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“भाजपा रोको पार्टी” अब चर्च की शरण में
देवेन्द्र स्वरूप
टाइम्स आफ इंडिया में यह समाचार पढ़कर आनन्द भी हुआ और आश्चर्य भी कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (अर्थात् भाजपा रोको पार्टी) ने अब वनवासी क्षेत्रों में काम करने का निर्णय कर लिया है। आनन्द इसलिए हुआ कि अपने जन्म के 85 साल बाद भारतीय कम्युनिस्टों को वनवासियों के बीच काम करने की आवश्यकता दिखाई तो दी। पर, आश्चर्य का कारण यह था कि वनवासी क्षेत्रों में जाकर काम करने वाले कार्यकर्ता वे कहां से लायेंगे। घृणा, विद्वेष और संघर्ष की विचारधारा पर पले उनके कार्यकर्ता नफरत तो फैला सकते हैं, समाज को विभाजित कर टकराव और हिंसा की स्थिति तो पैदा कर सकते हैं, शहरों के एयरकंडीशन्ड पुस्तकालयों और अखबार के दफ्तरों में बैठकर लफ्फाजी, क्रांतिकारिता की आग तो उगल सकते हैं, कम्युनिस्ट चीन के बजाय पूंजीवादी अमरीका में जाकर सुविधाएं तो बटोर सकते हैं पर क्या वे दूरस्थ जंगलों में निवास करने वाले आधुनिक सभ्यता से अछूते, दरिद्र और निरक्षर वनवासियों के दरवाजे पर अन्त:करण की करुणा भी उड़ेल सकते हैं? उनके जीवन के साथ समरस भी हो सकते हैं? यदि उनके मन में यह करुणा और सेवा का भाव पहले से था तो पिछले 85 साल में उनमें इन क्षेत्रों में जाने की इच्छा क्यों नहीं जागी? अब एकाएक यह इच्छा जागने का कारण क्या हो सकता है? इसकी प्रेरणा कहां है और उनका लक्ष्य क्या हो सकता है?
इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए जब उनके द्वारा प्रकाशित प्रचार सामग्री का अध्ययन प्रारंभ किया तो सब कुछ स्पष्ट हो गया। भाजपा रोको पार्टी (माकपा) परेशान है- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा, राजस्थान और गुजरात में भाजपा की राजनीतिक सफलता से। उसका विश्लेषण है कि इन राज्यों में वनवासियों की बड़ी जनसंख्या है जिसने पूरी तरह से भाजपा को समर्थन दिया। इस समर्थन देने के पीछे संघ-परिवार की वनवासी कल्याण आश्रम, हिन्दू जागरण मंच, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल जैसी संस्थाओं के वनवासियों के बीच लम्बे समय से चले आ रहे जमीनी प्रयास हैं। अत: इन राज्यों में भाजपा को रोकने के लिए इन प्रयासों का विरोध करना आवश्यक है। इस विरोध को ही वे वनवासियों के बीच काम करना कहते हैं। भारत का कम्युनिस्ट मस्तिष्क पूरी तरह नकारात्मक है। वह भावात्मक धरातल पर सोच ही नहीं सकता। उसे जिंदा रहने के लिए सत्ता चाहिए, सत्ता पाने के लिए नकारात्मक प्रचार चाहिए। जो जिस समय और जहां भी उसकी सत्ता प्राप्ति में बाधक है, वही उसका एकमात्र शत्रु है। इसलिए जिन राज्यों में भाजपा और उसके मित्र सत्तारूढ़ हैं, उन्हीं राज्यों के वनवासियों के बीच काम करने की आवश्यकता भाजपा रोको पार्टी (माकपा) अनुभव कर रही है। असम, आन्ध्र प्रदेश, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के वनवासी उनकी चिन्ता का विषय नहीं है क्योंकि वहां भाजपा सत्ता में नहीं है।
वनवासी कल्याणी आश्रम का अद्भुत कार्य
पर, भाजपा रोको पार्टी वनवासियों के बीच काम कैसे करेगी, उसके लिए कार्यकर्ता कहां से लाएगी? इन प्रश्नों का उत्तर बहुत दिलचस्प है। यह सर्वज्ञात है कि भारत के वनवासी क्षेत्रों को चर्च ने लम्बे समय से मतान्तरण की प्रयोगशाला बनाया हुआ है। विदेशी ईसाई मिशनरी सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों के भारत आगमन से लेकर ब्रिटिश शासन काल तक सत्ता और विदेशी धन की सहायता से प्रकृति की गोद में सहज जीवन जीने वाले भोले-भाले वनवासियों की गरीबी और निरक्षरता का लाभ उठाकर उन्हें उनकी परम्परागत आस्थाओं और परम्पराओं से काटकर ईसा मसीह का उपासक बनाने की चेष्टा में लगे हुए हैं। सेवा और शिक्षा उनके लिए मतान्तरण के हथियार हैं और मतान्तरण का अर्थ वनवासियों का अपनी संस्कृति से सम्बन्ध विच्छेद करके विदेशी चर्च-संस्कृति को अपनाना। एक शब्द में कहना हो तो राष्ट्रान्तरण। गांधीजी ईसाई मिशनरियों के इन प्रयासों से बहुत चिन्तित थे। उनकी प्रेरणा से उनके एक शिष्य ठक्कर बापा ने आदिम जाति सेवा संघ की स्थापना की और ठक्कर बापा के कार्य को ही 1952 से वनवासी कल्याण आश्रम ने अपने हाथ में लिया। पहली बार सहस्रों हिन्दू युवक शहरी सुख-सुविधाओं को लात मारकर, अपने “कैरियर” की बलि देकर दूरस्थ घने जंगलों में बसे वनवासी बंधुओं के द्वार पर प्रेम, करुणा और सेवा का गंगाजल लेकर पहुंचे। उनके बीच बसकर उनके सुख-दु:ख के साथ समरस हो गए। उनकी साधना का एकमात्र लक्ष्य है- वनवासी बंधुओं को उनकी जड़ों से जोड़े रखकर उनके विकास की प्रक्रिया को उनके भीतर से विकसित करना। उनकी इस निष्काम साधना में से नया वनवासी नेतृत्व खड़ा हुआ है। सैकड़ों वनवासी युवक अपने समाज के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास के लिए पूरा समय लगा रहे हैं। स्वाभाविक ही, उनकी यह साधना वनवासियों का विदेशीकरण करने वाले चर्च की आंख की किरकिरी बन गई है और चर्च इन प्रयासों के विरोध में शुरू से ही लगा हुआ है। इन वनवासी क्षेत्रों में या तो वनवासी कल्याण आश्रम जैसी राष्ट्रवादी संस्थाओं का संगठनात्मक ताना-बाना है या धर्मान्तरण करने वाले चर्च द्वारा पोषित-नियंत्रित मिशनरी संस्थाओं का। कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं का वहां दूर-दूर तक पता नहीं है।
चर्च की चिंता
अत: भाजपा रोको पार्टी ने वनवासी क्षेत्रों में कार्य करने के लिए इन ईसाई मिशनरी संस्थाओं के साथ गठबंधन करने का निर्णय किया है और अपनी बौद्धिक क्षमता व मीडिया पर प्रभाव को चर्च की सेवा के लिए प्रस्तुत कर दिया है। इस समय चर्च की चिंता का मुख्य विषय है गुजरात के डांग जिले में 10 से 13 फरवरी तक होने वाला विशाल शबरी महाकुंभ, जिसमें देशभर से 5 लाख से अधिक वनवासियों के आने की संभावना है। चर्च ने अभी तक डांग जिले को मतान्तरण की अपनी सुरक्षित प्रयोगशाला मान रखा था, किन्तु 1997 से रामकृष्ण मिशन के एक संन्यासी स्वामी असीमानन्द द्वारा डांग को अपना कार्यक्षेत्र बना लेने से चर्च उन्हें अपने मतान्तरण प्रयासों में बाधा के रूप में देखने लगा है और 1998 से ही चर्च ने विदेशी चर्चों के सहयोग से संघ परिवार के विरुद्ध डांग जिले में ईसाइयों पर हिंसक हमलों का दुष्प्रचार प्रारंभ कर दिया है। अब भाजपा रोको पार्टी उनके साथ खड़ी हो गयी है। यह चर्च-कम्युनिस्ट गठबंधन ही है वनवासी क्षेत्रों में उनके काम करने का रास्ता। माकपा की पालित ब्यूरो ने काम करने का फैसला किया और काम शुरू हो गया।
काम की शुरुआत इंडियन एक्सप्रेस में घुसी माकपा की कार्ड होल्डर पत्रकार मानिनी चटर्जी ने 21 सितम्बर, 2005 को स्वामी असीमानंद से अपनी भेंट वार्ता को प्रकाशित करके किया। स्वामी असीमानंद के मुंह से कहलवाया गया कि शबरी महाकुंभ का लक्ष्य “इस्लामी जेहाद और ईसाई मतान्तरण को रोकना है।” अब सब कम्युनिस्ट मीडियाकर्मी जेहादी एवं मतान्तरणवादी चर्च की वकालत में जुट गए। अगले कदम के रूप में विदेशी धन से पोषित अनेक वामपंथी, ईसाई व मुस्लिम एन.जी.ओ. व मानवाधिकारी संस्थाओं को बटोरकर माकपा की संस्था अनहद ने दो दल 10 से 21 दिसम्बर, 2005 तक डांग जिले का दौरा करने भेजे, जिन्होंने वहां के मिशनरी तंत्र की सहायता से 17 पृष्ठ की एक लम्बी रपट प्रकाशित की। इस रपट में प्रस्तुत किए गए तथ्यों और तर्कों को आधार बनाकर ही कम्युनिस्ट और मिशनरी तंत्र मीडिया के माध्यम से प्रचार में जुट गया है। 16 जनवरी, 2006 को अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून में संभवत: इंडियन एक्सप्रेस से निकाले गये कैथोलिक पत्रकार ए.जे. फिलिप्स के सह सम्पादक होने के कारण किन्हीं सतीश मिश्र का लेख छपा, जो अक्षरश: अनहद द्वारा प्रसारित रपट पर आधारित है। यहां तक कि कैथोलिक साप्ताहिक “इंडियन करेन्ट्स” के 22 जनवरी के अंक में प्रकाशित आल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल की ओर से गुजरात के राज्यपाल पद पर आसीन कांग्रेसी नवल किशोर शर्मा को दिए गए प्रतिवेदन की भाषा भी इस रपट में से ही ली गयी है।
कम्युनिस्ट-चर्च गठबंधन का ही परिणाम है कि अब दिल्ली स्थित रोमन कैथोलिक बौद्धिक संस्थान इंडियन सोशल इंस्टीटूट में माकपाई संस्था अनहद मुस्लिम, चर्च कम्युनिस्ट गठबंधन की आधार भूमि तैयार कर रही है। इस प्रयास के अन्तर्गत 14 जनवरी, 2006 को अनहद की पहल पर इंडियन सोशल इंस्टीटूट और एक्शन एड इंडिया के सहयोग से संप्रग सरकार द्वारा नियुक्त राजेन्द्र सच्चर कमेटी की सहायता के लिए कुछ एन.जी.ओ. एवं मानवाधिकार संस्थाओं के प्रतिनिधियों का पूरे दिन का आयोजन हुआ जिसका विषय था- “मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक स्थिति”। इस विषय पर अनहद, एक्शन एड एवं इण्डियन सोशल इंस्टीट्यूट के अलावा अमन-सद्भावना अभियान (बिहार), अमन समुदाय (गुजरात), अल-फजली (गुजरात), परचम (सहारनपुर, उ.प्र.), मंगल ज्योति (बांदा, उ.प्र.) पीपुल्स रिसर्च सोसायटी (भोपाल), नेशनल मुस्लिम वेलफेयर सोसायटी (जयपुर), प्रयास (हैदराबाद) आदि के प्रतिनिधि एकत्र हुए। पुन: अनहद के निमंत्रण पर 26, 27 जनवरी, 2006 को इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी “कन्सल्टेशन” नाम से आयोजित की गयी, जिसका विषय था, “सम्प्रदायवाद का आदिवासी, दलित, शैक्षणिक संस्थाओं, सांस्कृतिक क्षेत्र, पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका, मीडिया, स्वयंसेवी क्षेत्र, महिलाओं राजनैतिक दलों और ट्रेड यूनियनों, मध्यमवर्ग पर बढ़ता प्रभाव और हमारी भावी रणनीति”। इस “कन्सल्टेशन” का निमंत्रण पत्र पहली पंक्ति से आखिर तक संघ-परिवार पर केन्द्रित है। कितनी रोचक स्थिति है कि धार्मिक विश्वासों का विरोध करने वाला कम्युनिस्ट मस्तिष्क अपनी नकारात्मक राजनीतिक सोच के कारण भारत में मुस्लिम एवं ईसाई कट्टरवाद की शरण में चला गया है और जेहाद व मतान्तरण की वकालत कर रहा है। इसी नकारात्मक सोच का प्रमाण है कि उड़ीसा के कलिंगनगर में चर्च-कम्युनिस्ट-कांग्रेस गठबंधन द्वारा भड़काये गए उग्र प्रदर्शन पर पुलिस गोली वर्षा से कुछ वनवासियों की मृत्यु की दुर्भाग्यपूर्ण घटना का राजनीतिक दोहन करने के लिए माकपा की बंगाल शाखा ने कोलकाता में एक रैली का आयोजन किया और माकपा की उड़ीसा इकाई को 50,000 रुपए का चेक भेंट किया (पीपुल्स डेमोक्रेसी, 22 जनवरी, 2006) यह है कम्युनिस्टों की वनवासियों में काम करने की रणनीति। अब जरा डांग जिले में होने वाली शबरी कुंभ मेले पर चर्च कम्युनिस्ट गठबंधन द्वारा प्रस्तुत लम्बी रपट का विहंगावलोकन करें। रपट का शीर्षक है “डांग में आदिवासी (ट्राईबल) के हिन्दूकरण (धर्मान्तरण) की अनकही कहानी”। और यह कहानी गढ़ने वाली नागरिक जांच समिति के दस सदस्यों के नाम हैं –
(1) इरफान इंजीनियर (निदेशक, सेन्टर फार स्टडी आफ सोसायटी एण्ड सेकुलरिज्म, मुम्बई) (2) सुरेश खैरनार (संयोजक, धर्मनिरपेक्ष नागरिक मंच-नागपुर) 3. शबनम हाशमी (संयोजक, अनहद, दिल्ली), (4) राम पुनियानी (आल इंडिया सेकुलर फोरम), इन्हीं राम पुनियानी का लेख स्वामी रामदेव के विरुद्ध वृंदा कारत की वकालत में इंडियन करेन्ट्स (22 जनवरी, 2006) में छपा है। (5-6) उत्तम भाई परमार और रोहित प्रजापति (पी.यू.सी.एल.-वडोदरा) एवं हर्ष मन्दर (अनहद)। नामों की यह सूची इसलिए देना आवश्यक लगा कि किस प्रकार भ्रामक नाम वाली कागजी संस्थाओं के माध्यम से कम्युनिस्ट लोग काम कर रहे हैं और अपनी कलम का भारत में चर्च-मुल्ला-कम्युनिस्ट गठबंधन बनाने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
अन्तविर्रोधी दुष्प्रचार
यह रपट अन्तर्विरोधों से भरी हुई है। रपट स्वीकार करती है कि चर्च के मिशनरी डांग जिले में पिछले सौ साल (सन् 1885) से काम कर रहे हैं। निश्चित ही उनका प्रवेश वहां ब्रिटिश छत्रछाया में हुआ होगा। क्योंकि डांग के स्वतंत्र चेता वनवासी राजाओं और नायकों ने 1820 से 1862 तक डांग पर ब्रिटिश शासन की स्थापना का प्रतिरोध किया। पर 1870 में अंग्रेजों ने जंगल कानून बनाकर डांग के जंगलों पर कब्जा कर लिया और उनकी कटाई शुरू कर दी। यह सर्वज्ञात है कि ब्रिटिश सरकार ने चर्च और मिशनरियों का इस्तेमाल अपने साम्राज्यवादी एजेन्टों के रूप में किया। रपट यह भी स्वीकार करती है कि डांग के जिला गजेटियर में जिसका लेखन ब्रिटिश काल से हुआ, डांग के वनवासियों का धर्म “एनीमिज्म” है जिस पर हिन्दू देवताओं का प्रभाव है, वहां शिव की पूजा होती है। उस जिला गजेटियर में राम और शबरी की कथा के प्रचलन का भी उल्लेख है। यह स्वीकार करके भी रपट कहती है कि शबरी वहां की रहने वाली थी ही नहीं। शबरी का नाम वहां के लोगों ने सिर्फ 5-7 साल से सुना है। शबरी महाकुंभ की कल्पना सबसे पहले सन्त मोरारी बापू ने वहां के दौरे में प्रस्तुत की। चमक डोंगरी पहाड़ी पर शबरी का मंदिर अभी हाल में बनाया गया है। पम्पा सरोवर नामक झील भी हाल की रचना है। अपने राजनैतिक उद्देश्यों के लिए झूठा इतिहास गढ़ना कम्युनिस्टों का स्वभाव बन गया है। हमें याद है कि किस प्रकार कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने राम जन्मभूमि आन्दोलन के विरुद्ध मुस्लिम कट्टरवाद के समर्थन में राम और अयोध्या को मिथक सिद्ध करने में अपनी पूरी तर्कशक्ति लगा दी थी।
अब यहां वे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा आरोपित आर्य आक्रमण सिद्धान्त, वनवासियों के लिए आदिवासी शब्द प्रयोग की वकालत कर रहे हैं। उनकी दृष्टि में “आदिवासी” के स्थान पर “वनवासी” शब्द का प्रयोग उनका हिन्दूकरण है। शबरी महाकुंभ के विरोध में चर्च व जेहादियों का समर्थन पाने के लिए वे शबरी मंदिर के निकट किसी हिन्दी पोस्टर का बार-बार उल्लेख करते हैं। उस पोस्टर में लिखा है, “हमारा संकल्प-जेहाद और मतान्तरण का पूरा विश्व से निर्मूलन” पूरी दुनिया इस संकल्प के साथ है। दुनियाभर में ईसाई-विश्व जेहाद के खतरे से जूझ रहा है। पर भारत के कम्युनिस्ट भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध अपनी राजनीतिक लड़ाई के लिए इन दोनों विस्तारवादी संघर्षरत शक्तियों का भारत में गठबंधन तैयार करने में लगे हैं। उनका एक ही अलाप है कि स्वामी असीमानंद ने डांग जिले में आकर “हिन्दू जागे, ख्रिस्ती भागे” का नारा दिया। 1998 में ईसाई चर्चों पर 38 हमले हुए। तभी कई मानवाधिकार संगठन व मुम्बई की तीस्ता-जावेद का कम्युनलिज्म कोम्बेट सक्रिय हुए। उन्हें शिकायत है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मतान्तरण पर राष्ट्रीय बहस का आह्वान किया। संभवत: इन अज्ञानियों को पता नहीं कि मतान्तरण पर राष्ट्रीय बहस तो गांधी जी ने प्रारंभ की थी और 1954 में मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार द्वारा प्रकाशित नियोगी कमीशन रपट में मतान्तरण के अनैतिक तरीकों व दुष्परिणामों के ठोस तथ्य प्रस्तुत किए गए थे।
घृणा, विद्वेष और हिंसक संघर्ष का जहर फैलाने में लगा कम्युनिस्ट मस्तिष्क यह समझ नहीं पा रहा है कि 18 जनवरी, 2002 को म.प्र. के झाबुआ में विशाल हिन्दू महासंगम में ढाई लाख वनवासी क्यों एकत्र हुए? वे कैसे समझें कि उस महासंगम के पूर्व वनवासी कल्याण आश्रम के जो 300 पूर्णकालिक कार्यकर्ता 100 दिन तक झाबुआ जिले के गांव-गांव में फैल गये, उनकी प्रेरणा क्या थी? उनके लिए तो यह अजूबा ही है कि संघ के 4000 कार्यकर्ता वनवासी परिवारों के घरों में ठहरे, उनके जैसा खाया, उनके जीवन में घुलमिल गये। रपट कहती है कि फरवरी, 2004 में मध्य प्रदेश के अली राजपुर में आयोजित हिन्दू संगम में 40,000 वनवासी एकत्र आये, इसी प्रकार राजस्थान के बांसवाड़ा क्षेत्र में 2005 के दिसम्बर मास में विशाल वनवासी सम्मेलन हुआ। सत्ता प्राप्ति के षडंत्र को ही राजनीति और क्रांति समझने वाला कम्युनिस्ट मस्तिष्क यदि अपने दिमाग को घृणा, विद्वेष और हिंसा की विदेशी विचारधारा से मुक्त करके भारत की मिट्टी से जोड़ सके तभी वह संघ-परिवार की रचनात्मक साधना और वनवासी समाज में हो रहे जागरण को ठीक से समझ सकेगा। पर चर्च की गोद में बैठकर कम्युनिस्ट वनवासियों की मूल संस्कृति की रक्षा करेंगे या उनके अभारतीयकरण में सहायक होंगे?
(27 जनवरी, 2006)
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