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क्योंकि है सपना अभी भी
शिव ओम अम्बर
इन दिनों जब भी चित्त निराशा से आक्रान्त होता है और इधर कुछ अधिक ही होने लगा है, मैं कविवर धर्मवीर भारती की इन पंक्तियों को गुनगुनाकर स्वयं को आश्वस्त करने की चेष्टा करता हूं –
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन कौन अपने लोग
सब कुछ धुंध-धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प
है अपना अभी भी
क्योंकि है सपना अभी भी।
देश की प्रगति के आंकड़े रोज ही प्रकाशित होते रहते हैं। भारत एक विश्व-शक्ति बन रहा है- इसकी घोषणा भी अब आये दिन की बात है। किन्तु इसी भारत का एक दूसरा चेहरा भी निरन्तर आंखों के सामने उभरता रहता है।
मूल्यों को तिथिबाह्र कर उनका उपहास करने वाला चेहरा, स्वार्थान्ध राजनीति की दिशाहीनता को प्रगतिशीलता मानने वाला चेहरा, सांस्कृतिक चेतना के क्षरण को विकास का आभास मानने वाला चेहरा। कभी-कभी बड़ी तीव्रता से महसूस होता है –
अभिव्यक्ति-मुद्राएं
क्या खोया क्या पाया जग में
मिलते और बिछड़ते मग में,
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में।
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें-
अपने ही मन से कुछ बोलें।
सरस्वती की देख साधना
लक्ष्मी ने सम्बन्ध न जोड़ा,
मिट्टी ने माथे का चन्दन
बनने का संकल्प न छोड़ा।
नये वर्ष की अगवानी में टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें-
आओ, मन की गांठें खोलें।
– अटल बिहारी वाजपेयी
पूज्य हैं पठनीय हैं पर आज प्रासंगिक नहीं,
सोरठे सिद्धान्त के आदर्श की अद्र्धालियां।
घोंप ली भूखे जमूरे ने छुरी ही पेट में,
भीड़ खुश होकर बजाये जा रही है तालियां।
और मन जब ऐसे परिवेश में घुटन का अनुभव कर रहा होता है, अचानक भारती जी की पंक्तियां स्मृति में झिलमिलाने लगती हैं। तब लगता है कि जब तक आंखों में किसी आदर्श को चरितार्थ करने का स्वप्न है, अन्याय के प्रतिकार का, अनय के प्रतिवाद का, अनाचार के प्रतिरोध का संकल्प चित्त में जाग्रत रहेगा और हमारे भीतर का भावतरल कवि “मामनुस्मर युध्य च” के भगवत्-निर्देश को अपने में गहरे तक उतारते हुए कह सकेगा –
और मन जब ऐसे परिवेश में घुटन का अनुभव कर रहा होता है, अचानक भारती जी की पंक्तियां स्मृति में झिलमिलाने लगती हैं। तब लगता है कि जब तक आंखों में किसी आदर्श को चरितार्थ करने का स्वप्न है, अन्याय के प्रतिकार का, अनय के प्रतिवाद का, अनाचार के प्रतिरोध का संकल्प चित्त में जाग्रत रहेगा और हमारे भीतर का भावतरल कवि “मामनुस्मर युध्य च” के भगवत्-निर्देश को अपने में गहरे तक उतारते हुए कह सकेगा –
युद्धार्पित है देह ये कृष्णार्पित है चित्त,
नायक-निर्णायक वही हम हैं महज निमित्त।
स्व: तथा स्वाहा
उम्र के दसवें दशक में संचरण कर रहे आदरणीय खुशवन्त सिंह जी कभी-कभी बड़े मासूम सवाल उठा बैठते हैं। ईश्वर के अस्तित्व को वह स्वीकार नहीं करते किन्तु विविध धर्मों के विभिन्न मन्त्रों के प्रति वह जिज्ञासा-भाव प्रदर्शित करते रहते हैं। मैं समझता हूं कि उनकी यह जिज्ञासा एक कौतूहल मात्र है जो अनायास उभरती है और फिर एकाएक तिरोहित भी हो जाती है- बिना किसी समाधान तक पहुंचे। पिछले दिनों उन्होंने ऐसा ही एक कौतुहल भरा प्रश्न गायत्री मन्त्र के प्रारम्भ में आने वाले “स्वाहा” के लिए उठाया, उसके औचित्य को अपर्याप्त घोषित कर अपनी संशयालु बौद्धिकता की पीठ भी थपथपा ली। उनके स्तम्भ में “स्वाहा” सम्बन्धी यह गाथा पढ़कर मेरे चित्त में अवश्य प्रेरणा जगी कि “गवाक्ष” में समय-समय पर भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों और आध्यात्मिक संकेतों की चर्चा हो ताकि तथाकथित बुद्धिवादियों द्वारा सृजित कुहासा कुछ कट सके। सबसे पहले तो आदरणीय खुशवन्त सिंह जी को यह बताया जाना चाहिए कि गलत प्रश्न की नींव पर सही उत्तर की भित्ति को नहीं उठाया जा सकता। वह गायत्री-मन्त्र के प्रारंभ में भू भुव: के साथ आये स्वाहा शब्द के औचित्य की तलाश कर रहे हैं जबकि वहां पर स्वाहा शब्द का प्रयोग ही नहीं किया गया है। गायत्री मन्त्र के प्रारंभ में जिन तीन व्याहृतियों का प्रयोग हुआ है, वे हैं- भू भुव: स्व:। मन्त्रद्रष्टा ऋषि भूलोक, भुर्लोक और स्वर्लोक में परिव्याप्त परमेश्वर के प्रकाश से प्रार्थना कर रहा है कि वह उसकी बौद्धिक वृत्तियों को प्रेरणा प्रदान करे। भारतीय संस्कृति का शाश्वत उद्घोष रहा है कि जीवन का अन्तप्र्रेरक काम नहीं, राम हो। गायत्री मन्त्र उसी प्रकाशपुंज के ध्यान का, उसकी प्रार्थना का मन्त्र है। हमारी त्रिलोकी की परिकल्पना में पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक की परिगणना होती है। स्व: शब्द इसी द्युलोक का सूचक है। स्वाहा शब्द प्राय: यज्ञ में दी जाने वाली आहुति के उपरान्त प्रयुक्त किया जाता है। यह दिव्यता के लिए किये जाने वाले समर्पण का वाचक शब्द है। पौराणिक मान्यता के अनुसार अग्नि की धर्मपत्नी का नाम स्वाहा है। अग्नि देवशक्तियों में अग्रणी है। ऋग्वेद का प्रथम श्लोक अग्नि की वन्दना का ही मन्त्र है। वह पृथ्वी पर आकाश के आलोक- हस्ताक्षर के समान है। पार्थिवता और दिव्यता के मध्य रचे गये स्वर्णसेतु का नाम है अग्नि और स्वाहा उसकी क्रियाशक्ति है। भगवान कृष्ण ने गीता में यज्ञ के तथ्वार्थ की विवेचना करते हुए उसे लोकमंगल की साधना माना है। यज्ञकर्ता अर्थात निष्काम भाव से लोकाराधन और समष्टि-हित की साधना करने वाला कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। अग्नि के व्यक्तित्व में यज्ञ-दर्शन की साकार परिणति है और स्वाहा समग्र समर्पण की साहित्यिक संज्ञा है। हमारे स्वप्न में स्व: अर्थात द्युलोक हो और हमारे दैनिन्दिन आचरण में स्वाहा अर्थात दिव्यता के हेतु समर्पण का अविरल भाव हो तो हमारा जीवन कृतार्थता को प्राप्त हो सकता है। किन्तु यह बहुत आवश्यक है कि हम स्व: तथा स्वाहा के अन्तर को और उनके सही स्थान को जानें तभी गायत्री हमारे जीवन को आनन्द का गान बना सकेगी, हमें अशुभ से त्राण दिला सकेगी।
तेरी मीरा जरूर हो जाऊं
हिन्दी काव्य-मंच की सुप्रसिद्ध कवयित्री सरिता शर्मा का सद्य: प्रकाशित मुक्तक संग्रह “तेरी मीरा जरूर हो जाऊं (प्रकाशक – रचना पब्लिेकशंस, शाहदरा, दिल्ली-32, मूल्य-125 रु.) सहृदय पाठकों के लिए माधुर्यमयी गुनगुनाहट का एक स्वर्णिम उपहार है। उनकी रसवन्त रागारुण अभिव्यक्तियां प्रीति की, प्रतीति की पाटली प्रस्तुतियां हैं, जो कहीं गोपियों से प्रेम का व्याकरण पढ़ने का सन्देश देती हैं तो कहीं शबरी के बेरों का रसतत्व राम से जानने का निर्देश प्रदान करती हैं –
रंग कुछ और ही चढ़ा होता
इक नया आचरण गढ़ा होता,
तुमने गोकुल की गोपियों से अगर
प्रेम का व्याकरण पढ़ा होता।
तथा
धर्म का अर्थ धाम से पूछो
प्रेम का अर्थ श्याम से पूछो,
कितने मीठे हैं बेर शबरी के
पूछना है तो राम से पूछो।
उदय प्रताप जी के अनुसार नारी समाज की जागरुकता तथा रूढ़ियों से विद्रोह के दो तटों के बीच काव्य की निरन्तर प्रवाहित धारा का नाम सरिता शर्मा है, तो सोम ठाकुर जी का अभिमत है कि सरिता जी के मुक्तकों में भारतीय प्रेमिल परिवेश की आदिम गंध और उसकी उद्दाम तरंग पाठक-मन का अपनी पावन संस्कारिता से अभिषेक करती है। वस्तुत: इस संग्रह की कवयित्री अपने प्रेमास्पद के नाम को अपने अधरों पर भगवान के भजन की संज्ञा देने वाली वह भावप्रवण चेतना है जो उन्मादिनी मीरा की कृष्णलीना संवेदना में स्वयं को समाहित करना चाहती है –
सारी दुनिया से दूर हो जाऊं ,
तेरी आंखों का नूर हो जाऊं ।
तेरी राधा बनूं, बनूं न बनूं,
तेरी मीरा जरूर हो जाऊं।
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