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फिर शरीयत का सवाल
-मुजफ्फर हुसैन
भारतीय संविधान के अन्तर्गत बाल विवाह अपराध है लेकिन इस कानूनी मर्यादा का पालन कितने माता-पिता या अभिभावक करते हैं, यह आज भी भारतीय समाज में एक उलझा हुआ सवाल है। लड़के-लड़की वयस्क हो जाने पर जब बचपन में हुए अपने विवाह को नकार देते हैं तब एक बहुत बड़ी समस्या पैदा हो जाती है। इससे बचने के लिए पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश जारी किया कि प्रत्येक विवाह का पंजीकरण अनिवार्य है। हिन्दू और ईसाई समाज विवाह के पंजीकरण कराये जाने का विरोधी नहीं है लेकिन पर्सनल ला बोर्ड सहित मुस्लिम समाज के अनेक संगठनों का कहना है कि निकाह का अनिवार्य रूप से पंजीकरण कराने का अर्थ होता है समान नागरिक कानून को स्वीकार करना। पर निकाह का पंजीकरण न होने पर मुस्लिम समाज कितनी परेशानियों से गुजरेगा, इसका अनुमान भीलवाड़ा में घटी एक घटना से लगाया जा सकता है।
भीलवाड़ा में शराब गोदाम के पीछे रहने वाले बाबू खान बिसायती ने 8 मई, 1990 को अपनी चार बेटियों का निकाह एक साथ कर दिया था। इसमें सबसे छोटी बेटी चार वर्षीय माफिया बानो भी शामिल थी। उसका निकाह आर.के. कालोनी के पीर मोहम्मद बिसायती के पुत्र फिरोज के साथ हुआ था। निकाहनामे के अनुसार उस समय माफिया लगभग चार वर्ष की थी और फिरोज भी नाबालिग था।
माफिया जवान हुई तो उसने अपने पिता द्वारा लिए गए निर्णय का घोर विरोध किया और बचपन में फिरोज के साथ हुए निकाह को नकार दिया। माफिया ने कहा, “मैं उस समय नासमझ थी। निकाह में लड़की की रजामंदी होनी जरूरी है। जब तक लड़की अपनी अनुमति के साथ अपनी मेहर तय नहीं कर लेती, उस समय तक निकाह नहीं हो सकता है। यदि किसी काजी ने इन सभी तथ्यों की अवहेलना की है तो वह निकाह कभी जायज नहीं हो सकता। एक चार वर्ष की बच्ची निकाह और तलाक को क्या समझे? जिस काजी ने निकाह पढ़ा है, वह शरीयत के अनुसार वैध नहीं है। इसलिए मैं अपने पिता द्वारा बचपन में कराए गए निकाह को ठुकराती हूं और यह घोषणा करती हूं कि जिसके साथ मेरा निकाह कराया गया है, वह मेरा वैध रूप से पति नहीं है।”
माफिया बानो के पिता बाबू खान बिसायती इससे भी एक कदम और आगे चले गए। अपनी बेटी के पूर्व में कराए गए निकाह की चिंता न कर बाबू खान ने 27 मार्च, 2006 को माफिया का दूसरा निकाह भीलवाड़ा के ही हुसैन कालोनी के मोहम्मद अली बिसायती के पुत्र इदरीस अली से अपने रिश्तेदारों की उपस्थिति में करवा दिया। दोनों निकाहनामों पर मौलवियों, वकीलों, पिता और गवाहों के भी हस्ताक्षर हैं। इस मामले में सबसे बड़ी उलझन यह है कि न तो माफिया ने अपने पूर्व पति फिरोज से आज तक तलाक लिया है और न ही इदरीस ने दूसरे निकाह से पूर्व अपनी पहली पत्नी रेहाना से दूसरा निकाह करने सम्बंधी स्वीकृति प्राप्त की है। रेहाना और इदरीस का निकाह 25 मार्च, 1993 को हुआ था। जब उक्त मामला बिसायतियों की पंचायत में उठा तो इदरीस ने रेहाना को मेहर देकर मुक्ति प्राप्त कर ली थी। लेकिन दोनों निकाहनामों के अनुसार माफिया दो पतियों की पत्नी आज भी बनी हुई है। एक पत्नी दो पतियों के बीच में हो, इसकी व्यवस्था न तो पर्सनल ला में है और न ही भारत के प्रचलित कानून में। माफिया किसी एक व्यक्ति की पत्नी ही रह सकती है। इस मामले में शरीयत का क्या कहना है, यह कोई नहीं जानता? क्या इससे यह पता नहीं चलता कि निकाह के मामले में किसी को भी भ्रम की स्थिति में डाला जा सकता है?
इससे निपटने के केवल दो तरीके हैं, या तो मुस्लिम उलेमा शरीयत सम्बंधी कानूनों को सरल और इतने स्पष्ट रूप से जनता के सम्मुख प्रस्तुत करें कि हर कोई उसे अपना सके अथवा शरीयत के कानून की जानकारी केवल निकाह और तलाक कराने वाले मौलाना तथा काजियों के लिए ही नहीं, बल्कि उस व्यक्ति के लिए भी अनिवार्य हो जिस पर वह लागू होती है। अरबी और उर्दू के साथ-साथ वे हिन्दी और राज्य की अन्य भाषाओं में भी उपलब्ध होने चाहिए। यदि मुस्लिम उलेमा ऐसा नहीं कर सकते हैं तो फिर सम्पूर्ण देश के लिए समान नागरिक कानून लागू किया जाना चाहिए। इससे न तो बाल विवाह होगा और न ही एक लड़की दो पुरुषों से निकाह कर सकेगी। जो भी कानून तोड़ेगा उसे सरकार दंडित करेगी। पिछले कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि कभी गुड़िया का मामला उठता है तो कभी इमराना का, और अभी हाल में ही भद्रक की नजमा का मामला आया। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि निकाह और तलाक के मामले में शरीयत के कानून को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जा सकता, इसलिए समाज के सभी वर्गों को राहत दिलाने के लिए समान नागरिक कानून आवश्यक है।
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