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वंशवाद का घोड़ा बनी गांधीगिरी?
देवेन्द्र स्वरूप
इसी 20 सितम्बर को टेलीविजन के परदे पर सोनिया जी का भाषण सुनने-देखने को मिल गया। वे बरेली की एक जनसभा में बोल रही थीं। वे 1857 की क्रान्ति में बरेली के योगदान का बखान कर रही थीं। एक के बाद एक स्वतंत्रता सेनानियों के नाम उनके मुंह से झर रहे थे- अजीमुल्लाह खान, नवाब बहादुर खान और और। मैं हतप्रभ था कि इतिहास का विद्यार्थी होते हुए भी मुझे इन सब नामों की जानकारी नहीं, किन्तु विदेशी खून की इस महिला ने कुछ ही वर्षों में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन की इतनी गहरी जानकारी अर्जित कर ली। जरा ध्यान से देखा तो पाया कि वे एक कागज पर लिखे नामों को पढ़ कर बोल रही हैं। किसी ने बड़ी मेहनत करके उनके भाषण को बरेली के इतिहास से जोड़ने की कोशिश की थी। उसने यह अपने मन से नहीं, निर्देश पर किया होगा। क्योंकि कुछ समय से सोनिया जी अपनी पार्टी को स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ने का जी तोड़ प्रयास कर रही हैं। वे अपनी पार्टी को गांधी का उत्तराधिकारी सिद्ध करना चाहती हैं। कौन से गांधी-राजीव या महात्मा? नाम का बड़ा महत्व होता है। महात्मा गांधी का नाम भारत के रोम-रोम में समाया है। उस नाम की पूंजी को राजीव, सोनिया और राहुल के खाते में डालकर ही वंशवादी सत्ता-राजनीति सफल हो सकती है।
इस राजनीति का पहला प्रयोग किया गया गुजरात में। गांधी के नमक सत्याग्रह की 75वीं वर्षगांठ मनाने के नाम पर डांडी यात्रा का रिहर्सल किया गया। अपने राजनीतिक शत्रु नरेन्द्र मोदी के मुकाबले महात्मा गांधी को खड़ा करने की कोशिश की गई। यह राजनीतिक डांडी यात्रा गुब्बार बन कर रह गई। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता घटने के बजाय और अधिक बढ़ गई। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने डांडी यात्रा का स्मारक बनाने के लिए 10 करोड़ रुपए देने की घोषणा कर दी। साबरमती आश्रम से डांडी तक 250 किलोमीटर सड़क को पक्की बनाने के लिए 1000 करोड़ रुपए की विशाल राशि लगाई जा रही है।
वंशवाद के वफादार
डांडी यात्रा का रिहर्सल फेल होने के बाद 1857 की याद आयी। क्यों न 1857 की क्रान्ति की 150वीं वर्षगांठ मना ली जाय। एक भारीभरकम कमेटी बन गई। वामपंथी इतिहासकारों ने कमेटी का तो बहिष्कार कर दिया, किन्तु 1857 के बारे में नए दस्तावेज प्रकाशित करने के नाम पर केन्द्र सरकार से एक करोड़ रुपए की राशि झटक ली और एक करोड़ अधिक के लिए याचिका दायर कर दी। आई.सी.एच.आर. के अधिकारियों की सार्वजनिक घोषणाओं के अनुसार उन्हें 1857 के बारे में कार्ल माक्र्स के मूल दस्तावेज मिल गये हैं। उन्हें प्रकाशित किया जाएगा। इन दस्तावेजों की कहानी को हम किसी अगले लेख में विस्तार से लिखेंगे। यहां इतना बताना काफी है कि सोनिया अपनी वंशवादी पार्टी को भारत के स्वतंत्रता संग्राम के घोड़े पर बैठे दिखाना चाहती है और माक्र्सवादी इतिहासकार ऐसे हर मौके पर फिसल कर नीचे पड़ी सोने की गिन्नी उठा लेना चाहते हैं। सोनिया सरकार पैसे दे, उनकी अक्ल ले। 2007 के लिए दोनों मिलकर खेल रहे हैं।
तब तक कौन इंतजार करेगा? सोनिया जी की किचन कैबिनेट की सदस्य अम्बिका सोनी ने संस्कृति मन्त्रालय मिलते ही खोजबीन शुरू की कि कौन सा दिन नजदीक है जिसे मनाकर सोनिया पार्टी को आजादी की लड़ाई से जोड़ा जाय। किसी कांग्रेसी सांसद शशिभूषण ने सुझाव भेजा कि 7 सितम्बर नजदीक है क्यों न उस दिन राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् की शताब्दी मना ली जाए। संस्कृति मंत्रालय ने सर्कुलर निकाल दिया। “वन्दे मातरम्” को सुनते ही प्रत्येक राष्ट्रभक्त भारतीय का अंत:करण झंकृत हो उठता है। वंश के बड़े वफादार अर्जुन सिंह ने सोचा क्यों न मैं भी बहती गंगा में हाथ धो लूं। उहोंने घोषणा कर दी कि 7 सितम्बर को देश के सभी विद्यालयों में “वन्दे मातरम्” का सामूहिक गान होगा। सब ओर उत्साह का संचार हो गया। पर, तभी उलेमाओं के फतवे और मुस्लिम नेताओं की ओर से विरोध के स्वर आ गये। अब सोनिया जी पशोपेश में। आजादी की लड़ाई से जुड़े या मुस्लिम वोट बैंक से? वन्दे मातरम् लक्ष्य है या सत्ता? उन्होंने फैसला लिया। वे अपनी पार्टी द्वारा आयोजित वन्दे मातरम् गायन के कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हुर्इं और उनके इशारे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी। इस बीच किसी वामपंथी इतिहासकार ने शताब्दी समारोह तिथि पर विवाद खड़ा कर दिया कि 1906 में 7 सितम्बर को वन्दे मातरम् से जुड़ी कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं घटी। न बारीसाल कान्फ्रेंस और न कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन में। इस विवाद से सरकार की नाक कटने पर भी सोनिया पार्टी ने राहत की सांस ली, क्योंकि अपनी नाक गयी तो गयी पर वन्दे मातरम् को लेकर पार्टी की दुश्मन भाजपा ने जो उत्साह पैदा किया था, उस पर थोड़ा सा ठंडा पानी पड़ गया।
वन्दे मातरम् का रथ तो निकल पड़ा था। लोगों ने कहा कि मार्च की बारीसाल कान्फ्रेंस से लेकर दिसम्बर अंत के कांग्रेस अधिवेशन तक 1906 का पूरा साल ही वन्दे मातरम् का शताब्दी वर्ष है। पूरे साल ही बंगाल की सड़कों पर वन्दे मातरम् गूंजता रहा, छात्र विद्यालयों से निष्कासित होते रहे, जेल जाते रहे। इसलिए हम पूरे साल वन्दे मातरम् का शताब्दी वर्ष मनाएंगे। वन्दे मातरम् के मुद्दे का भाजपा द्वारा अपहरण एक भारी सदमा था वंशवादी पार्टी के लिए। फिर सवाल खड़ा हो गया कि आजादी की लड़ाई से कैसे जुड़ा जाए। 11 सितम्बर नजदीक आ रहा था। पूरे विश्व का प्रचारतंत्र इस दिन को अमरीका पर जिहादी हमले की पांचवीं वर्षगांठ के रूप में भारी महत्व दे रहा था। सोनिया पार्टी फिर दुविधा में पड़ गई। यदि वह जिहाद विरोधी खेमे में खड़ी होती है तो मुस्लिम वोट बैंक का क्या होगा? और यदि 9/11 के आतंकवादी हमले के विरुद्ध वैश्विक प्रचार से स्वयं को अलग रखती है तो अमरीका नाराज हो जायेगा। किसे महत्व दिया जाय-अमरीका को या मुस्लिम वोट बैंक को? क्या कोई ऐसा रास्ता हो सकता है कि अमरीका से दूरी दिखाये बिना ही मुस्लिम वोट बैंक बचाया जा सके? किसी ने सुझाया कि क्यों न हम लोग 11 सितम्बर, 1906 को दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा सत्याग्रह के अविष्कार की शताब्दी से अपने को जोड़ लें। इस एक पत्थर से दो नहीं, तीन शिकार हो सकेंगे। सोनिया पार्टी को महात्मा गांधी और आजादी की लड़ाई से जुड़ने का मुंहमांगा अवसर मिल जायेगा। अमरीका को कह सकेंगे कि हम हिंसा के विरुद्ध अहिंसा को खड़ा कर रहे हैं, अमरीकी 9/11 से अपने को दूर रखकर हम अपना मुस्लिम वोट बैंक भी बचाए रख सकेंगे।
कांग्रेसी गांधीगिरी
अंधे को क्या चाहिए…. लाठी। सोनिया जी दौड़ पड़ीं। 10 सितम्बर को दिल्ली में अपनी पार्टी की कार्यसमिति की बैठक बुला ली। माथापच्ची शुरू हो गई कि महात्मा गांधी की सत्याग्रह शताब्दी को कैसे मनाया जाय? हमारी पार्टी और सरकार क्या करे कि महात्मा गांधी की विरासत राजीव गांधी के वंश की झोली में आ गिरे। किसी ने कहा सेमिनार करें, किसी ने कहा विश्वविद्यालयों में गांधी पीठ स्थापित करें, गांधी निधि को पुनरुज्जीवित करें, स्कालरशिप दें, गांधी प्रतियोगिता करें। हर सुझाव आने पर दूसरा कोई कह उठता यह तो पहले ही हो चुका है, कुछ नया बताओ। इस ऊहापोह के वातावरण में मोहसिना किदवई ने उठकर कहा मैं बताती हूं नया क्या हो सकता है। मैंने एक नई फिल्म देखी है “लगे रहो मुन्ना भाई”। उसमें गांधी को बहुत मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया गया है नई पीढ़ी के सामने। इस फिल्म में गांधी अपनी गांधीगिरी से दो दादा किस्म के युवकों की सब समस्याओं को हल कर देते हैं। हमें इस फिल्म को अपने प्रचार का केन्द्र बनाना चाहिए।
बस, रास्ता मिल चुका था। सोनिया पार्टी की कार्यसमिति के सब सदस्यों के लिए फिल्म के प्रीमियर का विशेष आयोजन किया गया। दिल्ली सरकार और फिर भारत सरकार ने फिल्म को कर मुक्त कर दिया। हरियाणा का पूरा मंत्रिमण्डल मुख्यमंत्री के नेतृत्व में पंचकुला के एक सिनेमाहाल में रात के 9.45 के शो में जाने के लिए तैयारी करने लगा। नाम गांधी का, अंदाज शाही। पूरा सिनेमाहाल किला बना दिया गया। मंत्रिमंडल के सदस्यों के पहुंचने तक शो रोक दिया गया। बेचैन दर्शकों के पूछने पर “तकनीकी खराबी” का झूठा बोलकर सोनिया पार्टी की गांधीगिरी का उदाहरण प्रस्तुत किया गया। बीस मिनट बाद मन्त्रिमंडल के कुर्सियों पर बैठते ही शुरू हो गया। दर्शक मन ही मन सोनिया के गांधी की जयजयकार करने लगे। सोनिया पार्टी और उसकी सरकारों ने इस फिल्म का इतना प्रचार किया कि अब महात्मा गांधी पीछे चले गए और “लगे रहो मुन्ना भाई” देश के दिलो दिमाग पर छा गए। “गांधीगिरी” के अजीबो गरीब प्रयोग होने लगे। रेडीमेड गांधी टोपी और कुरते पजामे पहनकर लोग गांधीगिरी करने के लिए सड़कों पर उतर आये। वे भूल जाते हैं कि गांधी टोपी नहीं, कुरता नहीं, शब्द नहीं, एक आदर्श हैं, जीवन निष्ठा हैं, साधना हैं, तपस्या हैं।
आज ही के एक दैनिक में छपी रपट में लखनऊ शहर की गांधीगिरी का स्वाद चखिए। “मेडिकल कालेज में चंद डाक्टरों ने गांधी टोपी पहनकर सामाजिक मुद्दे उठाए, तो लखनऊ विश्वविद्यालय में बुजुर्ग छात्रों को छात्र संघ चुनाव में हिस्सा दिलाने के लिए “लगे रहो मुन्ना भाई” के गांधी वाला फार्मूला चलाया गया। कालर पकड़कर गाली-गलौज करने वाले छात्र नेता गुलाब का फूल देते दिखे। यह बात अलग कि शाम ढलने के बाद कई तो ठेके पर पहुंचे दिखे।”
गांधी का मजाक
“मुन्ना भाई के नए बने अवतार एक मंदिर के सामने की दारू की दुकान हटाने के लिए फूल वाले फार्मूले को आजमाते दिखे। ये लोग ए.डी.एम. जनार्दन बर्नवाल के घर 191 किलो फूल लेकर पहुंचे। इस पर बड़े अफसरों की कालोनी में हंगामा मच गया। ए.डी.एम. साहब भी चौंके। उन्हें सब कुछ बदला सा लगा। फिर अहसास हुआ कि यह तो नए ढंग का “न्यूसेंस” है। वे आपा खो बैठे। सारे “मुन्ना भाइयों” को हजरतगंज कोतवाली बुलाया गया। वहां फिर मुन्ना भाइयों और गांधीजी को नौकरशाही और उसके पिछलग्गुओं ने जमकर गरियाया। ए.डी.एम. सिटी बोले “गांधी चले गए, औलाद छोड़ गए। दो सौ लोगों को तुम्हारे घर गधे पर गुलाब का फूल लदवा कर भेजूंगा तो पता लगेगा।” … और तो और माफिया डान बबलू श्रीवास्तव पर भी फिल्म का असर रहा। उन्होंने भी अदालत के जज को गुलाब के फूल भेंट किए।
उपरोक्त रपट में राजनीतिक रंग बहुत साफ है। रपट कहती है, “विश्वविद्यालय में जब छात्र संघ चुनाव में बुजुर्ग नेताओं की हिस्सेदारी का आंदोलन मुन्ना भाई की तर्ज पर शुरू हुआ तो विरोधी गुट के लोगों ने गांधी को गरियाया। वहां भी एक पक्ष मुन्ना भाई की नकल करता तो दूसरा पक्ष गांधी को गरियाने लगता है। बहरहाल, फिल्मी खुमार में छात्र नेता, समाज सेवक और अपराधी अपने-अपने अंदाज से गांधी जी को खुद में उतार रहे हैं।” (जनसत्ता, 29 सितम्बर) सोनिया पार्टी ने महात्मा गांधी और स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने की अपनी छटपटाहट से गांधी को अपराधियों और स्वार्थी नकलची समाजसेवियों के लिए सस्ते मनोरंजन, हास्यास्पद एवं भोंडी नकल का पात्र बना दिया। वह भूल गयी कि महात्मा गांधी के कांग्रेस की आधी मृत्यु तो उस दिन हो गई जब कांग्रेस को विसर्जित करने का गांधी का निर्देश नेहरू ने ठुकराया, और आधी उस दिन मर गई जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया से निर्वाचित राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से धकिया प्रधानमंत्री पं. नेहरू अध्यक्ष बन बैठे, तब से कांग्रेस सत्ता की चेरी बन गयी। उसके बाद से कांग्रेस के प्रत्येक विघटन में आजादी के सिपाही कांग्रेस से बाहर जाते रहे और वंशवाद का स्तुतिगान कर सत्ता सुख भोगने वाले अंदर आते गए। इंदिरा जी में इतनी ईमानदारी तो थी कि उन्होंने अपनी पार्टी को इन्दिरा कांग्रेस कहा। पर, सोनिया में तो वह भी नहीं। उनका वंशवाद तो राजीव और राहुल पर जाकर रुक जाता है। उससे पहले के वंश के सभी नाम उनके लिए निरर्थक बन चुके हैं। उनका बस चले तो पूरे भारत को राजीव गांधी का स्मारक घोषित कर दें। बरेली की उस सभा में , जिसमें तीन चौथाई से ज्यादा भीड़ मुसलमानों की थी, पोस्टरों और कटआउटों पर राहुल गांधी ही छाये हुए थे। वहां प्रत्येक वक्ता भीड़ से हाथ उठवा कर नारे लगवा रहा था “युवाओं की तैयारी है, अब राहुल की बारी है।”
उनके सपने
सोनिया जी महात्मा गांधी को घोड़ा बनाकर वंशवाद को सत्ता में लाने के सपने देख रही हैं। जिस गांधी ने अपने पुत्रों के लिए कुछ नहीं किया, उन्हें अपने सहारे जीने के लिए छोड़ दिया, उसी गांधीवाद को सोनिया जी वंशवाद का घोड़ा बनाने की कोशिश कर रही हैं। सत्ता पाने के लिए वे मुस्लिम वोट बैंक के पीछे आंखें मूंद कर दौड़ पड़ी हैं। उत्तर प्रदेश में उन्होंने 13 सितम्बर को कानपुर और 20 को बरेली में जो रैलियां कीं, उनमें सभी दैनिक पत्रों ने भारी मुस्लिम उपस्थिति को रेखांकित किया है। प्रचार माध्यमों में सुनियोजित ढंग से इस भीड़ को सोनिया जी की भारी लोकप्रियता के रूप में प्रक्षेपित किया जा रहा है। वंशवाद की इस मीडिया रणनीति का सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक है। यह लड़ाई वंशवाद और लोकतंत्र के बीच है। लोकतंत्रवादी दलों को यह मांग उठाना चाहिए कि सोनिया पार्टी को स्वयं को अखिल भारतीय कांग्रेस कहने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि वह कांग्रेस कभी की मर चुकी है। कम से कम इन दलों को अपने मंच से उसे कांग्रेस न कहकर सोनिया पार्टी या वंशवादी पार्टी ही कहना चाहिए। यह वंशवाद नहीं तो क्या है कि पार्टी के दफ्तरों में प्रधानमंत्री के चित्र नहीं हैं, केवल सोनिया और राजीव ही छाए हैं। पार्टी के पास सोनिया के अलावा कोई नेता नहीं है। उसका पूरा प्रचार सोनिया और राहुल पर ही केन्द्रित है। क्या लोकतंत्रवाद और वंशवाद की इस लड़ाई में मीडिया के कन्धों पर वंशवाद को सवारी करने दिया जायेगा? क्या भारत की नियति वंशवाद ही है? (29 सितम्बर, 2006)
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