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मंथन

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Jul 5, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Jul 2006 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूप

आरक्षण विशुद्ध सत्ता राजनीति

कलकत्ता में जन्मी, लखनऊ में बसी, दिल्ली के लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज में अन्तिम वर्ष की छात्रा इस बृहस्पतिवार को दैनिक पत्रों के पहले पन्ने पर भारत की तरुणाई की हताशा, असहायता और आक्रोश का प्रतीक बन कर उभर आयी। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने राष्ट्र के 20 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों, आई.आई.टी. एवं मेडिकल कालेजों में अनुसूचित जातियों/जनजातियों और ओ.बी.सी. के लिए आरक्षण का प्रावधान करने की घोषणा करके उच्च व्यावसायिक शिक्षा के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया। यदि आज विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है, अमरीका, ब्रिटेन और यूरोप के विकसित देशों में भारत का वर्चस्व दिखायी देता है तो उसका अधिकांश श्रेय इन शिक्षा संस्थानों से निकले हुए डाक्टरों, इंजीनियरों, सूचना विशेषज्ञों को जाता है। यदि पश्चिम के विकसित औद्योगिक देशों से नौकरियां भारत के काल सेंटरों में खिंची चली आ रही हैं तो इसका श्रेय भी इन व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों को ही जाता है। यदि भारत को विश्व की उदीयमान आर्थिक शक्ति के रूप में देखा जा रहा है तो उसमें भी इन्हीं संस्थानों से निकली प्रबन्ध एवं प्रौद्योगिक विशेषज्ञता का ही योगदान है। इन शिक्षण संस्थानों में अब तक योग्यता के आधार पर ही प्रवेश मिलता रहा है, कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच योग्यता के आधार पर ही परीक्षाओं में मूल्यांकन होता रहा है और क्षमता के आधार पर ही उन्हें देश-विदेश में आगे बढ़ने का अवसर मिलता रहा है।

जातिवादी दलों की बाढ़

विश्व में सदा से चला आया यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि किसी भी राष्ट्र को ऊपर उठने के लिए, आगे बढ़ने के लिए अपनी नयी पीढ़ी को अधिकाधिक क्षमतावान बनाने का प्रयास कराना चाहिए, इसके लिए उस पीढ़ी में क्षमता बढ़ाने की, उसके लिए कठोर साधना करने की संकल्प शक्ति उत्पन्न करना आवश्यक है। राष्ट्र सबके लिए समान अवसर तो दे सकता है, किन्तु जन्म से ही सबकी क्षमताओं को समान नहीं बना सकता। दुनिया के सब राष्ट्रों का सब कालों में यह अनुभव रहा है कि हम जन्म से ही अलग-अलग प्रतिभायें, रुचियों, गुण सम्पदा और क्षमता लेकर अपनी जीवन यात्रा आरम्भ करते हैं, प्रतिस्पर्धा के मैदान में अपने लिए स्थान बनाने का प्रयास करते हैं, जीविकार्जन के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में, अलग-अलग सीढ़ियों पर खड़े होकर, परस्पर पूरकता के साथ राष्ट्र के विकास में अपना-अपना योगदान करते हैं। राष्ट्र का यह दायित्व होता है कि वह शिक्षा एवं जीविकार्जन के क्षेत्र में सबके लिए समान अवसर की व्यवस्था करके भी सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों की क्षमता वृद्धि के लिए विशेष प्रयास करे, उनकी ओर विशेष ध्यान दे।

1932 के पूना पैक्ट और 1935 के भारत एक्ट में अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान इसी राष्ट्रीय दायित्व को पूरा करने की दृष्टि से किया गया था। उसके पीछे एक ही लक्ष्य था कि जन्मना जाति व्यवस्था के द्वारा ऊंच-नीच, छुआ-छूत की दीवारों को ढहाकर एक जातिविहीन समाज रचना की दिशा में देश आगे बढ़े और एक समरस समाज जीवन खड़ा हो सके। इसी लक्ष्य को सामने रखकर स्वाधीन भारत के संविधान में केवल 10 वर्ष की अवधि के लिए आरक्षण को आपत्कालीन व्यवस्था के रूप में स्वीकार किया गया था, क्योंकि आरक्षण व्यवस्था वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करती है, लोकतंत्र को कमजोर करती है, राष्ट्र को क्षमता वृद्धि के संकल्प और साधना से विरत करती है। बिना परिश्रम के आरक्षण की बैसाखी के सहारे ऊंचा उठने का लोभ पैदा करती है। इस दृष्टि से देखें तो पिछले 70 वर्ष में आरक्षण व्यवस्था का अनुभव क्या है? इस व्यवस्था ने जन्मना जाति-व्यवस्था को समाप्त करने के बजाय उसे चिरस्थायित्व प्रदान कर दिया है। राजनेताओं ने आरक्षण व्यवस्था को अपनी वोट बैंक राजनीति का अंग बना लिया है। जातिवादी राजनेताओं और दलों ने समाज को जाति के आधार पर जड़मूल तक विभाजित करने की नीति अपना ली है। वस्तुत: जाति आधारित समाज रचना में उनका निहित स्वार्थ उत्पन्न हो गया है, जातिवादी दलों की बाढ़ आ गई है। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, अजीत सिंह, ओम प्रकाश चौटाला, रामविलास पासवान, मायावती जैसे नेता जातिवादी राजनीति को ही अपनी शक्ति मानते हैं और निर्लज्जता के साथ जातिवाद का सहारा लेते हैं। यहां तक कि तमिलनाडु में भी द्रविड़वाद के क्षेत्रीय उभार का जाति के आधार पर विखण्डन हो गया है और डी.एम.के. में से पी.एम.के., एम.डी.एम.के. जैसे जातिवादी दल उभर आए हैं। इस जातिवादी विभाजन और प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप मुस्लिम वोट बैंक सबसे बड़ा बन कर उभर आया है और प्रत्येक जातिवादी नेता मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की दौड़ में लग गया है। अजीत सिंह जाट-मुस्लिम, मुलायम सिंह और लालू यादव यादव-मुस्लिम, रामविलास पासवान और मायावती दलित-मुस्लिम गठबंधन की निर्लज्जता के साथ दुहाई दे रहे हैं।

विद्वेष का जहर

कैसी विचित्र स्थिति है कि शहरीकरण और आधुनिकीकरण के फलस्वरूप, जो जाति व्यवस्था अपना सामाजिक आधार खोती जा रही है उसे सत्तालोलुप दलीय राजनीति न केवल जिन्दा रख रही है, बल्कि और गहरा और प्रतिस्पर्धी बनाती जा रही है। यह वोट राजनीति समाज जीवन में सौहार्द, परस्पर पूरकता और समरसता का भाव पैदा करने के बजाय आपसी कटुता और विद्वेष का जहर फैला रही है। इस जातिवादी राजनीति का परिणाम राजनीतिक बिखराव और अस्थिरता में हो रहा है। छोटे छोटे जातिवादी दलों के सत्तालोलुप राजनेताओं के बीच सत्ता के वितरण को ही आजकल “गठबंधन धर्म” जैसा नाम दिया जाने लगा है। इस जातिवादी और अल्पसंख्यकवादी राजनीति के कारण राष्ट्रीयता की भावना शिथिल हो गई है। अखिल भारतीय राष्ट्रीयता की आधारभूमि सिकुड़ती जा रही है और बौद्धिकों का एक वर्ग तो राष्ट्रवाद को उच्च वर्णों का शब्दजाल व ढकोसला घोषित करने में लगा है। जातिवादी राजनीति को “सामाजिक न्याय” और अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को “सेकुलरिज्म” का शाब्दिक आवरण पहना दिया गया है। इन शब्दों के आवरण में जातिवाद और अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को ही “राष्ट्रवाद” कहा जाने लगा है।

मई 2004 में लालू यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह जैसे जातिवादी नेताओं के कंधों पर सवार होकर केवल 142 सांसदों के बल पर केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से कांग्रेस पार्टी ने जातिवादी और अल्पसंख्यकवाद को ही अपना एकमात्र राजनीतिक एजेंडा बना लिया है। अर्जुन सिंह के अब तक के सभी निर्णयों और ताजी घोषणा को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके लिए अर्जुन सिंह को व्यक्तिश: दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। अर्जुन सिंह और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच मतभेद की चर्चा या कपिल सिब्बल के आरक्षण विरोधी उद्गारों को गंभीरता से लेना ठीक नहीं होगा। सोनिया गांधी के हाथों में कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व आने के बाद से कांग्रेस पार्टी पूरे वेग के साथ इस नीति पर आगे बढ़ रही है। सच्चर कमेटी हो या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या मुसलमानों को आरक्षण की घोषणा हो सब उसी कार्यक्रम का हिस्सा है। आरक्षण के प्रश्न पर केवल कांग्रेस पार्टी को ही दोषी क्यों ठहरायें। आज स्थिति यह है कि मुस्लिम तुष्टीकरण और जातिवादी आरक्षण की स्पर्धा में सभी दल एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण को निरस्त करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सभी राजनीतिक दल एकजुट हो गए। उन्होंने एकमत से संसद का सर्वोच्च न्यायालय के विरुद्ध हथियार की तरह इस्तेमाल किया। जातिवादी और अल्पसंख्यकवादी राजनीति का गठबंधन खुलकर सामने आ गया जब अल्पसंख्यक संस्थानों को आरक्षण के बंधन से मुक्त कर दिया गया और इसलिए अब ईसाई और मुस्लिम नेतृत्व तेजी से अपनी अलग शिक्षण संस्थाओं की संख्या बढ़ाने में जुट गया है।

व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा

जातिवादी और अल्पसंख्यकवादी राजनीति के गठजोड़ को सत्ता प्राप्ति का इतना अचूक फार्मूला मान लिया गया है कि भारतीय जनता पार्टी जैसा दल भी, जो राष्ट्रवाद को ही अपना वैचारिक अधिष्ठान मानता है और राष्ट्रवाद में ही जिसकी शक्ति है, तमाम ऊंची-ऊंची गर्जनाएं करने के बाद भी संसद में इस राष्ट्रविरोधी 104वें संविधान संशोधन विधेयक के विरुद्ध मतदान करने का साहस नहीं जुटा पाया। कहा गया कि उसके गठबंधन सहयोगी जनता दल (यू) के दबाव के कारण वह ऐसा नहीं कर पाया। क्योंकि जनता दल (यू) के गठबंधन के बिना बिहार में सत्ता में हिस्सा पाना संभव नहीं था। यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि जनता दल (यू) को भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन के बिना सत्ता का स्वाद मिलना संभव है? यदि सत्ता-स्पर्धा लालू यादव और रामविलास पासवान के बीच दरार पैदा कर सकती है तो नीतिश और लालू यादव को कैसे मिलने देगी, लालू यादव नीतिश को मुख्यमंत्री की कुर्सी क्यों देंगे? यदि मुलायम सिंह और लालू यादव एक नहीं हो सकते, मायावती और मुलायम सिंह राजनीतिक शत्रु हो सकते हैं, अजीत सिंह के मुलायम सिंह से रिश्ते स्थिर नहीं हो सकते, तो इससे इतना तो साफ हो जाता है कि आरक्षण की जातिवादी का लक्ष्य सामाजिक न्याय न होकर केवल नेताओं की व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा है। यदि सत्ता-स्पर्धा की दृष्टि से देखें तो राष्ट्रवादी राजनीति का जनाधार कहीं अधिक विशाल है। उस विशाल जनाधार को सुदृढ़ करना और व्यापक राष्ट्रहित में तो आवश्यक है ही, सत्ताकांक्षा की पूर्ति में भी सहायक है। अपने जनाधार को खोकर जातिवादी गठबंधनों की मृगमरीचिका में भटकना आत्मघाती सिद्ध हो रहा है।

आज का परिदृश्य क्या है? क्षमता और योग्यता के आधार पर अपना भविष्य बनाने को व्याकुल विशाल छात्र पीढ़ी, तमाम बुद्धिजीवी, मीडिया का विशाल वर्ग, देश की समृद्धि को आगे बढ़ाने वाला उद्योग जगत् एवं व्यापारी वर्ग, न्यायपालिका एवं चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं इस विभाजनकारी एवं राष्ट्रविरोधी आरक्षण नीति के विरुद्ध खड़ी हो गई हैं। देश में एक विशाल जनांदोलन जन्म ले रहा है। सत्तालोभी राजनीतिक नेतृत्व अलग-थलग पड़ गया है, सत्ता स्पर्धा उसे एकजुट नहीं बनाती। प्रत्येक दल आरक्षण के हथियार से अपने प्रतिस्पर्धी को पीटना चाह रहा है। ऐसे में जो दल अपनी राष्ट्रवादी निष्ठा को लेकर इस विभाजनकारी एवं अपरिणामकारी आरक्षण नीति के विरुद्ध खम ठोक कर खड़ा होगा उसे राष्ट्र की तरुणाई, मीडिया, बौद्धिक एवं उद्योग-व्यापार जगत के विशाल वर्ग का समर्थन प्राप्त होगा।

झूठा आशावाद

यह सत्य है कि सत्तालोभी राजनीतिज्ञों के लिए तर्क, तथ्य एवं आंकड़ों का कोई महत्व नहीं हैं। उन्हें लगता है कि वोट बैंक राजनीति तर्कों, तथ्यों और आंकड़ों पर नहीं, वोटों की संख्या पर चलती है। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण की सुविधा का लाभ उठाने की क्षमता उन वर्गों में अब तक पैदा ही नहीं हुई है, जिन्हें यह दी जा रही है। उन्हें इससे भी कोई मतलब नहीं कि इन जातियों का वह विशाल वर्ग, जो गांवों में रहता है, जो निरक्षर है अथवा दसवीं के आगे पढ़ा ही नहीं है, उसका आरक्षण की इन सुविधाओं से कुछ लेना-देना नहीं है। इसका लाभ इन जातियों का वह मुट्ठीभर वर्ग उठा रहा है जिसे “क्रीमी लेयर” कहा जाता है। और जो अपनी जाति की दुर्बल बहुसंख्या के प्रति पूरी तरह संवेदनाशून्य बनकर शहरी जिन्दगी के सुख भोग रहा है। जो आरक्षण की बैसाखियों का उपयोग कर ऊंचे पदों पर पहुंचने के बाद भी इन बैसाखियों को छोड़ना नहीं चाहता। जिसने आरक्षण में निहित स्वार्थ पैदा कर लिया है। वह जानता है कि उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ उसे ही मिलेगा, दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करने वाली विशाल देहाती अपढ़ जाति बन्धुओं को नहीं। सत्तालोभी राजनीतिक नेतृत्व यह सब कुछ जानने के बाद भी आर्थिक विकास की ऐसी नीतियां बनाने की कोशिश नहीं कर सकता जिससे कम पढ़े, गरीब देहाती पिछड़ों को जीविकार्जन का सहारा मिल सके। वह आरक्षण के विस्तार की घोषणाएं करके प्रचार माध्यमों के द्वारा इन निर्बल वर्गों के मन में एक झूठा आशावाद जगाने की कोशिश करता है। यह नेतृत्व चाहता है कि आरक्षण सम्बंधी उसकी प्रत्येक नयी घोषणा का प्रबल विरोध हो ताकि वह अपने को पिछड़ों का हमदर्द और विरोध करने वालों को उनका शत्रु दिखा सके। उसकी दृष्टि में सत्ता से बड़ी कोई चीज नहीं होती, राष्ट्र के भविष्य से उसे कुछ लेना-देना नहीं। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि राष्ट्र की प्रगति और शक्ति कुछ सौ नौकरियों के वितरण पर नहीं, पूरे समाज की क्षमता और योग्यता की वृद्धि पर निर्भर करती है। राष्ट्रभक्त नेतृत्व को राष्ट्र हित में इस सत्ता लोभ से ऊपर उठना ही होगा। 28 अप्रैल, 2006

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