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हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भ
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“स्त्री” स्तम्भ
द्वारा, सम्पादक, पाञ्चजन्य,
संस्कृति भवन, देशबन्धु गुप्ता मार्ग,
झण्डेवाला, नई दिल्ली-55
तेजस्विनी
कितनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। आपके आसपास भी ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बल पर समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गईं। क्या आपका परिचय ऐसी किसी महिला से हुआ है? यदि हां, तो उनके और उनके कार्य के बारे में 250 शब्दों में सचित्र जानकारी हमें लिख भेजें। प्रकाशन हेतु चुनी गईं श्रेष्ठ प्रविष्टि पर 500 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।
अंजलि खत्री की वामा जनकल्याण समिति
खिलौनों ने लौटाईं खुशियां-श्रीति राशिनकर
कहते हैं जब दिल में कुछ करने की ललक हो तो रास्ते भी निकल ही आते हैं। इन्दौर की अंजलि खत्री के जीवन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। स्त्रियों की दशा पर सदा चिंतन-मनन करने वाली अंजलि अपनी कहानी स्वयं बताती हैं। उनके अनुसार, “मैं भी साधारण गृहिणी थी लेकिन मेरे आसपास की असहाय, निर्धन महिलाओं को देखकर मुझे लगा कि उनके लिए कुछ किया जाना चाहिए, जिससे कि वे आर्थिक दृष्टि से सक्षम हों एवं उनके परिवार न बिखरें। इसी विचार से मैंने सन् 2000 में महिलाओं के लिए वामा जनकल्याण समिति की स्थापना की।” इसके पूर्व अंजलि स्थानीय महिला थाना के पारिवारिक परामर्श केन्द्र में परामर्शदात्री थीं। तब वह देखती थीं कि अनेक महिलाएं पतियों या पुरुषों के अमानवीय अत्याचारों से तंग आकर “परामर्श केन्द्र” में आती थीं। कई महिलाएं तो सिगरेट से दागी गई होती थीं, तो किसी को ब्लेड से काटा गया होता, यह देखकर उनका मन व्याकुल हो जाता। अंतत: एक दिन उन्होंने स्वयं ऐसी पीड़ित महिलाओं के लिए कुछ करने का मन बना लिया।
अंजलि अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए दर-दर भटकीं। वे कई लोगों से मिलीं लेकिन किसी से भी कोई सहयोग नहीं मिला, उल्टे लोग उन पर गलत आक्षेप लगाने लगे। ऐसे कठिन समय में मदद के लिए कोई काम नहीं आया लेकिन अंजलि के दृढ़ निश्चय को देखते हुए उनके पति श्री ललित कुमार खत्री ने आर्थिक एवं मानसिक दृष्टि से संबल दिया। अंजलि कहती हैं, “मेरी माताजी शीला मुल्हेरकर ने मेरा आत्मविश्वास नहीं बढ़ाया होता तो मैं इस समिति का गठन नहीं कर पाती।”
आज अंजलि खत्री की इस वामा जनकल्याण समिति में अनेक महिलाएं खिलौने बनाने एवं सिलाई-कढ़ाई का काम करती हैं। कई महिलाएं दूरस्थ इलाकों से आती हैं। उन्हें खिलौने बनाने के लिए कच्चा माल दे दिया जाता है। इन खिलौनों को बाजार में बेचकर जो लाभ मिलता है उसे इन महिलाओं के बीच बांट दिया जाता है।
अंजलि कहती हैं, “कुछ महिलाएं अपना सब कुछ छोड़कर संस्था में आती हैं, उनके रहने की भी व्यवस्था की जाती है। संस्था का अपना कोई भवन नहीं है, किराए का भवन ही संस्था का आधार है, जिसका किराया वह स्वयं वहन करती हैं।” वामा समिति में नियमित रूप से आकर खिलौने बनाने वाली निर्मला का पति पिछले वर्ष घर छोड़कर कहीं चला गया तब परिवार का सारा बोझ निर्मला पर आन पड़ा? अब वह अपने बनाए खिलौने बेचकर अपने बच्चों का भरण-पोषण करती है। वह कहती है, “मेरे मन में नया आत्मविश्वास जागा है। वामा समिति ने मुझे नया जीवन दिया है।”
यहां आने वाली पचास वर्षीया मंजीत मूक बधिर है। मंजीत संस्था में रोजाना आकर तन्मयता के साथ रंग-बिरंगे खिलौने बनाती है। यहां आने वाली प्रत्येक महिला इसलिए खुश है क्योंकि वह आज आर्थिक दृष्टि से अपने पैरों पर खड़ी है। और अंजलि इसलिए प्रसन्न हैं कि कम से कम वे महिलाएं घर से बाहर तो निकलीं, नहीं तो घर में रहकर अब तक पुरुषों के अत्याचारों को सहना ही जानती थीं।
अंजलि के इस कार्य में श्रीमती संपदा केलकर व कल्पना देशपांडे प्रारंभ से जुड़ी हैं। अंजलि कहती हैं कि महिला थाने की एक अधिकारी श्रीमती प्रभा चौहान उनकी प्रेरणास्रोत हैं।
“फैशन और संस्कृति में टकराव कहां?”
विषयक बहस पर आमंत्रित विचारों की तीसरी कड़ी
रूढ़िवादी मानसिकता छोड़ें
भले ही उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में भारत दुनिया के साथ दौड़ लगाना चाहता है, पर भारतीय समाज में महिलाओं का दोयम दर्जा अभी तक खत्म नहीं हुआ है। अगर समाज से इस अभिशाप को खत्म करना है तो महिलाओं को शिक्षित होकर अपने पैरों पर खड़े होना होगा।
फैशन और संस्कृति में टकराव होना स्वाभाविक है। फैशन का जो रूप शहरी व ग्रामीण परिवेश में हम देखते हैं, उसका इतिहास उतना ही पुराना है जितना संस्कृति और मानव सभ्यता का। खुद को आकर्षक, अच्छा और अलग दिखाने की चाह हमेशा से रही है। यही वजह है कि फैशन प्रत्येक दशक व मौसम में नए-नए रूपों में प्रकट होकर हमारे व्यक्तित्व को नये अन्दाज में प्रस्तुत कर जाता है।
संस्कृति स्थायी है, इसके विपरीत फैशन में कभी स्थायीपन नजर नहीं आता और निरन्तर बदलाव होते रहते हैं। भारत में फैशन और संस्कृति को कालखण्ड के अनुसार देखें तो प्राचीनकाल, मुगलकाल और वर्तमान काल, ये तीन विभाजन दिखते हैं। परन्तु जितना बदलाव वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखने को मिलता है, वह पूर्व के वर्षों में नहीं था। क्योंकि आभूषण, परिधान व रूप सज्जा तीनों को मिलाकर फैशन या श्रृंगार पूर्ण माना जाता है। वैसे तो नारी की शोभा उसके गुण और व्यवहार से प्रदर्शित होती है। भारतीय संस्कृति में इसे हम सहजता के साथ स्वीकार कर लेते हैं। अश्लील पहनावे को हमारे समाज ने कभी मान्यता नहीं दी है और यहीं टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है। अक्सर सुनने को मिलता है कि अधिक फैशन करने से लड़कियां बिगड़ जाती हैं, यह एक रूढ़िवादी मानसिकता है। यदि हमारे अन्दर विश्वास व नैतिक मूल्य समाए हैं तो हम वेशभूषा और रूप सज्जा के साथ अपनी संस्कृति का पतन नहीं होने देंगे।
लड़कियां अब घर की चारदीवारी से बाहर खेल के मैदानों में हैं, मंच पर हैं, सड़कों पर दोपहिया और चारपहिया के साथ-साथ आसमान में वायुयान भी उड़ा रही हैं। स्कूल, कालेजों में उनकी उपस्थिति लगातार बढ़ रही है। वे आज अपने पैरों पर भी खड़ी हो रही हैं। उन्होंने घर नहीं छोड़ा है, अपने घर की सीमाएं बड़ी कर ली हैं। यानी महिलाओं का खुद का जीवन तो बेहतर हुआ ही है, बाहर की दुनिया भी उनके कारण कुछ ज्यादा अच्छी हो गयी है। हां, समाज को अपना दृष्टिकोण सकारात्मक करना होगा।
नाजिया आलम
द्वारा श्री रईस आलम, म. सं. 120,
पंजाबपुरा, बरेली (उ.प्र.)
फैशन में गरिमा भी जरुरी
फैशन करना कोई बुरी बात नहीं है, बल्कि प्रत्येक नारी का अधिकार है। माता-पिता बेटी के फैशन करने पर बेवजह शक करते हैं। पौराणिक कथाओं एवं हमारी प्राचीन संस्कृति में भी स्त्री के रूप एवं सौन्दर्य की चर्चा हुई है। फैशन ऐसा होना चाहिए, जिसमें नारी का सौन्दर्य शालीनतापूर्ण ढंग से झलके, न कि फूहड़ दिखे। फैशन में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक दिखनी चाहिए। पर आज के समय में जो दृश्य सिनेमा और टी.वी. चैनलों पर दिखाये जा रहे हैं उनमें फूहड़ता, अश्लीलता खुलेआम प्रदर्शित हो रहीं है। इसका सीधा प्रभाव समाज पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। समाज में इसी कारण बलात्कार एवं छेड़खानी जैसी घटनाएं रोज घटित हो रही हैं। इसी कारण से माता-पिता बेटियों को रात को घूमने से मना करते हैं। यदि महिलाओं के प्रति आज अश्लील व्यवहार, टीका टिप्पणियां बढ़ी हैं तो पहनावा भी इसके पीछे एक प्रमुख कारण है।
निहारिका सिंह, द्वारा डा.
आर.पी. सिंह
सी 19/40 बी-3, फातमान
रोड, वाराणसी (उ.प्र.)
फूहड़ता से बचें
स्त्रीका सौंदर्य उसके श्रृंगार में छुपा होता है। सौंदर्य के बिना हर स्त्री स्वयं को अधूरी महसूस करती है। तभी तो श्रृंगार करना हर स्त्री की स्वाभाविक वृत्ति होती है, उसकी चाहत होती है। आधुनिक युग में श्रृंगार को ही फैशन का नाम दे दिया गया है। लेकिन लोगों में यह गलत धारणा बैठ गई है कि फैशन करने से स्त्रियां बिगड़ जाएंगी। हां, अलग-अलग मौके पर फैशन भी अलग तरह का होना चाहिए। लेकिन फैशन के नाम पर हम जो चाहें वह करें, इसकी छूट नहीं मिलनी चाहिए। छोटे-छोटे कपड़े पहनकर शरीर के अंगों को दिखाना कतई फैशन नहीं है। फैशन अवश्य करें, पर फूहड़ता से बचें।
फैशन ऐसा करें कि सामने वाले को अच्छा लगे। लेकिन इस कोशिश में उलजुलूल प्रयोग कर लोगों के ताने या उनकी हंसी का पात्र बनना भी अच्छा नहीं होता। कपड़े भी वही पहनें, जो आप पर जंचते हों। फैशन का चलन तो पुराने जमाने में भी रहा है। इसका एक प्रसंग रामायण में भी मिलता है। जब माता सीता भगवान श्रीराम के साथ वनवास गईं तो वहां उनकी भेंट सती अनसूइया से हुई थी। तब उन्होंने सीता माता को उपहार स्वरूप कई आभूषण देते हुए कहा था कि बेटी तुम इस रूप में सुंदर नहीं लगती हो। ये आभूषण पहनकर श्रीराम के पास जाओगी तो वह भी बहुत खुश होंगे। सचमुच में जब सीता माता उन आभूषणों को पहनकर श्रीराम के पास गईं तो वे उन्हें देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन गहनों में सीता माता भी बहुत सुंदर लग रही थीं। इस तरह फैशन का चलन प्राचीनकाल से चला आ रहा है। हर स्त्री को श्रृंगार या आज के अर्थ में फैशन करना चाहिए।
फैशन करने से किसी के मान-सम्मान या सामाजिक मर्यादा को ठेस लगती है, ऐसा कहना गलत होगा। आज के जमाने में कामकाजी महिलाएं समय की कमी के चलते वही सब पहनना चाहती हैं जिसके रखरखाव या पहनने में ज्यादा समय न लगे। वह उसी तरह रहना चाहती हैं जिससे काम करने में कोई असुविधा न हो। इस दृष्टि से कोई महिला पैंट-कमीज पहनती है या छोटे बाल रखती है तो इसका यह मतलब नहीं कि वह बिगड़ी हुई है।
सरिता शर्मा, द्वारा महावीर प्रसाद
इन्दोरियां
खेमका सती मंदिर, वार्ड नं.-22,
गांधी नगर, चुरु (राजस्थान)
महिला पाठकों को आमंत्रण
फैशन और संस्कृति में टकराव कहां?
आज अक्सर घरों में युवतियों को यह सुनने को मिलता है कि, “फैशन मत करो, बिगड़ जाओगी” या “तौबा, वह तो इतना फैशन करती है, उसका चालचलन ठीक नहीं है।” तो क्या समय के साथ अपनी वेशभूषा और रूप सज्जा में फैशन का पुट देने का अर्थ है बिगड़ जाना और चाल चलन खराब होना? अगर बेटा रात को देर से आए तो कहा जाता है कि वह बहुत मेहनती है और बेटी को देर हो जाए तो कहते हैं, वह बिगड़ गई है। यह दृष्टिकोण कितना उचित है कितना अनुचित? हम तो आपके सामने केवल चर्चा का मुद्दा रख रहे हैं। आप इस संदर्भ में हमें 250 शब्दों में अपने फोटो सहित विचार भेजें तथा पता साफ-साफ लिखें। चुने हुए पत्रों पर 250 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।
हमारा पता : स्त्री स्तंभ, द्वारा सम्पादक पाञ्चजन्य,
संस्कृति भवन, देशबंधु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-55
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