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भारत-अमरीका परमाणु संधि
अमरीकी दबदबा कायम?
टी.वी.आर. शेनाय
लगता है उम्र बढ़ने के साथ मेरा मिजाज कुछ नरम हो चला है- क्योंकि जब भी माकपा के नेता पर्दे पर दिखते हैं तो मेरा सर उनकी सहमति में हामी भरने लगता है। मुझे लगता है कि माक्र्सवादी यह उल्लेख करते समय ठीक ही कह रहे थे कि मनमोहन सरकार ईंधन पर उत्पाद कर में कमी करके हमारा बोझ हल्का कर देगी। और मैं तब भी सहमत था जब माकपा महासचिव प्रकाश कारत ने कहा कि संसद को सभी अंतरराष्ट्रीय संधियों और खासकर भारत-अमरीका परमाणु संधि पर चर्चा करने का अधिकार है।
इसके बारे में सोचें तो यह लोकतंत्र का ऐसा स्वाभाविक पहलू है कि इस पर कोई बहस नहीं हो सकती। आखिर कोई लोकतांत्रिक सरकार देश को एक संधि में तब तक कैसे बांध सकती है जब तक कि लोग-अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के जरिए या सीधे जनमत के जरिए-अपनी बात नहीं कह लेते?
मुझे 1994 का समय याद आता है जब नरसिंह राव सरकार ने भारत को विश्व व्यापार संगठन में हस्ताक्षर के लिए बाध्य कर दिया था। यह अच्छा हुआ या बुरा, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता। मैं कहना चाहता हूं कि विश्व व्यापार संगठन से जुड़ने का अर्थ है कि भारत पर कुछ जिम्मेदारियां आई हैं मगर ना तो उसकी कीमत और ना ही लाभ को खुली बहस के जरिए जनता तक पहुंचाया गया है।
बारह सालों बाद वही धुंधलका छाया हुआ है। यह शर्मनाक है परंतु बुश-मनमोहन परमाणु संधि की बारीकियां जानने का सबसे सही तरीका अमरीकी कांग्रेस जर्नल को पढ़ना ही है। जिस व्यक्ति ने अमरीकी संविधान लिखा था वह सरकारी तंत्र की नस बखूबी जानता था और उसी ने सोच समझ कर कदम-कदम पर जांच पड़ताल का तंत्र बिठाया था। अमरीकी संविधान के अनुच्छेद क्ष्क्ष् की धारा 2.त्त् यह दर्शाती है : “(राष्ट्रपति) के पास सीनेट की सलाह और सहमति से संधियां करने की शक्ति होगी बशर्ते उपस्थित दो तिहाई सीनेटर सहमत हों……”
शक्ति का दुरुपयोग हो सकता है और पहले भी होता रहा है। सबसे चर्चित दौर 1919 में आया था जब अमरीकी सीनेट ने एक षडंत्र के चलते अमरीका को पहले विश्व युद्ध के बाद लीग आफ नेशन्स से जुड़ने की इजाजत नहीं दी थी।
क्या होगा अगर अमरीकी सीनेट भारत के साथ परमाणु संधि पर सहमत हो जाती है- मगर कुछ शर्तें लगा देती है ? क्या भारत कानूनी रूप से मसौदे को स्वीकारने को बाध्य है? अथवा क्या यह बुश-मनमोहन संधि को खत्म करके नए सिरे से बातचीत करेगा। यूपीए सरकार कार्यपालिका के विधायी निरीक्षण के सिद्धांत से इतना परहेज करती है कि रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी ने कथित रूप से वाम मोर्चे को कहा कि सदन में प्रस्ताव लाना तक अविश्वास प्रस्ताव के बराबर होगा। प्रणव मुखर्जी का यह बड़ा अटपटा बयान है। हम यह ना भूलें कि वे लोकसभा में सदन के नेता भी हैं। वे स्वीकार कर रहे हैं कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ऐसा निर्णय लिया है जो संसद की इच्छाओं के विरुद्ध जाता है।
सांसद गुस्सा हैं तो सही ही हैं। मंत्री आते हैं और जाते हैं मगर भारत तो संधियों- केवल बुश के साथ होने वाला समझौता ही नहीं, कोई भी समझौता के परिणामों में बंध जाएगा, भले ही उन पर हस्ताक्षर करने वाले लोग कब के जा चुके हों। एक संधि की सफलता सुनिश्चित करने का सही तरीका है कि एक विदेशी के साथ बातचीत से पहले भारतीय राजनीतिक अधिष्ठान के साथ एक आम सहमति बना ली जाए। प्रकाश कारत सही हैं, हर वो चीज जो भारत की सुरक्षा को प्रभावित कर सकती है, उस पर संसद में विचार होना जरूरी है। अपने ही मन माफिक काम करने वाले कुछ लोगों का निर्णय अंतिम नहीं हो सकता।
एम्स के निदेशक डा. पी. वेणुगोपाल को हटाने की बात पर कितनी बड़ी समस्या खड़ी हुई थी यह हम सब जानते हैं। चुनाव आयोग में नवीन चावला की नियुक्ति को लेकर भी कम शोरगुल नहीं हुआ था। अगर हमने स्वस्थ अमरीकी व्यवहार से कुछ सीखा होता यानी मंत्रियों की मनमानी को संसद की निगरानी में लाए होते तो इस तरह की शर्मनाक स्थितियों से बचा जा सकता था। हर सरकार इस पर अपना कब्जा रखना चाहती है कि लोग क्या जानें, क्या सुनें और क्या देखें। मेरा इशारा केवल भाजपा या कांग्रेसी मंत्रियों की ओर ही नहीं है, दूसरे देशों में भी इस मामले में उतने ही बुरे लोग हैं। मुझे लगता था कि मनमोहन सरकार ने सूचना के अधिकार का कानून लाकर खुद को पारदर्शी बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया है। जैसा कि हम जानते हैं, मुश्किल से एक साल बीता होगा कि यह सरकार कानून के प्रावधानों को हल्का करने के नौकरशाही के दबाव में झुकी जा रही है। उदाहरण के लिए, एक रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन को सूचना उपलब्ध कराने से इनकार करने से लेकर संसद में बहस का रूख मोड़ देने तक, लगता है मनमोहन सरकार गलत दिशा में बढ़ रही है। (28-7-2006)
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