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जागा, जागा रे जागा जनजातीय समाज

by
May 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2006 00:00:00

सच्चे भारत का शबरी कुम्भ

11-13 फरवरी को होगा अद्भुत समागम

महाराष्ट्र एवं गुजरात राज्य के सीमावर्ती क्षेत्र में नासिक से लगभग 140 कि.मी. दूर स्थित जिला है डांग। गुजरात के वलसाड, नवसारी, सूरत आदि जिलों तथा महाराष्ट्र के नासिक, नंदुरबार, धुले आदि जिलों से सटा यह क्षेत्र अपनी पर्वतीय उपत्यकाओं, हरे-भरे आच्छादित वनों के कारण अत्यन्त मनोरम है। प्राचीन काल में डांग को ही दण्डकारण्य या दण्डक वन के रूप में जाना जाता था। महÐष वाल्मीकि ने रामायण में पंचवटी (नासिक) के दक्षिण-पश्चिम में ही दंडकारण्य की स्थिति बताई थी, वही दंडकारण्य अब डांग के रूप में प्रसिद्ध है। डांग के जिला केन्द्र आह्वा में आज भी दंडकेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर स्थित है, जो इस स्थान की पौराणिकता को प्रमाणित करता है। लोक मान्यता है कि अपने वनवास के दौरान इसी दण्डकारण्य में वसंत पंचमी (माघ शुक्ल, पंचमी) के दिन प्रभु श्रीराम माता शबरी की कुटिया में पधारे थे। यह स्थान सुबीर गांव के पास माना जाता है। इसके पास ही पूर्णा नदी (पुष्करिणी) भी बहती है। वसंत पंचमी को आज भी गांव-गांव से राम-लक्ष्मण यात्रा शबरी धाम पहुंचती है। लोग उत्सव मनाते हैं। प्रतिवर्ष शरद पूर्णिमा के दिन भी शबरी धाम में विशाल मेले का आयोजन होता है। ऐसा भी कहा जाता है कि इसी दिन माता शबरी का जन्म भी हुआ था।

जैसे रामायण काल में दंडक वन पर अत्याचारी राक्षसी शक्तियों का कब्जा हो गया था और प्रभु राम ने उससे मुक्ति दिलाई थी, ठीक वैसे ही गत दो दशकों में भयानक मतांतरण के कुचक्र ने इस दंडक वन (डांग) का जनसंख्यात्मक चरित्र ही बदल कर रख दिया है। आज यह दंडक वन मानो मतान्तरण का केन्द्र बन गया है। जिनका भारतीय जनजातीय समाज से कभी कोई सरोकार नहीं रहा, वह ईसाई मिशनरी अचानक डांग के जंगलों में भयानक चहल कदमी करने लगे हैं। डांग ही क्यों, राम वनगमन मार्ग पर चित्रकूट से लेकर रामेश्वरम् तक सारा वनवासी भारत ही आज चर्च के निशाने पर है।

देश के संतों, महात्माओं, विचारकों का इस गंभीर समस्या पर ध्यान गया। लगभग 3 वर्ष पूर्व की बात है। जैसे कभी भगवान राम दंडक वन में पधारे थे, वैसे ही राम भक्त, प्रख्यात कथावाचक मोरारी बापू चल पड़े दंडक वन में राम कथा का गुंजार करने। अक्तूबर, 2003 में वह शरद पूर्णिमा का दिन था। उस दिन भावुक थे मोरारी बापू, कथा कहते-कहते मानो उन्हें प्रभु श्रीराम का संदेश मिला और फिर क्या था? फूट पड़ी उनके मुंह से वाणी…”कुंभ… शबरी कुंभ होगा अब यहां। अब हमारे वनवासी, गिरिवासी, अरण्यवासी ये जनजातीय बंधु कहीं और नहीं जाएंगे, शबरी माता की पूजा होगी दंडकारण्य (डांग) की धरती पर।” और फिर बन गई योजना कि सन् 2006 में फरवरी की 11,12 व 13 तारीख को, जिस पंपा सरोवर के तट पर गुरु मातंग अपने शिष्यों के साथ स्नान करते थे, जिस पंपा सरोवर के तट पर प्रभु श्रीराम ने अपने स्वर्गीय पिता दशरथ को जलांजलि दी थी, उसी तट पर लाखों वनवासी जुटेंगे, डुबकी लगाएंगे, अपनी महान परम्पराओं का अवगाहन करेंगे, अपनी वन्य और गिरि संस्कृति की रक्षा का संकल्प लेंगे अपने लौकिक जीवन की सुख-समृद्धि के लिए, अपनी खेती-बाड़ी, अपने जल, जन, जंगल, जमीन, जानवर की देखभाल के लिए उपायों-योजनाओं पर चिंतन-मनन-विमर्श करेंगे। एक ओर शबरी कुंभ में जहां पवित्र स्नान-ध्यान, पूजन, भजन-सत्संग और धर्म सभा में लाखों जनजातीय बंधु भाग लेकर देश की सांस्कृतिक एकता और राष्ट्रीय एकात्मता का महान स्वर और बुलंद करेंगे, वहीं उन्हें आर्थिक स्वावलंबन की योजनाओं जैसे बायो-डीजल के लिए चर्चित पौधे जट्रोफा की खेती, विभिन्न स्वरोजगार के उपायों, खेती-बाड़ी की उन्नत तकनीकी आदि से भी परिचित कराया जाएगा।

राकेश उपाध्याय

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