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संस्कृति-सत्य

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Dec 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Dec 2006 00:00:00

स्वामी हरिदास की कृपा से

अकबर में आया बदलाव

वचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”

संभव है कि कुछ लोग इस बात से सहमत न हों, क्योंकि इतिहास ग्रंथों में यह प्रसंग प्राप्य नहीं, किन्तु एक घटना का चमत्कारिक प्रभाव अकबर के मन-मानस और राजनीति पर कैसे कारगर हुआ, इसका उल्लेख करने में मुझे कोई हिचक नहीं। सर्वविदित है कि स्वामी हरिदास संगीत-साधना में इतने समर्थ सिद्ध थे कि उन्हीं के पावन स्पर्श तथा कृपा से बैजूबावरा और रामतनु पाण्डेय (तानसेन) ने संगीत कला में अपरिमित यश अर्जित किया। तन्ना या रामतनु यदि स्वामी हरिदास का आश्रय न पाते तो क्या कभी अकबर के दरबार में नवरत्नों में स्थान पाते? एक दिन क्या हुआ कि अपने दरबार में ही अकबर ने तानसेन के संगीत से मुग्ध होकर उनकी प्रशंसा करनी शुरू की और कहा, “तानसेन! तुमसे हमारे दरबार की रौनक है, और क्यों न हो, आखिर इस मुल्क में तुम्हारे अलावा कोई दीगर हुनरमंद (कलाकार) है ही कौन? तुम्हीं ऐसे फनकार हो कि “दीपक राग” गाकर चिराग रोशन कर सकते हो। “मेघ-मल्हार” अलापकर बादलों से बेमौसम बारिश करवा सकते हो।” अपनी तारीफ सुनकर तानसेन ने कानों पर हाथ रख लिए और अकबर से अर्ज किया, “जहांपनाह! मैं आज जो कुछ भी हूं, उसके पीछे मेरे गुरुदेव स्वामी हरिदास की ही प्रेरणा और आशीर्वाद है, अन्यथा मैं तो कभी जंगल में जानवरों को चराता था। मैं अपने गुरुदेव की तुलना में तिनका भी नहीं, वे सच में महान संगीताचार्य और एक जाने-माने सिद्ध संत हैं।” यह सुनकर अकबर का मन भी स्वामी हरिदास के दीदार को बेचैन हो उठा। उसने तानसेन से आग्रह किया कि “उस हस्ती का दीदार मैं भी करना चाहता हूं।” परन्तु तानसेन ने कहा- “जहांपनाह! वहां शाहों-शहंशाहों की कतई गुजर नहीं, वे तो हर समय अपनी भगवत् साधना में ही तल्लीन रहते हैं। किसी बादशाह से उनकी मुलाकात हो पाना मुमकिन नहीं। तो अकबर राजी हो गया कि वह एक मामूली इन्सान के तौर पर उनसे मुलाकात करेगा, बादशाही स्तर से नहीं। तीव्र उत्कंठा जानकर तानसेन ने अकबर की शाही पोशाक उतरवाकर खवास के कपड़े पहनवाये और अपना तानपुरा भी उसे दे दिया, क्योंकि अकबर तानसेन का ही खवास बनकर स्वामी हरिदास से मिलने वृन्दावन के निधिवन जा रहा था। वहां जाकर दोनों ने विनत हो स्वामी जी को प्रणाम किया और तानसेन ने जानबूझकर उस दिन वहां जो कुछ गाया, उसमें त्रुटि कर दी। फलत: स्वामी हरिदास तानसेन की त्रुटि सुधारने हेतु स्वयं तानपुरा लेकर राग अलापने लगे। उस स्वर, लय और राग के क्या कहने! अकबर ने जीवन में आज प्रथम बार ऐसी सुधि-बुधि बिसारने वाले विलक्षण संगीत की स्वर लहरी सुनी तो उसे अपनी बादशाहत का मान बिसर गया और वह भाव-विभोर होकर स्वामी जी के चरणों में विनत हुआ। स्वामी जी कह उठे, “अकबर! तू सच्चा संगीत प्रेमी है, तभी तो तू यहां तानसेन का खवास बनकर आया।” कहते हैं उस दिन अकबर ने पूरे वृन्दावन में विचरण किया और वहां जब पेड़-पौधों पर अनगिनत पक्षी देखे तो यह आदेश जारी किया कि आगे कभी कोई शिकारी इन पखेरुओं का शिकार न करे, वरना उसे सजा दी जाएगी। साथ ही अकबर ने उन पक्षियों के चारे-दाने की भी व्यवस्था कराई। सबसे बड़ी बात यह हुई कि स्वामी हरिदास के दर्शन और सत्संग के प्रभाव से अकबर में अभी तक जो मजहबी कट्टरता का भाव जड़ जमाये था, वह दूर हो गया और वह गैर-मुस्लिम समाज के प्रति उदारता बरतने को प्रेरित हुआ। एक रोज अकबर ने तानसेन से कहा- “तानसेन! कोशिश करो, शायद तुम भी स्वामी जी की तरह जादुई तान छेड़ सको”। तानसेन ने जवाब दिया, “जहांपनाह! यह कभी मुमकिन नहीं, क्योंकि यह नाचीज तो आपका दरबारी है और केवल हुजूर की खुशी के लिए गाता है, लेकिन मेरे गुरुदेव किसी शख्सियत के लिए नहीं वरन् जो पूरी दुनिया और जो दोनों जहां का मालिक है, उसी एक परमात्मा के लिए गाते हैं। मेरी उनकी क्या तुलना, मैं बूंद हूं, वे समुद्र हैं।” तानसेन अपने गुरु की महिमा बखानते हुए जरा भी हिचके नहीं। अकबर उनकी वह बात सुनकर भौंचक रह गया।

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