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नेपाल के माओवादी

by
Sep 7, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Sep 2006 00:00:00

पहले बंदूकें छोड़ें फिर बात करें-वरुण गांधीनेपाल पर अपने पिछले लेख (पाञ्चजन्य, 4 जून, 2006) में मैंने नेपाली संकट के अव्यवस्था में बदलने के बारे में लिखा था और कहा था कि यह अंतत: माओवादियों द्वारा काठमाण्डू पर कब्जा किए जाने में परिणत होगा। सात दलों के गठबंधन तथा माओवादियों द्वारा दिसम्बर, 2005 में किए गए 12 सूत्री समझौते के पश्चात छेड़े गए आंदोलन के परिणामस्वरूप होने वाली घटनाओं से निकाला गया यह एक तर्कपूर्ण निष्कर्ष था। उस समझौते के कारण माओवादी बहुदलीय जनतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्ध हो गए और सात दलों का गठबंधन संविधान सभा में परिवर्तन की माओवादी मांग के लिए सहमत हो गया, जो अंतत: देश को एक नया रूप देगा, एक नई राजनैतिक व्यवस्था देगा।माओवादियों द्वारा समर्थित राजनीतिक दलों द्वारा की गई आम हड़ताल के परिणामस्वरूप 24 अप्रैल, 2006 को नेपाल नरेश श्री ज्ञानेन्द्र ने भंग संसद को बहाल कर दिया और 80 वर्ष से अधिक उम्र के श्री गिरिजा प्रसाद कोइराला प्रधानमंत्री बन गए। नई सरकार ने घोषणा की कि वे एक ऐसे निकाय के लिए चुनाव कराएगी जो नेपाली संविधान को फिर से बनाएगा। माओवादियों ने पहले तो इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया परन्तु 27 अप्रैल, 2006 को उन्होंने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी। 1 मई को नेपाली कम्युनिस्टों के राजनैतिक चेहरे बाबूराम भट्टराई ने चुनाव के पश्चात संविधान सभा के गिरिजा प्रसाद कोइराला के आह्वान का समर्थन करके सबको चकित कर दिया। उन्होंने कहा, “यदि संविधान सभा के लिए चुनाव स्वतंत्र तथा निष्पक्ष होते हैं तो हर किसी को चुनाव परिणामों का आदर करना चाहिए। तब हम निश्चित ही लोगों के जनमत के अनुसार चलेंगे।” विश्लेषक इसे सही दिशा में बढ़ाया गया एक कदम मानते हैं, जिसका अर्थ है माओवादियों द्वारा जनतांत्रिक प्रक्रिया को स्वीकृति का पहला लक्षण। परंतु खतरा भी ठीक यहीं पर है। माओवादियों ने अभी तक अपने हथियार नहीं डाले हैं और न ही अपना “सेन्ट्रल मिलिट्री कमीशन” छोड़ा है। सबसे अधिक शक्तिशाली माओवादी नेता, विचारक तथा सेना कमांडर पुष्प कमल दहल (प्रचंड) अभी भी अज्ञातवास में हैं और यदा-कदा जनता में दिखाई देते हैं। पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड, “पंचो विला” (मैक्सिको की क्रांति का सबसे जाना-माना जरनल), “हो ची मिन्ह” (वियतनाम के नेता) और “सबकोमान्दांते मारकोस” (मेक्सिको के जपतिस्ता विद्रोहियों के प्रवक्ता) की तरह हैं। प्रचंड का शाब्दिक अर्थ है “उग्र”।सेना के परिप्रेक्ष्य से माओवादियों के लिए आज से बेहतर स्थिति नहीं हो सकती। राजतंत्र-यानी नेपाल का एकमात्र स्थिर किन्तु गैर-लोकतांत्रिक ढांचा-मजबूत वैकल्पिक राजनैतिक संस्थानों के अभाव में कमजोर हो गया है। 90,000 की संख्या वाली शक्तिशाली सेना राजतंत्र से अलग हो गई है और नेपाल के 75 जिलों में से कई में माओवादियों के अप्रत्यक्ष शासन के लिए कोई चुनौती नहीं रह गई है। प्रचंड दक्षिणी अमरीका में पेरू के शाइनिंग पाथ गुरिल्ला के विद्रोह के समान अपनी रणनीति बना रहे हैं। यदि चुनाव होते भी हैं तो माओवादियों के प्रभुत्व वाले जिलों में माओवादियों की जीत निश्चित है। जिस प्रकार फिलीस्तीन में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उग्रपंथी हमास सत्ता में आया उसी प्रकार नेपाली माओवादी भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से सत्ता में आकर उसकी हत्या कर देंगे। सेना को पहले से ही संसद के नियंत्रण के अधीन लाए जाने के बाद नेपाल को एक कम्युनिस्ट देश बनाने से उन्हें कौन रोक सकता है? हिटलर भी तो सत्ता में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही आया था।जब कभी समाज के नेता एकाएक परिवर्तन चाहते हैं तो अनिश्चितता का एक संक्रमण काल उत्पन्न होता है। यही वह संक्रमण काल है जब क्रांति अपने चरम पर पहुंचती है और तख्त उलट दिए जाते हैं। नेपाली “मैग्ना कार्टा” का जन्म हो गया है, यह कहना हालांकि जल्दबाजी होगी, क्योंकि नेपाल में लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है। और न ही नेपाल की प्रति व्यक्ति आय इतनी अधिक है कि वह मैग्ना कार्टा को बनाए रखने के लिए पर्याप्त हो। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब शीघ्र परिवर्तनों के भयंकर परिणाम हुए हैं। जर्मनी के समाज को एकाएक बदल देने की नाजी इच्छा ऐसी त्रासदियों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मिसाल है। अथवा 11 सितम्बर को एक जिहादी आक्रमण से अमरीकी नीति को बदल देने की ओसामा बिन लादेन की इच्छा या फुलजेनसियो बतिस्ता सरकार का तख्ता पलट कर 1959 में फीदेल कास्त्रो द्वारा क्यूबा की सत्ता हथियाना एकाएक समाज को बदल देने हेतु प्रयास करने के अन्य उदाहरण हैं। नेपाली परिदृश्य के सबसे नजदीक का उदाहरण 1975 में ख्मैर रूज द्वारा कम्बोडिया की सत्ता हथिया लिया जाना था। वियतनाम का युद्ध और ख्मैर रूज द्वारा कम्बोडिया की सत्ता हथियाना, दोनों भारत-चीन कम्युनिस्ट आंदोलनों से वैसे ही जुड़े हैं, जैसे कि नेपाल में माओवाद का बढ़ना और भारत पर इसका खतरा आपस में जुड़े हुए हैं। भारत पर इसके खतरे को समझने के लिए भारत-चीन के हाल के राजनैतिक इतिहास पर विचार करना आवश्यक है।चीन के कम्युनिस्ट देश बनने से पहले च्यांग काई शेक, विन्सटन चर्चिल और फ्रेंकलिन रूसवेल्ट के मध्य 1943 में युद्ध के पश्चात जापान के उपनिवेशों के बारे में निर्णय करने के लिए काइरो सम्मेलन हुआ था परंतु इसमें कोरिया पर कोई निर्णय नहीं लिया गया। 1945 में जापान पर मित्र राष्ट्रों की जीत ने कोरिया पर जापान के 35 वर्ष पुराने कब्जे का अंत कर दिया और यह अमरीका तथा सोवियत संघ के मध्य कोरियाई प्रायद्वीप के 38 अक्षांश रेखा के समानान्तर विभाजन में परिणत हुआ। इन दो शक्तियों ने अस्थायी रूप से उत्तर व दक्षिण कोरिया पर “ट्रस्टिशिप” के तौर पर कब्जा बनाए रखा। इस “ट्रस्टिशिप” का उद्देश्य एक ऐसी कोरियाई सरकार की स्थापना करना था जो धीरे-धीरे मुक्त तथा स्वतंत्र होगी। परंतु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक प्रमुख घटना घटी-माओ जिदांग के नेतृत्व में 1949 में चीन कम्युनिस्ट हो गया। माओ का लंबा मार्च यही समाप्त नहीं हुआ। 1950 में चीन तथा सोवियत संघ द्वारा समर्थित उत्तरी कोरिया ने 38 समानांतर अक्षांश के दूसरी ओर सेनारहित क्षेत्र में प्रवेश किया। समय पर किए गए संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के कारण ही कम्युनिस्टों को आगे बढ़ने से रोका जा सका।वियतनाम परिदृश्य में संयुक्त राष्ट्र का ऐसा कोई हस्तक्षेप नहीं था। “हो ची मिन्ह” की उत्तरी वियतनाम की कम्युनिस्ट सरकार ने सोवियत संघ तथा चीन के सहयोग से न केवल अमरीकी हमले से दृढ़तापूर्वक अपनी रक्षा की बल्कि उन्हें पराजित भी कर दिया। इस युद्ध में उत्तरी वियतनाम ने न केवल अमरीका से लड़ाई लड़ी बल्कि निष्पक्ष कम्बोडिया में भी विद्रोह को समर्थन दिया। कम्बोडिया के शासक नारोदोम सिंहानुक चीन तथा अमरीका दोनों के साथ मधुर सम्बंध रखना चाहते थे और उनकी इच्छा कम्बोडिया को निष्पक्ष रखने की थी-पं. जवाहरलाल नेहरू के शासन में भारत के दृष्टिकोण की तरह ही। परंतु नेहरू के समान ही सिंहानुक की चीन के साथ दोस्ती की नीति भी चीन की सांस्कृतिक क्रांति के शिखर पर होने के दौरान उसके गैर-भरोसेमंद अतिवादी विचारों के कारण ढह गई। वियतनाम का युद्ध 30 अप्रैल, 1975 को अमरीका की साइगोन में पराजय और अमरीका द्वारा अपने सैनिकों को हटाए जाने से समाप्त हुआ। कम्बोडिया की राजधानी नोम पेन्ह में इससे 13 दिन पहले 17 अप्रैल, 1975 को ख्मैर रूज विजयी हुए और पोल पाट प्रधानमंत्री बने। 8 वर्षों के भीतर कम्युनिस्ट पार्टी आफ कम्पूचिया (सीपीके) ने “जनता का युद्ध” शुरू किया और कम्बोडिया पर अपना अधिकार कर लिया। लाल सेना के लिए यह दोहरी जीत थी। ख्मैर रूज ने 1972 की कुल 71 लाख जनसंख्या में से लगभग 17 लाख कम्बोडियाई लोगों की हत्या कर दी। यह 20वीं सदी के सबसे क्रूर तथा नृशंस शासनों में से एक था, जिसकी तुलना जोसफ स्टालिन, एडाल्फ हिटलर तथा माओ जिदांग के शासन से की जा सकती है।भारत आज एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है-इसके प्रभाव क्षेत्र में आने वाले एक देश पर 21वीं सदी में पहली बार कम्युनिस्टों द्वारा कब्जा किए जाने का खतरा मंडरा रहा है। 1968 से 1975 तक 8 वर्ष का ख्मैर रूज का संघर्ष और 1996 से 2006 तक नेपाली माओवादियों का 10 वर्ष का आतंकवाद इस कटु सत्य की याद दिलाते हैं कि माओवादियों को हथियार रहित करने में विलम्ब स्थिति को और गम्भीर बनाएगा। माओवादियों के काठमाण्डू पर कब्जे में एकमात्र बाधक नेपाली सेना का ध्यान आज कहीं और है तथा वह एक भ्रमित नेपाली संसद के नियंत्रण में रखी गई है। इसके कमांडर ये नहीं जानते कि माओवादियों से युद्ध करें अथवा उन्हें सलाम करें, क्योंकि गिरिजा प्रसाद कोइराला अब माओवादियों को अपनी सरकार का हिस्सा बनाने की बात करते हैं।परन्तु कुछ प्रश्नों के उत्तर अभी तक नहीं मिले हैं। माओवादी अपने हथियार क्यों नहीं डालते हैं? वे अपने गुरिल्ला तरीकों को क्यों नहीं छोड़ते हैं? जर्मनी के राष्ट्रपति पाल वान हिंडनबर्ग ने 1933 में हिटलर से सरकार बनाने को कहा परंतु उससे यह मांग नहीं की कि नाजी एसए (स्टुरमाबटाइलुंग) सेनाओं को समाप्त किया जाए। “एसए” अथवा “स्ट्रामटपर्स” अथवा “ब्राउन शर्ट्स” नाजी पार्टी का अर्धसैनिक बल था और उसने हिटलर के उत्थान में एक प्रमुख भूमिका निभाई थी। हिंडनबर्ग द्वारा की गई यह एक सामरिक भूल थी जिसे कोइराला नेपाल हेतु नए “मैग्ना कार्टा” बनाने के नाम पर दोहरा रहे हैं।भारत को क्या करना चाहिए? नोम पेन्ह की पराजय को सुनिश्चित करने के लिए उत्तरी वियतनाम ने पूर्वी कम्बोडिया में अपने अड्डे बनाए, इसी प्रकार काठमाण्डू की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए भारत के पास इसके अलावा और कोई विकल्प शायद न बचे कि वह नेपाल में अपनी सेनाएं रखकर नेपाल पर माओवादियों द्वारा कब्जा न किए जाने को सुनिश्चित करे। तथापि, सैन्य विकल्प का निर्णय लेने से पूर्व भारत को माओवादी नेताओं को अपने यहां बुलाकर यह स्पष्ट करना चाहिए कि भारत किसी भी कीमत पर नेपाली लोकतंत्र की रक्षा करने के प्रति गंभीर है। भारत के कम्युनिस्टों को अपनी ओर से नेपाली कम्युनिस्टों को उनके हिंसक तरीके छोड़ने, सैन्य समूहों को भंग करने तथा उनके भूमिगत नेताओं से बाहर आकर विचार-विमर्श में भाग लेने के लिए कहा जाना चाहिए। यदि माओवादी संसद में प्रवेश तथा लोकतांत्रिक सरकार चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें आधुनिक लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धांत-स्वतंत्रता तथा अहिंसा-को मानना पड़ेगा।भारतीय उपमहाद्वीप में भारत विश्व की सबसे बड़ी सेना रखने वाला एक शक्तिशाली देश है। इसलिए भारत को नेपाल के एकाएक अ-हिन्दूकरण के विरोध के साथ ही माओवादियों की दुर्नीति को पराजित करने के लिए अधिक सक्रिय भूमिका अदा करनी होगी। यदि भारत नेपाल के संकट को सुलझा पाने में सुस्ती दिखाएगा तो वह अपने हिमालयी मित्र को एक सर्वसत्तावादी एकल पार्टी कम्युनिस्ट शासन के हाथ में खो देगा। संप्रग सरकार को भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन प्राप्त है जिनकी सोच हालांकि माओवादी नहीं है परन्तु भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के कुछ हिस्से नि:संदेह माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसी सहानुभूति में काठमाण्डू के लिए खतरा छुपा है, जिसका संप्रग सरकार द्वारा मूल्यांकन करके उससे रक्षा करने के उपाय करने चाहिए। यदि उसे शासन करने अथवा माओवादियों से नेपाल की रक्षा करने में से एक को चुनना हो तो विकल्प स्पष्ट है- नेपाल भारत के लिए इतना कीमती है कि उसे माओवादियों के हाथों खोया नहीं जा सकता। परंतु क्या नेपाल की रक्षा करने में भारत के व्यापक सामरिक हितों के लिए दिल्ली में सत्ता त्याग देने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति विद्यमान है?13

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