालेज के अधिकारियों के कहने पर भी उन्होंने पट्टी नहीं हटायी। 1908 में ब्रिटेन की सरकार क्रांतिकारियों की गतिविधियों से चौकन्नी हो गई थी। मदनलाल धींगरा तथा उनके साथियों ने अंग्रेजों के जी-हजूरों को मारने, अंग्रेजों के दुश्मनों से सम्पर्क स्थापित करने, शस्त्र एकत्र करने, बम बनाने और क्रांतिकारियों को संगठित करने की योजना बनायी थी। इस योजना के पहले शिकार बने भारत मंत्री लार्ड मार्ले के राजनीतिक सलाहकार (ए.डी.सी.) सर विलियम कर्जन वायली। इस कार्य के लिए मदनलाल धींगरा ने स्वयं को प्रस्तुत किया।पहली जुलाई, 1909 ई. को नेशनल इण्डियन ऐसोसिएशन के वार्षिक सम्मलन में सर कर्जन वायली को भी “ऐट होम” पर बुलाया गया था। कर्जन वायली भारतीय क्रांतिकारियों के लंदन स्थित केन्द्र “इंडिया हाउस” पर निगरानी रखने वाला प्रमुख अधिकारी था। इस सम्मेलन का विस्तृत वर्णन लन्दन टाइम्स में (3 जुलाई) को प्रकाशित हुआ है। भोजन के पश्चात इम्पीरियल इन्स्टीट्यूट के जहांगीर हाल में एक संगीत कार्यक्रम का आयोजन था। लेकिन जैसे ही कर्जन वायली वापस जाने के लिए सीढ़ियों से उतरे, मदनलाल धींगरा ने निकट आकर उन पर कई गोलियां दागीं। कर्जन वायली वहीं ढेर हो गया। चारों तरफ भगदड़ मच गई। कुछ ने मदनलाल धींगरा पर भी आक्रमण किया। उनका चश्मा गिर गया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। डाक्टरी परीक्षा की गई। मदनलाल धींगरा के अदालती अभिलेख (ट्रायल आफ मदनलाल धींगरा, पब्लिक रिकार्ड आफिस, लन्दन) से पता चलता है कि उस समय भी उनकी नब्ज सामान्य थी। उनमें कोई भी परेशानी या उत्तेजना न थी। इतना बड़ा कार्य इतनी सहजता से कर जाना अंग्रेज चिकित्सकों के लिए आश्चर्य का विषय था।अनेक अंग्रेज अधिकारियों तथा भारतीय अंग्रेज भक्तों द्वारा धींगरा के इस कार्य की तीव्र आलोचना तथा भत्र्सना की गई। विश्व के विभिन्न स्थानों से लगभग 100 तार लेडी कर्जन वायली को भेजे गये (द ट्रिब्यून, 21 अगस्त 1909)। भारत मंत्री लार्ड मार्ले ने इस घटना को भयानक तथा धींगरा के कृत्य को नीचतापूर्ण तथा कायरतापूर्ण (मार्ले पेपर्स, रील नं. 7) कहा। भारत के वायसराय लार्ड मिन्टो ने धींगरा को पागल तथा उसके कार्य को अति घृणापूर्ण बतलाया (मिन्टो पेपर्स, करस्पोन्डेन्स भाग दो, नं. 7)।मदनलाल धींगरा के परिवार के लोगों ने भी इस घटना से बड़ा लज्जित तथा हीन महसूस किया। रायसाहिब दित्तामल ने धींगरा को अपना पुत्र मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने तार द्वारा कर्जन वायली की हत्या पर दु:ख प्रकट करते हुए कहा कि मदनलाल धींगरा में बचपन से ही झक्कीपन था (मार्ले पेपर्स, रील नं. 8)। धींगरा के दो भाइयों ने भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किए।इंग्लैण्ड तथा भारत में स्थान-स्थान पर सर कर्जन वायली की स्मृति में शोक में सभाएं हुई। 5 जुलाई को कैक्सटन हाल में सर कर्जन वायली के प्रति सहानुभूति तथा संवेदना प्रकट करने के लिए भारतीयों की एक सभा हुई, जिसमें सर आगा खां ने कर्जन वायली की हत्या को एक राष्ट्रीय विपत्ति बताया। एक प्रस्ताव द्वारा धींगरा को “पागल” तथा उसके कार्य को “धर्मान्ध कृत्य” कहा गया। परन्तु यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित नहीं हुआ, इसका एकमात्र प्रतिकार सभा में उपस्थित वीर सावरकर ने किया (द ट्रिव्यून, 7 जुलाई 1909)। उसी रात्रि आठ बजे भारतीयों की एक और सभा न्यू रिफार्मर्स क्लब (लन्दन) में हुई, जिसमें सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने हिंसा तथा हत्या के कार्यों का विरोध किया। साथ ही यह भी कह दिया कि हत्यारा (धींगरा) पंजाब का है न कि बंगाल का।5 जुलाई को लाहौर में भी होने वाले कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की स्वागत समिति ने धींगरा के कृत्य की तीव्र भत्र्सना की तथा इस कार्य को “भीरुतापूर्ण तथा विवेकशून्य पूर्ण” कहा गया। (द ट्रिब्यून, 7 जुलाई 1909)। श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने धींगरा के कृत्य को भारत के नाम को कलुषित करने वाला बताया (सिविल एण्ड मिलीटरी गजट, 11 जुलाई 1909)। परन्तु देश-विदेश के क्रांतिकारियों तथा स्वतंत्रता प्रेमियों ने धींगरा के कार्य की प्रशंसा की। वारीन्द्र चन्द चट्टोपाध्याय ने सावरकर द्वारा प्रस्ताव के विरोध का समर्थन किया। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने एक पत्र द्वारा धींगरा के कार्य का समर्थन किया (द टाइम्स, 17 जुलाई 1909)। अंग्रेजों में एकमात्र विक्टर ग्रेसन (संसद के सदस्य) ने उचित ठहराया।मदनलाल धींगरा ने लन्दन की अदालत में अपने बचाव के लिए कोई प्रयत्न न किया। जबकि भविष्य में शहीदे आजम भगत सिंह के मुकदमों के दौरान अदालत में भारी भीड़ तथा गहमागहमी रहती थी, मदनलाल धींगरा के मुकदमें के समय न कोई मित्र था न कोई रिश्तेदार और न कोई अन्य भारतीय। उन्होंने अंग्रेज जज को बताया था कि वह अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए ही क्रांतिकारी बना है। उसने यह भी चेतावनी दी, “आप अंग्रेज चाहे जो चाहे कर लो, परन्तु यह याद रखो कि भविष्य हमारा होगा।”इस महान क्रांतिकारी को 17 अगस्त, 1909 को फांसी दी गई। कहा जाता है कि फांसी से पूर्व जब इनसे अंतिम इच्छा पूछी गई तो इन्होंने एक चेहरा देखने वाले शीशे की मांग की। अंग्रेज अधिकारी को आश्चर्य हुआ, पर शीशा लाया गया। मदनलाल धींगरा ने अपना चेहरा देखा। वेशभूषा ठीक की। टाई ठीक ढंग से बांधी और फांसी के लिए ऐसे चले जैसे क्रांतिकारियों की बैठक में जा रहे हों (ट्रायल आफ मदनलाल धींगरा)। मदनलाल धींगरा के वक्तव्य को भी सरकार ने प्रतिबंधित रखा था, परन्तु वह आयरिश तथा अमरीका के पत्रों में वे प्रकाशित हुए थे। लन्दन के प्रमुख पत्र डेली न्यूज (16 अगस्त, 1909) ने भी मदनलाल धींगरा के प्रेरक वक्तव्य को प्रकाशित किया था, जिसमें उसने खुला संघर्ष संभव न होने की स्थिति में गुरिल्ला पद्धति अपनाने को कहा था। उन्होंने राष्ट्र की पूजा को राम की पूजा तथा राष्ट्र सेवा को कृष्ण की भक्ति कहा। मदनलाल धींगरा ने अंतिम इच्छा में कहा, “ईश्वर से मेरी केवल यही प्रार्थना है कि मैं उसी मां के उदर से पुनर्जन्म लेकर इसी पवित्र आदर्श के लिए अपना जीवन न्योछावर करता रहूं, जब तक कि उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती तथा मातृभूमि स्वतंत्र नहीं होती।”मदनलाल धींगरा की फांसी के समय वहां कोई भी भारतीय नहीं था (सिविल एण्ड मिलीटरी गजट, 19 अगस्त, 1909)। धींगरा ने स्वयं ही फांसी का फंदा पहनकर देश के लिए बलिदान का उदाहरण प्रस्तुत किया। मृत्यु के 67 वर्ष बाद 13 दिसम्बर, 1976 को इस 22 वर्षीय हुतात्मा की अस्थियां भारत लाई गईं। 13 दिसम्बर से 20 दिसम्बर तक पंजाब के विभिन्न नगरों में भारतीयों ने श्रद्धांजलि भेंट की तथा 25 दिसम्बर को वे अस्थियां हरिद्वार में विसर्जित कर दी गईं। तत्कालीन दस्तावेजों से पता चलता है कि ब्रिटिश सरकार उनकी राख तथा अस्थियों को भारत भेजने को तैयार नहीं थी (होम पालिटिकल, बी. भारत सरकार, अगस्त 1909 फाइल नं. 64)। क्योंकि सरकार को डर था कि कहीं उसकी राख को अपने माथे पर लगाकर भारत के युवकों में अनेक मदनलाल धींगरा पैदा न हो जाएं। धन्य है मदनलाल धींगरा और धन्य है उसका अमर बलिदान।15
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