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आतंकवादियों को छोड़करआतंकवाद से लड़ने की बात-गोपाल सच्चर”गोली नहीं, बात बनेगी बोली से।” इसी नारे के साथ चार वर्ष पूर्व जम्मू-कश्मीर की वर्तमान गठबंधन सरकार ने राज्य में शांति बहाली की दिशा में अनेक कदम उठाए थे, किन्तु घाटी में गोलीबारी, हिंसा, उग्रवाद तथा हिन्दुओं को निशाना बनाने की ये घटनाएं न केवल अब भी जारी हैं बल्कि कई मामलों में स्थिति और भी खराब हुई है। घटनाएं कश्मीर घाटी से बढ़ते-बढ़ते मुम्बई तथा बंगलौर तक पहुंच गयी हैं। परिणास्वरूप, भारत पाकिस्तान के बीच चल रही शांति वार्ता थम सी गई है और सत्ताधारी दल अनिश्चिता में फंस गए हैं। इस बिगड़ती स्थिति के लिए विपक्षी पार्टियों ने भी सत्ताधारी दलों, विशेषकर कांग्रेस को निशाने पर लाकर खड़ा कर दिया है।चार वर्ष पूर्व जम्मू-कश्मीर की सरकार ने राज्य में शांति बहाली के लिए गोली की बजाय बोली पर बल देना शुरू किया था। तब केन्द्र की राजग सरकार ने भी इस दिशा में कई कदम उठाए, किन्तु उसका अधिकतर दबाव पाकिस्तान पर सीमा पार से चलाए जा रहे उग्रवाद को समाप्त करने पर रहा। इस दबाव ने असर दिखाया और सीमा पर तनाव कम हुआ, गोलीबारी रुक गई। पाकिस्तान ने युद्धविराम की घोषणा कर दी। दोनों ओर से सेनाओं को अग्रिम ठिकानों से हटा लिया गया। 6 जनवरी, 2004 में पाकिस्तान ने घोषणा कर यह वादा किया कि पाकिस्तान के किसी भी भाग से सीमा पार उग्रवाद चलाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।किन्तु मई, 2004 में केन्द्र में आई कांग्रेसनीत सरकार ने शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और राजनीतिक कारणों से कुछ ऐसे कदम उठाए जिनसे आतंकवादियों और अलगाववादियों का मनोबल बढ़ा तथा हिंसा की घटनाओं में एक बार फिर वृद्धि हुई। विपक्ष इसके लिए पोटा कानून को समाप्त करने, जम्मू-कश्मीर में उग्रवाद से प्रभावित कई क्षेत्रों से सुरक्षा चौकियों को हटाने, दबाव में आकर कई उग्रवादियों को रिहा करने, अलगाववादियों के दबाव में आकर सेना तथा अर्ध सुरक्षाबलों के विरुद्ध कार्रवाई करने, भारत का समर्थन करने वाले पूर्व उग्रवादियों के मनोबल को गिराने सहित कई कारणों को जिम्मेदार मानता है।सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2001 में पोटा के बनने से लेकर अक्तूबर, 2002 अर्थात जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार के गठन तक राज्य में इस कानून के अंतर्गत 416 मामले दर्ज किए गए थे, किन्तु इस नई सरकार ने पोटा को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। परिणामस्वरूप इस कानून के अंतर्गत गिरफ्तार किए गए 214 आरोपियों में से अधिकांश को छोड़ दिया गया। सात व्यक्तियों को संदेह का लाभ देकर मुक्त किया गया और शेष 40 में से अब कुछेक विदेशी जेल में रह रहे हैं, जिनको जनसुरक्षा कानून (पी.एम.ए.) के अंतर्गत रखा गया है।केन्द्र में सरकार के परिवर्तन के पश्चात कई स्थानों से सेना को हटा दिया गया। ऐसे सैनिकों की संख्या 5,000 बताई जाती है, किन्तु जानकारों का कहना है कि इससे कहीं अधिक सुरक्षा बलों को हटाया गया है। जिन क्षेत्रों से सुरक्षा बलों को हटाया गया है उनमें डोडा जिला के अतिरिक्त महोर, बदल, दरहाल आदि में बनाई गई चौकियां शामिल थीं। जिन क्षेत्रों से चौकियां हटाई गईं, उन क्षेत्रों में आतंकवादी घटनाएं बढ़ी हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों के लोग सेना को अधिक सहयोग देते थे।हुर्रियत कांफ्रेंस तथा अन्य तत्वों के दबाव में बड़ी संख्या में उग्रवादियों को यह कहकर छोड़ दिया गया कि उनके विरुद्ध गंभीर आरोप नहीं हैं। इन उग्रवादियों की संख्या 200 से अधिक बताई जाती है। नरम नीतियों के कारण सरकार के अंदर और बाहर काम करने वाले दोहरे चरित्र वाले तत्वों का मनोबल ऊंचा हुआ। सुरक्षाबलों के विरुद्ध मानवाधिकारों के हनन के आरोप लगाने वालों के स्वर में स्वर मिलाने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप सुरक्षाबलों के विरुद्ध मामले दर्ज होने के साथ-साथ छानबीन का क्रम भी शुरू हो गया। पिछले दिनों प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भी श्रीनगर आकर कहा था कि मानवाधिकारों के हनन को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य पर भाजपा ने आपत्ति उठाते हुए इसे अनावश्यक बताया था और कहा था कि ऐसे वक्तव्यों के जरिए सरकार उन्हीं तत्वों की पीठ ठोक रही है जो मानवाधिकारों के नाम पर भारतीय सेना को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं। किन्तु सरकार की इस नरम नीति और पाकिस्तान के साथ मित्रता की प्रक्रिया को शीघ्रता के साथ आगे बढ़ाने के प्रयासों से पहले तो ऐसा लगा कि स्थिति में सुधार हो रहा है। सत्ताधारी नेताओं ने भी दावे शुरू कर दिए कि उनकी नीतियों के कारण शांति तथा खुशहाली का वातावरण पैदा हो रहा है। आतंकवादियों को यह स्थिति कैसे अच्छी लग सकती थी। अत: पिछले कुछ महीनों से आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि हुई है। इस कारण शांति और खुशहाली के दावेदार स्वयं दुविधा में दिखाई देते हैं। उनकी स्थिति को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि सोचा कुछ था हो क्या और गया?29
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