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विचार-गंगा

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Nov 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Nov 2006 00:00:00

माक्र्सवाद मुर्दाबाद, सत्तावाद जिन्दाबाद

देवेन्द्र स्वरूप

“हम कम्युनिस्ट हैं, मूर्ख नहीं। प. बंगाल में हम जो कुछ कर रहे हैं, वह पूंजीवाद है, माक्र्सवाद नहीं।” विधानसभा चुनावों के ठीक पहले प. बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का यह कथन काम आया। पूंजीवाद की पूंछ पकड़कर माकपा का वाममोर्चा पहले से भी अधिक बहुमत जीतकर सत्ता में वापस आ गया और यह गर्वोक्ति कर सका कि इतिहास का यह अकेला उदाहरण है जब माक्र्सवादियों ने लगातार सातवीं बार लोकतांत्रिक विधि से सत्ता प्राप्त की है, यह हमारी विचारधारा की सफलता का प्रमाण है। यदि विचारधारा नहीं, सत्ता ही राजनीति का एकमात्र लक्ष्य हो तो पूंजीवाद को कंधों पर बैठाये कम्युनिस्टों को कौन मूर्ख कहेगा, मूर्ख तो जनता हुई, जिसने वाममोर्चे को उसके दोगले व अवसरवादी चरित्र के लिए दंडित करने की बजाय उसके गले में जयमाला पहना दी।

माकपा का अतीत

माकपा के इस सत्तावादी चरित्र को देखकर मेरा मन स्मृतियों के गलियारे में भटकते हुए 1968 में पहुंच गया। उसी साल पाञ्चजन्य लखनऊ से दिल्ली लाया गया था और मुझे उसके सम्पादन का दायित्व मिला था। तभी 1967 के चुनावों में प. बंगाल में कांग्रेस से टूटे अजय मुखर्जी धड़े ने तीन साल पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में से टूटकर बनी माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गठबंधन करके कांग्रेस को सत्ताच्युत कर संयुक्त मोर्चा सरकार बनायी थी। अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री बने और ज्योति बसु उप मुख्यमंत्री। धीरे धीरे अजय मुखर्जी तो इतिहास के कूड़ेदान में चले गए पर ज्योति बसु के नेतृत्व में माकपा सत्ता पर अपनी पकड़ उत्तरोत्तर मजबूत करती गई। कम्युनिस्ट हाथों में सत्ता जाने से बंगाल और पूरे देश का मन आशंकाओं व भय से भरा हुआ था। ऐसे वातावरण में हमने पाञ्चजन्य का प. बंगाल विशेषांक निकालने का निर्णय लिया और उस अंक के लिए सामग्री एकत्र करने के लिए मैं कलकत्ता गया। वहां सात दिन रुककर महान इतिहासकार डा. रमेश चन्द्र मजूमदार सहित अनेक बुद्धिजीवियों से भेंट-वार्ता करने का अवसर मिला। सब कोई बंगाल के भविष्य के प्रति भयाक्रान्त और चिन्तित थे। पर, उन दिनों अकेले प्रदीप बोस, अपने जोधपुर पार्क निवास पर कम्युनिस्टों की इस सफलता पर गद्गद् दिखाई दिए। अचम्भे में पड़कर मैंने उनसे पूछा कि पूरा बंगाल चिन्तित है पर आप प्रसन्न क्यों हैं? क्या आपको बंगाल के भविष्य की चिन्ता नहीं है? प्रदीप बाबू ने कहा कि संसदीय चुनावी प्रणाली के माध्यम से कम्युनिस्टों को सत्ता का स्वाद मिलने से मेरी सब चिन्ताएं दूर हो गई हैं। उन्होंने मुझसे पूछा, “क्या आप जानते हैं कि प. बंगाल के सब कम्युनिस्ट नेता-ज्योति बसु, हीरेन मुखर्जी, भूपेश गुप्त, इन्द्रजीत गुप्त आदि सभी उच्च मध्यवर्गीय भद्रलोक के अंग हैं, सब इंग्लैण्ड में विद्याध्ययन काल में किताबें पढ़कर माक्र्सवादी बने हैं। उनकी मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षा सत्ताभिमुखी है। एक बार सत्ता का स्वाद मिल जाने पर वे आंख मूंदकर उसके पीछे भागते रहेंगे। ऊपर-ऊपर सिद्धान्त का शब्दाचार करते हुए वे सत्ता में बने रहने के लिए सब तरह के समझौते करेंगे और अन्तत: वे माक्र्सवादी नहीं रहेंगे, केवल सत्तावादी बन जाएंगे।”

उस समय मैं प्रदीप बाबू के आशावाद से सहमत नहीं हो सका। किन्तु पिछले लगभग चालीस वर्ष में माकपा का चरित्र-परिवर्तन उनकी भविष्यवाणी को सही सिद्ध कर रहा था। प्रारंभ के कुछ वर्षों में प. बंगाल को चारु मजूमदार और कानू सान्याल जैसे खांटी माक्र्सवादियों ने संसदीय लोकतंत्र में माकपा की सफलता को हिंसक वर्ग संघर्ष के आधारमूल माक्र्सवादी सिद्धान्त से भटकाव के रूप में देखा और स्वयं को सच्चा माक्र्सवादी घोषित करते हुए उन्होंने हिंसक नक्सलवादी आंदोलन को जन्म दिया। माकपा ने पार्टी के लिए सत्ता तंत्र और मीडिया का इतनी कुशलता से उपयेाग किया कि आज वे छाती ठोंक कर कह सकते हैं कि एक छोटे से अन्तराल को छोड़कर इन चालीस वर्षों में हमने सत्ता पर अपना एकछत्र प्रभुत्व बनाए रखा है। इसके लिए भले ही हमें माक्र्सवाद की विचारधारा को तिलांजलि देनी पड़ी हो पर दुनिया हमें अभी भी माक्र्सवादी ही समझती है क्योंकि हमने पार्टी का नाम, हंसिया-हथौड़े वाला लाल झंडा और बंधी मुट्ठी उठाकर लाल सलाम कहने का कम्युनिस्ट कर्मकांड अभी तक बनाए रखा है, वे कहते हैं कि इस मामले मंे चीन हमारा आदर्श है रूस नहीं, क्योंकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी माक्र्स और माओ को रद्दी की टोकरी में फेंककर आधुनिकीकरण के नाम पर पूंजीवाद और बाजारवाद के रास्ते पर तेजी से दौड़ आरंभ कर दी है। पर वे अभी भी अपने को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी कहते हैं, वही पुराना लाल झंडा फहराते हैं, वही पोलित ब्यूरो वाली पुरानी संगठनात्मक रचना का आवरण पहने हुए हैं। अब उनकी एकमात्र प्रेरणा राष्ट्रवाद है, माक्र्सवाद या माओवाद नहीं। वे मन ही मन अमरीका को मुख्य प्रतिस्पर्धी क्यों न मानते हों, पर भारतीय कम्युनिस्टों की तरह गला फाड़-फाड़ कर अन्ध अमरीकी विरोध का प्रदर्शन नहीं करते। भारतीय कम्युनिस्ट भले ही नेपाल में राजशाही की समाप्ति का शोर मचाते हों, वहां की माओवादी पार्टी के प्रति वैचारिक अपनत्व रखते हों किन्तु “कम्युनिस्ट” चीन के शासकों ने खुलकर राजशाही का समर्थन किया और माओवादियों को अस्वीकार कर दिया।

असली कम्युनिस्ट आदर्श

यहां सवाल उठ सकता है चीन को अपना आदर्श बताने वाले भारतीय कम्युनिस्टों की नीतियां व आचरण इतने परस्पर विरोधी क्यों है? इसका उत्तर साफ है कि चीन के शासकों के लिए कम्युनिस्ट आवरण का उपयोग अधिनायकवादी शासन व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक प्रतीत होता है। अत: वे चाहे जैसी अर्थनीति या विदेश नीति अपनायें उनकी सत्ता को चुनौती देने वाला कोई भी चीन में नहीं है। पर भारतीय कम्युनिस्टों को लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया के रास्ते से सत्ता का स्वाद चखने का शौक पैदा हो गया है। इस रास्ते में जमीनी संघर्ष और परिश्रम के खतरे नहीं है। यहां केवल जातिवादी और अल्पसंख्यकवादी समीकरण बनाने से सत्ता में पहुंचने का रास्ता साफ हो जाता है। इसलिए अमरीका के विरुद्ध शोर मचाना विशाल मुस्लिम वोट बैंक को लुभाने के काम आता है और साथ ही शीत युद्ध काल से अमरीकी विरोध पर पले किताबी कम्युनिस्ट कैडर की साम्राज्यवाद पूंजीवाद विरोधी तोतारटन्त का पोषण करता है। भारतीय कम्युनिस्टों ने समझ लिया है कि भारत जैसी संसदीय लोकतंत्र में सफलता की कुंजी आदर्शवाद व सैद्धांतिक निष्ठा में नहीं, बल्कि छवि पर निर्भर करती है। छवि बनाने का काम मीडिया करता है। मीडिया का मनचाहा इस्तेमाल करने के लिए अक्ल और कलम चाहिए। और ये दोनों चीजें पद व आर्थिक सुविधा देकर जुटाई जा सकती है। इन दोनों कलाओं का उपयोग एक दर्जन टुकड़ों में बिखरा तथाकथित कम्युनिस्ट नेतृत्व बहुत सफलता के साथ करता आ रहा है।

इतना श्रेय तो इस नेतृत्व को देना ही होगा कि भारतीय राजनीति के यथार्थ, उसमें अपनी सीमाओं भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों, भारतीय बुद्धिजीवियों की सुविधाजीवी मानसिकता, शैक्षणिक सत्ताकेन्द्रों व मीडिया की जनछवि निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका का उसने बहुत बारीकी से अध्ययन किया है। इस अध्ययन के आधार पर रणनीति बनाने में महारत प्राप्त की है। सिद्धान्त विरोधी रणनीति को भी अपने कैडर के गले उतारते व उसमें अनुशासन भाव बनाए रखने की कुशलता दिखाई है। यही कारण है कि बुद्धदेव भट्टाचार्य खुलेआम पूंजीवादी रास्ते पर चलने की घोषणा करके भी देशभर में बिखरे कम्युनिस्ट कैडर की पार्टी निष्ठा को बनाए रख सकते हैं। यह कैसी रणनीति है कि प. बंगाल में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और केरल में पूंजीवाद विरोधी पुरानी कट्टर माक्र्सवादी अर्थ रचना का आग्रह कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर कोई अन्तर्विरोध और असन्तोष पैदा नहीं करता। केरल में पार्टी 1400 करोड़ रुपए की सम्पत्ति खड़ा करके भी स्वयं को कट्टर माक्र्सवादी कह रही है। ऐसा इसलिए कि वे जानते हैं कि चुनाव में सफलता का सिद्धांतवाद या विचारधारा से कोई सम्बंध नहीं है इसके लिए तो केरल का जातिवादी एवं साम्प्रदायिक समीकरण ही पर्याप्त होगा। इसलिए माकपा ने केरल में अमरीका विरोध का प्रदर्शन करके कट्टरवादी और आतंकवादी मुस्लिम मानस को रिझाने में सफलता प्राप्त की। कांग्रेस से केरल को छीन लिया। पर केरल के किताबी माक्र्सवादी हिन्दू कैडर की निष्ठा को बनाए रखने के लिए कट्टर माक्र्सवादी की छवि वाले 84 वर्षीय वी.एस. अच्युतानंदन को मुख्यमंत्री पद पर गुलदस्ते की तरह सजा दिया है जबकि वास्तविक सत्ता बाजारवादी आधुनिकीकरण के अनुगामी पिनरई विजयन गुट के पास ही है।

सोनिया को सब्जबाग

पर, इन चुनावों में वाममोर्चे की सफलता का श्रेय बहुत मात्रा में सोनिया पार्टी की अदूरदर्शी, राष्ट्रभक्ति शून्य सत्ताकांक्षा को भी देना होगा। आखिर क्यों वाम मोर्चे के द्वारा अपनी आर्थिक नीति, विदेश नीति और सुरक्षा नीति की खुली आलोचना के बाद भी सोनिया पार्टी उनके समर्थन से केन्द्र में सत्ता-सुख भोगने पर तुली हुई है। माकपा नेताओं ने बार-बार कहा है कि सोनिया कांग्रेस से उन्हें नफरत है, पर भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए सोनिया कांग्रेस को सत्ता में बनाये रखना उनकी मजबूरी है। उनके दो बुजुर्ग नेता हरकिशन सिंह सुरजीत और ज्योति बसु सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने का सब्ज बाग दिखा चुके हैं और सोनिया गांधी ने इसी मृगतृष्णा के कारण केरल और प. बंगाल को उनकी झोली में डाल दिया।

अभी उस दिन ताजे चुनाव परिणामों पर टेलीविजन चैनलों पर बहस के दौरान सोनिया पार्टी के मंत्री कपिल सिब्बल को स्वीकार करना पड़ा कि हमें इनकी सुननी पड़ती है क्योंकि इनके समर्थन के बिना हमारी सरकार चल नहीं सकती। एक दूसरे चैनल पर सोनिया पार्टी के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी के मुंह पर ही माकपा सांसद मोहम्मद सलीम ने दो टूक शब्दों में कहा कि ये हम पर भरोसा करते हैं पर हम इन पर भरोसा नहीं करते, हम ऐसी सरकार का अंग कभी नहीं बनेंगे जिस पर हमारा पूर्ण नियंत्रण न हो। यह तो बेशर्मी की हद है। यहां तो सोनिया पार्टी पर “जूते भी खाओ और प्याज भी खाओ” वाली कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती है। सरकार का समर्थन करते हुए भी सरकार की सभी नीतियों का खुला विरोध करने से वाम मोर्चे को कितना लाभ हुआ है, यह भी एक टेलीविजन चैनल के सर्वेक्षण से सामने आ गया। वाम-समर्थक एन.डी.टी.वी. के सर्वेक्षण के अनुसार 60 प्रतिशत दर्शकों ने वाममोर्चे द्वारा सरकारी नीतियों के विरोध को सही ठहराया। यही है 545 के सदन में 142 सांसदों वाली सोनिया पार्टी के समर्थन की रणनीति का मुख्य रहस्य। सत्तारूढ़ गठबंधन के समर्थक दल द्वारा विरोध को मीडिया ज्यादा महत्व देता है क्योंकि उसमें सरकार के गिरने का खतरा छिपा होता है। जबकि मीडिया भली भांति जानता है कि वाम मोर्चा सोनिया सरकार को कभी नहीं गिराएगा। क्योंकि वह स्वयं सत्ता में आ पाने की स्थिति में नहीं है जबकि भाजपानीत गठबंधन की सत्ता में वापसी की संभावना स्पष्ट दिखाई देती है।

उदारीकरण की पैरोकारी, माक्र्स गए तेल लेने

अधिक से अधिक “मीडिया पब्लिसिटी” प्राप्त करने के उद्देश्य से वाम मोर्चा केन्द्र सरकार के विरोध का प्रदर्शन जारी रखे हुए है। बुद्धदेव के सत्ता में वापस लौटने से उत्साहित होकर टाटा आदि उद्योगपति प. बंगाल में पूंजी निवेश करने के लिए दौड़ पड़े हैं और बुद्धदेव सरकार औद्योगीकरण के लिए 31,700 एकड़ कृषि भूमि से किसानों को बेदखल करने में जुट गयी है। कल ही (25 मई) हुगली जिले के सांगुट स्थान पर टाटा की कार-निर्माण फैक्टरी के लिए गयी सर्वेक्षण टीम को ग्रामवासियों के उग्र प्रदर्शन का सामना करना पड़ा किन्तु वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री निरुपम सेन ने कहा कि हम इस समस्या को सुलझा लेंगे और टाटा का कारखाना अवश्य बनेगा। मुम्बई और दिल्ली के विमान तलों (एयरपोर्ट) के निजीकरण के विरोध का नाटक करके माकपा ने कर्मचारी वर्ग की निष्ठा पक्की कर ली, दूसरी तरफ विमान तलों का निजीकरण भी होने दिया। इसी प्रकार चेन्नै और कोलकाता के विमान तलों के निजीकरण सम्बंधी नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल के वक्तव्य के विरोध में वाम मोर्चा के चारों घटकों के महासचिवों ने एक संयुक्त चिट्ठी प्रधानमंत्री के नाम दागकर “पब्लिसिटी” कमा ली, जबकि प. बंगाल सरकार कोलकाता “एयरपोर्ट” का आधुनिकीकरण करने के लिए निजी पूंजी को आमंत्रित करने का संकेत दे चुकी है। माकपा का दोगला चरित्र हर कदम पर सामने आ रहा है। एक ओर नागालैण्ड, गोवा और पंजाब की राज्य सरकारों द्वारा “द विंची कोड” नामक फिल्म पर रोक लगाने के निर्णय पर वे मौन हैं, वहीं गुजरात की जन भावनाओं का अपमान करने वाले आमिर खान की फिल्म “फना” के प्रदर्शन के जन-विरोध की वे निन्दा करने में आगे हैं। भाजपा विरोध ही जिस पार्टी की एकमात्र विचारधारा रह गयी हो, उससे इससे भिन्न आचरण की आशा करना ही व्यर्थ है। अब तो भारतीय कम्युनिस्टों का एक ही नारा है “माक्र्सवाद मुर्दाबाद, सत्तावाद जिन्दाबाद”। (26 मई, 2006)

महाल पर हमला आई.एस.आई. द्वारा संघ कार्यालय पर हमला कर मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं को भड़काने की साजिश। सरसंघचालक सुदर्शन जी द्वारा स्वयंसेवकों से संयम और शान्ति बनाए रखने का आह्वान। सरकार की जांच प्रक्रिया में सहयोग देने का निर्देश।

प्रधानमंत्री सहित सभी दलों के प्रमुख नेताओं ने की संघ मुख्यालय पर हमले की निंदा इस्लाम का मुखौटा ओढ़े आतंकवादियों के विरूद्ध सामने आएं उलेमा -मोहम्मद अफजल , संयोजक, राष्ट्रवादी मुस्लिम आंदोलन डोडा- एक महीने बाद डोडा के हिन्दू हिम्मत से लड़ना चाहते हैं, पर कोई सहारा देने को तैयार नहीं -डोडा से लौटकर तरुण विजय जहां संघ की पहली शाखा लगी थी

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प. पू. श्री गुरुजी ने समय-समय पर अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे। इन विचारों से हम अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं और सुपथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। इसी उद्देश्य से उनकी विचार-गंगा का यह अनुपम प्रवाह श्री गुरुजी जन्म शताब्दी के विशेष सन्दर्भ में नियमित स्तम्भ के रूप में

प्रस्तुत किया जा रहा है। -सं

पहले कश्मीर फिर असम की बारी

पाकिस्तान का निर्माण इस बीसवीं शताब्दी में मुसलमानों का इस देश को पूर्णतया अधीन करने के 1200 वर्ष पुराने स्वप्न को साकार करने की दिशा में प्रथम सफल पग है। फिर उनका सीधा आक्रमण, जो उनकी प्रथम सफलता के जोश में अधिक बढ़ा हुआ था, कश्मीर पर हुआ। वहां भी वे सफल हुए, यद्यपि आंशिक रूप से आज केवल एक-तिहाई कश्मीर उनके अधिकार में है। अब पाकिस्तान शेष कश्मीर को भी वहां के पाकिस्तान-समर्थक शक्तिशाली तत्त्वों की सहायता से हड़पना चाहता है।

हमारे देश के सामरिक महत्व के भागों में अपनी जनसंख्या वृद्धि करना उनके आक्रमण का दूसरा मोर्चा है। कश्मीर के पश्चात् उनका दूसरा लक्ष्य असम है। योजनाबद्ध रीति से असम, त्रिपुरा और शेष बंगाल में बहुत दिनों से उनकी संख्या की बाढ़ आ रही है। (साभार: श्री गुरुजी समग्र : खंड 11, पृष्ठ 189-190)

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