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संविधान या नियम-कायदों की चिंता किसे है
– सुभाष कश्यप
वरिष्ठ संविधानविद् एवं लोकसभा के पूर्व महासचिव
बिहार विधानसभा को भंग किए जाने के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने जो निर्णय दिया है उसे मैं चार विभिन्न कोणों से देखता हूं। पहला, राज्यपाल ने एक रपट भेजी, अपने हिसाब से स्थिति का आकलन कर एक सिफारिश की। दूसरा, केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने उस पर विचार किया और निर्णय किया। अर्थात् राज्यपाल ने केवल सिफारिश की थी, निर्णय नहीं। न ही निर्णय करने का अधिकार उनके पास था। केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने ही निर्णय लेकर आधी रात को ही वह राष्ट्रपति के पास भेजा। और आधी रात में ही, देश से बाहर होते हुए भी, राष्ट्रपति जी ने उस निर्णय पर हस्ताक्षर किए। अर्थात् तीन संस्थान दोषी हो चुके थे, राज्यपाल, केन्द्रीय मंत्रिमण्डल और राष्ट्रपति। इसके बाद मामला गया न्यायालय में, तब सर्वोच्च न्यायालय ने अक्तूबर में अपने अंतरिम निर्णय में कहा कि बिहार विधानसभा को भंग करने का आदेश असंवैधानिक था। पर “असंवैधानिक” कहने के बावजूद नई विधानसभा के लिए चुनाव होने दिए गए। अगर वह असंवैधानिक था तो उस स्थिति को भी बदला जाना चाहिए था जो इस निर्णय के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई थी। पर इस मामले में तो ऐसा हुआ कि न्यायालय कहे कि यह तो साबित हो गया कि तुम्हारे पास से बरामद माल चोरी का है, तुमने इसे चुराया है, लेकिन अब तुम इसे रख सकते हो। इस दृष्टि से इस मामले में न्यायालय की भी कहीं न कहीं खामी है। जब सर्वोच्च न्यायालय को उसी समय लगा था कि बिहार विधानसभा का विघटन असंवैधानिक था तो उस विघटित विधानसभा को ही पुनर्गठित किया जाना चाहिए था। हां, राजनीतिक दृष्टि से अगर आकलन करें तो कह सकते हैं कि नए चुनाव होने से नीतीश कुमार को लाभ हुआ।
इस दृष्टि से बिहार के मामले में राज्यपाल पहले दोषी हैं, सबसे अधिक दोषी है केन्द्रीय मंत्रिमंडल, जिसने उनकी रपट और सिफारिश पर आंख मूंदकर निर्णय किया। उसके बाद राष्ट्रपति को भी सोच-विचार करना चाहिए था, आखिर आधी रात में हस्ताक्षर करने की क्या जल्दबाजी थी? और सर्वोच्च न्यायालय के अंतरिम निर्णय और अब इस अंतिम निर्णय से भी मैं सहमत नहीं हूं। इस अंतिम निर्णय में न्यायालय ने राज्यपाल को ही अधिक दोषी ठहराया, कहा गया कि राज्यपाल ने गुमराह किया। जबकि केन्द्रीय मंत्रिमंडल, जो गुमराह हुआ और जिसने विधानसभा भंग करने का निर्णय किया, उसे सस्ते में छोड़ दिया गया।
जहां तक संवैधानिक और गैरसंवैधानिक कामों तथा संविधान की रक्षा का प्रश्न है तो इस संविधान की रक्षा देश की जनता ही कर सकती है, और कोई नहीं जब देश की जनता जागरुक होकर लोकतंत्र के लिए आवश्यक व सक्रिय भागीदारी करेगी, स्वयं को देश का मालिक समझेगी, किसी भी दल को मनमानी नहीं करने देगी, तभी ऐसी स्थिति पैदा होगी कि संविधान सुरक्षित रह पाएगा और कोई असंवैधानिक काम नहीं करेगा।
जहां तक निर्णय आने के बाद भी बूटा सिंह के अड़े रहने, परेड की सलामी लेने तक इस्तीफा न देने का सवाल है, तो मेरा मानना है कि इस पूरे प्रकरण में अपराधी केवल बूटा सिंह को नहीं ठहराया जा सकता। यह भी हो सकता है कि बूटा सिंह ने वही किया जो उनसे करने को कहा गया था। यह भी संभव है कि उनकी जिस रपट पर कार्रवाई की गई वह भी दिल्ली में ही बनी हो। ऐसा पहले भी कई बार हुआ है जब किसी राज्यपाल की रपट दिल्ली में बनी, फिर उसे राज्यपाल के पास हस्ताक्षर के लिए भेजा गया और फिर वापस आने पर मंत्रिमण्डल ने उस पर निर्णय किया। संभव है कि बिहार मामले में भी ऐसा ही हुआ हो इसीलिए बूटा सिंह अपने आपको मजबूत स्थिति में पा रहे थे। और फिर आजकल केन्द्र सरकार ऐसे लोगों को ही राज्यपाल बनाती है जो उस प्रदेश में उनके पार्टी के हितों का ध्यान रखे। कांग्रेस ने बूटा सिंह को इसलिए तो राज्यपाल नहीं बनाया था कि वे आसानी से नीतीश कुमार की सरकार बनने देते।
(वार्ताधारित)
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