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विज्ञान भारती की राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश के जल संकट पर चर्चा

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Aug 10, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Aug 2006 00:00:00

पानी रे पानी-डा. सुनील मिश्रजब जल की बात होती है तो कितने प्रकार के जल हमारी आंखों के सामने आ खड़े होते हैं। आंख का पानी, देह का पानी, मन का पानी, देश का पानी। दुश्मन को पानी पिलाना एक अलग बात है और अपनी आंख के पानी की बात रखना दूसरी बात। कानपुर में 9-10 सितम्बर को विज्ञान भारती ने पानी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी की। इसमें अनेक वैज्ञानिक और विशेषज्ञ आए। प्रसिद्ध वैज्ञानिक राजनेता डा. मुरली मनोहर जोशी ने संगोष्ठी का उद्घाटन किया।डा. मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि जल पृथ्वी पर जीवन का नियंत्रक एवं कारक है। जल जीव के जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक क्रिया-कलाप हेतु आवश्यक होता है तथा जल समेत समस्त प्राकृतिक संसाधनों को प्रकृति का महत्वपूर्ण उपहार मानकर पर्याप्त संरक्षण देने की आवश्यकता है। परन्तु हममें से अधिकांश लोग जल को मुफ्त की वस्तु समझकर इसका दुरुपयोग करते रहते हैं जो कि भविष्य में भीषण संकट का कारण बन सकता है। उन्होंने कहा कि विश्व के सर्वाधिक धनी 5 प्रतिशत लोगों द्वारा 45 प्रतिशत जल संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है। जबकि विश्व के सर्वाधिक निर्धन 5 प्रतिशत लोग मात्र 5 प्रतिशत जल का ही उपयोग कर रहे हैं। इसी प्रकार विश्व के 20 प्रतिशत सर्वाधिक धनी लोग 86 प्रतिशत प्रदूषण हेतु उत्तरदायी हैं। जबकि सर्वाधिक निर्धन 20 प्रतिशत लोग मात्र 1 प्रतिशत प्रदूषण हेतु ही उत्तरदायी हैं। विश्व के जिन देशों में जल का अभाव है वहां गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण एवं निम्न स्वास्थ्य सेवायें पाई जाती हैं, जबकि जल की प्रचुरता वाले देश आर्थिक, सामाजिक एवं स्वास्थ्य सेवाओं की दृष्टि से विश्व में अग्रणी हैं। उन्होंने कहा कि विश्व में पानी की बढ़ती मांग के कारण आगामी वर्षों में युद्ध सीमा विवाद के कारण नहीं, बल्कि जल संसाधनों पर नियंत्रण की होड़ के कारण होंगे। भारत के संदर्भ में जल का पर्याप्त संरक्षण एवं प्रबंधन और भी अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि विश्व की 2.4 प्रतिशत भू संपदा एवं 4.4 प्रतिशत जल संपदा वाले राष्ट्र हेतु विश्व की 16 प्रतिशत आबादी का पोषण किसी विकराल चुनौती से कम नहीं है। उन्होंने बताया कि भारत में किसी भी दृष्टि से जल संसाधनों का अभाव नहीं है, आवश्यकता है तो केवल इसके प्रति जागरुकता एवं समुचित कार्यान्वयन की।संगोष्ठी के विशिष्ट अतिथि इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन (उ.प्र.) के प्रदेश अध्यक्ष श्री तरुण खेत्रपाल ने कहा कि विश्व में उपलब्ध कुल जल का मात्र 2.7 प्रतिशत जल ही पीने योग्य है। इसमें से भी मात्र एक प्रतिशत जल ही मानव व विभिन्न जीवों को उपयोग हेतु प्राप्त हो पाता है। अत: जलीय स्रोतों को प्रदूषण से बचाना चाहिए एवं घरेलू व औद्योगिक बहिस्रावों को उपयुक्त ढंग से उपचारित करके ही प्रवाहित करना चाहिए।संगोष्ठी के स्वागताध्यक्ष डा. अम्बेडकर इंस्टीटूट आफ टेक्नालाजी फार हैण्डीकैप्ड के निदेशक डा. राकेश कुमार त्रिवेदी ने कहा कि जल एक ऐसा संसाधन है जिसका कोई विकल्प नहीं है। सौर मण्डल में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जहां जल द्रव, ठोस व गैस तीनों रूपों में पाया जाता है, जिसके कारण ही पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व संभव हो सका है।उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता एस.आई.एस.टी. के अध्यक्ष एवं राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित पूर्व प्रधानाचार्य श्री रामलखन भट्ट ने की।प्रथम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता प्रो. विनय वर्मा एवं संचालन डा. नरेन्द्र मोहन ने किया। इस सत्र में प्रौद्योगिकी संस्थान बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. सिद्धनाथ उपाध्याय ने बताया कि जल केवल जीवनदायी पेय ही नहीं है, बल्कि यह आर्थिक, सामाजिक विकास, नगरों की अवस्थिति, आदि को भी प्रभावित करता है। जल जैव विविधता एवं जलवायु परिवर्तन का कारक है। एन.वी.आर.आई. के वैज्ञानिक डा. मृदुल कुमार शुक्ल ने जल प्रदूषण दूर करने की नवीनतम तकनीक की जानकारी “वनस्पतीय परिवेशोद्धार” (फाइटोरिमिडिएशन) द्वारा दी और बताया कि इस तकनीक के प्रयोग से जल में उपस्थित सीसा, पारा, कैडमियम, तांबा आदि धातुओं का निष्कर्षण किया जा सकता है। गांधी महाविद्यालय, बलिया के डा. संजीव कुमार चौबे ने जनपद बलिया में जल संसाधनों की उपलब्धता, उपयोग, समस्या एवं संरक्षण पर शोधपत्र प्रस्तुत किया।द्वितीय तकनीकी सत्र की अध्यक्षता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. विनय वर्मा ने की तथा संचालन डी.ए.वी. कालेज, कानपुर के डा. उमेश चंद्र तिवारी ने किया। इस सत्र में डी.ए.वी. कालेज, कानपुर के डा. सुनील मिश्र ने कहा कि अपव्यय के कारण भारत के 206 जिलों में भूजल स्तर तीव्रता से गिरता जा रहा है। भारतवासी नहाने में आवश्यकता से 52 प्रतिशत अधिक, कपड़ों की धुलाई में 82 प्रतिशत अधिक एवं बर्तन व फर्श धोने में आवश्यकता से 2 से 3 गुना तक अधिक जल का उपयोग करते हैं। ब्राह्मानंद डिग्री कालेज, राठ (हमीरपुर) के डा. वी.डी. प्रजापति ने बुंदेलखण्ड क्षेत्र में जल संरक्षण के इतिहास एवं पद्धतियों की जानकारी दी। दयानंद गल्र्स कालेज की डा. नीलम त्रिवेदी ने वेदों में वर्णित जल संरक्षण संबंधी अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां दीं तथा बताया कि आज से हजारों वर्ष पूर्व विश्व एवं भारत में जल की कोई कमी नहीं थी फिर भी अथर्ववेद व ऋगवेद में प्राकृतिक जलस्रोतों के संरक्षण एवं प्रबंधन पर विशेष जोर दिया गया है।10 सितम्बर को आयोजित चतुर्थ तकनीकी सत्र की अध्यक्षता डी.ए.वी. कालेज, कानपुर के डा. उमेश चंद्र तिवारी ने की एवं संचालन सरस्वती ज्ञान मंदिर, कानपुर के श्री संजीव कुमार ने किया। इस अवसर पर विज्ञान भारती के राष्ट्रीय समन्वयक डा. सदानंद सप्रे उपस्थित रहे। प्रथम वक्ता आई.आई.टी., कानपुर के प्रो. जी.डी. अग्रवाल ने वर्षा जल संचयन की अनेक परंपरागत एवं वैज्ञानिक तकनीकों की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि एक किलोग्राम गेहूं के उत्पादन में 1000 घन लीटर तथा एक किलोग्राम चावल के उत्पादन में 4-5 हजार घन लीटर जल सिंचाई हेतु आवश्यक होता है। रवीन्द्र नाथ मुखर्जी आयुर्वेदिक चिकित्सा महाविद्यालय के श्री अनुराग शर्मा ने मेडिकल वेस्ट (चिकित्सकीय कचरे) से उत्पन्न समस्याओं एवं उनके निदान की जानकारी दी। इसी सत्र में डी.ए.वी. कालेज, कानपुर के डा. सुनील भट्ट ने भूजल प्रबंधन एवं संचयन पर शोध पत्र प्रस्तुत किया।पंचम तकनीकी सत्र की अध्यक्षता प्रौद्योगिकी संस्थान बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डा. सिद्धनाथ उपाध्याय ने की एवं संचालन प्रो. विनय वर्मा ने किया। भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान, झांसी के डा. ओ.पी. सिंह पंवार ने अपने शोधपत्र में जैविक कृषि, मृदा प्रदूषण एवं चारे के उत्पादन की अनेक विधियों से अवगत कराया। डी.ए.वी. कालेज, कानपुर के श्री निखिल अग्निहोत्री ने बताया कि विश्व में वर्षाजल संचयन के प्रथम प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता के लोथाल शहर के निकट धौलाविरा नामक स्थान पर मिले हैं। और मिजोरम के वनवासी सैकड़ों वर्षों से छतों पर वर्षा जल संचयन कर उसे पेयजल के रूप में उपयोग में ला रहे हैं।समापन सत्र में विज्ञान भारती के राष्ट्रीय समन्वयक डा. सदानंद सप्रे ने उपस्थित प्रतिभागियों एवं विज्ञान भारती के कार्यकर्ताओं से जल संरक्षण को जन आन्दोलन का रूप देने का आह्वान किया। समापन सत्र में प्रो. विनय वर्मा एवं डा. सुनील भट्ट ने प्रतिभागियों को प्रमाणपत्र वितरित किये। संगोष्ठी में 60 शोधपत्र आये, जिनमें से 27 प्रस्तुत किये गये।(लेखक विज्ञान भारती, कानपुर प्रांत के महासचिव तथा राष्ट्रीय संयोजन समिति के सदस्य हैं)तलपटलेकिन न देश बदला, न हालातटाइम्स आफ इंडिया ने अपने दैनिक संस्करण में एक पत्र छापा था, जिसका शीर्षक था “साम्प्रदायिक रंग”। इस पत्र पर इतिहासकार रोमिला थापर समेत 11 अन्य बुद्धिजीवियों और प्राध्यापकों के हस्ताक्षर थे। पत्र में जो कुछ लिखा गया उसका सार यह था, “यद्यपि औरंगजेब ने मथुरा डेरा केशवराय मंदिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था और उसके स्थान पर एक ईदगाह बनवा दी थी, फिर भी अनेक हिंदू मंदिरों को हाथ नहीं लगाया। डेरा केशवराय एक बौद्ध मंदिर पर बनाया गया था। इतिहास में भगवान कृष्ण का अस्तित्व संदिग्ध है। इसका तो सवाल ही नहीं उठता कि वहां कृष्ण का जन्म हुआ होगा।..बाबरी मस्जिद सीता के रसोईघर की बगल में थी और उसका नाम था सीता रसोई मस्जिद।.. धार्मिक स्थलों के पुनरुद्धार का संबंध है तो हिंदुओं द्वारा नष्ट किए गए बौद्ध तथा जैन समारकों के पुररुद्धार का क्या होगा।” इसे पढ़कर यदि आप सोच रहे होंगे कि यह पत्र 2005-06 के आस-पास किसी अंक में छपा होगा तो आप गलत हैं। यह पत्र 1986 के अक्तूबर माह के एक अंक में छपा था। आज एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों में भारतीय देवी-देवताओं के बारे में भ्रामक और अशोभनीय बातें छापने तथा इतिहास के कुछ प्रसंगों को विकृत रूप में पढ़ाने पर बहस चल रही है, परन्तु इस पत्र से आसानी से समझा जा सकता है कि 20 साल पहले भी सेकुलर इतिहासकारों के मन-मस्तिष्क में भारतीय संस्कृति और हिंदू आस्था के प्रति कितना विष भरा था। इसके विरोध में तथ्यपरक पत्र भेजा था न्यायमूर्ति जयन्त पटेल ने। वह छपा भी। ऐसे पत्रों का उन्होंने “हिन्दू और हिन्दुस्थान” शीर्षक से एक संकलन प्रकाशित किया, जिसकी प्रस्तावना स्व. रज्ज्ू भैया ने लिखी थी।18

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