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लौ बुझने से पहले की फड़फड़ाहट!

by
Dec 3, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Dec 2006 00:00:00

-हिमांशु द्विवेदी

सम्पादक, दैनिक हरिभूमि (रायपुर)

यह अवसर शोक का नहीं होश में रहने और जोश में जीने का है। भविष्य को निखारने की खातिर वर्तमान को जलना व तपना होता है। भावी पीढ़ियां समृद्ध हों, सुरक्षित हों, संरक्षित हों, इसके लिए मौजूदा पीढ़ी द्वारा संघर्ष करने का सिलसिला सदियों पुराना है। फिर बस्तर के वनवासी समाज ने तो सदैव इतिहास ही रचा है और अब वह भविष्य निर्माण की प्रक्रिया में अग्रसर है। लिहाजा कोंटा के समीप नक्सलियों के द्वारा वनवासियों पर किया गया कायराना हमला दरअसल दीये की लौ के बुझने से पहले फड़फड़ाने भर से ज्यादा कुछ नहीं है।

बस्तर की अंतरराष्ट्रीय पहचान है और यहां के वनवासी भारत की सदियों पुरानी शौर्य परम्परा के जीवंत प्रतीक हैं। नई पीढ़ी के लिए सलवा जुडूम महज एक आश्चर्य हो लेकिन वस्तुत: यह इस वनवासी समाज की हजारों वर्ष पुरानी स्वाभिमानी परम्परा का ही एक हिस्सा है। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहला विद्रोह इतिहास की “सरकारी किताबों में भले ही 1776 के चटगांव विद्रोह” के रूप में रेखांकित हो, लेकिन हकीकत यह है कि बस्तर के वनवासी समाज ने तो अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपने तीर-कमान 1774 में ही तान दिए थे, जिसे ईमानदार इतिहासकारों ने “हलबा विद्रोह” के रूप में उल्लेखित किया था।

लिहाजा सलवा जुडूम उसी जुझारू परंपरा की एक कड़ी है, जिसमें शामिल हजारों वनवासियों के हाथों में आज हथियार भले ही नहीं हैं लेकिन ह्मदय में हौसला वही सदियों पुराना है।

जिन्हें सलवा जुडूम नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई के रूप में दिखाई देता है, वे अपनी समझ को सुधारें। बस्तर में जो आतंकी सक्रिय हैं वे “नक्सलवाद” का “क ख ग” भी नहीं जानते। जिन्हें हमारे कहे पर यकीन नहीं, वह इसकी पुष्टि नक्सलवाद के जनक कानू सान्याल से कर सकते हैं। यदि बस्तर में नक्सली सक्रिय होते तो यह घटना घटित ही नहीं होती। इस हमले में जो जन मारे गए हैं वह खाकी वर्दीधारी नहीं, वरन वस्त्रविहीन वे “वनवासी” थे जिनके हितों के संरक्षण का दावा “तथाकथित नक्सली” वर्षों से करते आ रहे हैं। दरअसल मुम्बई के माफिया गिरोह और इन नक्सलियों में अब फर्क केवल इलाके का है, इरादे का नहीं। फर्क है तो महानगरों के कथित सभ्य समाज की कायरता और इन निरीह वनवासियों की बहादुरी में। जहां महानगरों में माफिया को सहज नजराने भेंट कर दिए जाते हैं वहीं ये वनवासी परस्पर संगठित हो इस अन्याय का प्रतिकार करने दृढ़ता के साथ खड़े नजर आते हैं। सलवा जुडूम शिविरों पर निरंतर हो रहे हमलों के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। पहला यह कि अपने खिलाफ हो रहे जनजागरण से ये आतंकी खौफजदा हैं। पीठ पर हमला तभी होता है जब प्रतिद्वंद्वी सीधे मुकाबले में अपने आपको जीतने में असमर्थ पाता है। इस हमले को देखते हुए पुलिस के सूचना एवं सुरक्षा तंत्र में सुधार की पर्याप्त जरूरत है। जनता तो सड़क पर उतर जाए लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए जिम्मेदार लोग चारदीवारी में बैठे रहें, यह ठीक नहीं है। इसलिए शासन के स्तर पर सलवा जुडूम को जारी रखने न रखने पर नहीं उसके संरक्षण के तौर-तरीकों पर विचार किए जाने की जरुरत है। क्योंकि यह कोई सरकारी अभियान नहीं बल्कि स्वयंस्फूर्त जन आंदोलन है।

हमले निरंतर बढ़ रहे हैं लेकिन साथ ही साथ सलवा जुडूम में जनता की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है। यह भागीदारी रूकनी भी नहीं चाहिए क्योंकि “कौम” वही अमर हो पाती है जो कुर्बानी को सदैव तैयार रहती है। लिहाजा हममें से हर एक को किसी भी कुर्बानी के लिए सदैव तैयार रहना होगा तभी सलवा जुडूम अपना लक्ष्य हासिल कर पाएगा। घटना के तुरंत बाद विधानसभा में शहीदों को श्रद्धांजलि और मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह द्वारा घटनास्थल पर रवाना होना यह इंगित करता है कि आतंक के खिलाफ इस लड़ाई में वनवासी अकेले नहीं हैं। स्मरण रहे कि “जलियांवालाबाग हत्याकांड” से अगर यह मुल्क सहम गया होता तो हम आज भी “गुलाम भारत” में घुटन भरी जिंदगी जी रहे होते। लिहाजा मलाल आज की घटना का न करें, वरन इस बात का करें कि हम इतने सौभाग्यशाली क्यों न हुए कि आज की इस शहीदों की सूची में हमारा नाम शामिल हो पाता। सत्य के लिए संघर्ष में आज शहीद हुए तमाम जन का शत-शत वंदन! अभिनंदन!!

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