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जहां विचार नहीं, वहां कार्य नहीं। अत: मस्तिष्क को उच्च विचारों से, उच्च आदर्शों से भर दो। उन्हें दिन-रात अपने सामने रखो और तब उसमें से महान कार्य निष्पन्न होगा।
– विवेकानन्द (उत्तिष्ठत जाग्रत, पृ. 127)
अमरीकी दादागिरी
ईरान के परमाणु कार्यक्रम के सम्बंध में भारत क्या रुख अपनाए, यह भारत के नीतिकारों को एक संप्रभु राष्ट्र की आवश्यकताओं और हितों को ध्यान में रखकर तय करना है। लेकिन भारत में अमरीका के राजदूत डेविड मलफोर्ड की इस सम्बंध में बयानबाजी और भारत को “सलाह” देने की हरकत किसी दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती है। पी.टी.आई. को दिए एक साक्षात्कार में डेविड मलफोर्ड ने भारत को चेतावनी भरे शब्दों में कहा कि अगर वह 2 फरवरी को आई.ए.ई.ए. बैठक में ईरान के परमाणु कार्यक्रम के विरुद्ध मत नहीं देगा तो भारत-अमरीका परमाणु संधि पर उसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है। यानी यह एक प्रकार का दादागिरी भरा लहजा ही है कि या तो आप अमरीका के पक्ष की बात करें या फिर खामियाजा भुगतें। हालांकि भारत के सत्ता अधिष्ठान में यह मामला गरमाते देख और भारतीय विदेश विभाग का कड़ा रुख देखकर मलफोर्ड ने कह दिया कि उनके शब्दों को सही रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया था। जबकि सच्चाई यह है कि उनके रिकार्ड किए गए साक्षात्कार से साफ झलकता है कि मलफोर्ड दरअसल एक राजदूत की मेजबान देश के प्रति मर्यादा को भूलकर लगभग धमकी भरी भाषा बोल रहे थे। हालांकि भारत के विदेश विभाग ने इस पर प्रतिक्रिया तो की और मलफोर्ड को विदेश सचिव श्याम शरण ने तलब करके कहा कि उनके शब्द किसी प्रकार उचित नहीं कहे जा सकते और इस तरह की बातें दोनों देशों के बीच रिश्ते गहरे करने में बाधा खड़ी कर सकती हैं। लेकिन विश्लेषकों ने इसे देर से की गई प्रतिक्रिया कहा है और यह भी कहा है कि भारत की ओर से इस पर और त्वरित तथा और तीखी प्रतिक्रिया की जानी चाहिए थी।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मलफोर्ड के इस बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम के विरुद्ध मत न देने पर भारत के साथ परमाणु संधि समाप्त कर देने की अमरीकी राजदूत की धमकी राजनयिक मानदण्डों का खुला उल्लंघन है। उनका यह बयान उकसाने वाला है। अगर यह उनकी व्यक्तिगत राय है तो राजदूतों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे मेजबान देश के विरुद्ध इस तरह की अपमानजनक टिप्पणी करें। श्री वाजपेयी ने भारत सरकार के विदेश विभाग की प्रतिक्रिया के बारे में कड़े शब्दों में कहा कि विदेश मंत्रालय ने बहुत सामान्य प्रतिक्रिया की है जिससे संप्रभु एवं स्वतंत्र भारत के नागरिकों का रोष नहीं झलकता। इस प्रकरण पर भारत में दिखी रोषपूर्ण प्रतिक्रिया को भांपते हुए अमरीकी विदेश विभाग ने मलफोर्ड के बयान को उनकी व्यक्तिगत राय बताकर उससे दूरी दर्शायी है।
मलफोर्ड ने अपने बयान में यह भी कहा था कि मार्च 2006 में अमरीकी राष्ट्रपति बुश की संभावित भारत यात्रा से पूर्व भारत नागरिक और सैन्य परमाणु कार्यक्रमों का स्पष्ट खाका तैयार रखे अन्यथा दोनों देशों के बीच तय हुई परमाणु संधि पर इसका उलटा असर पड़ेगा। इस मामले पर वामपंथियों ने भारत सरकार से मांग की है कि परमाणु संधि के प्रस्तावों को सार्वजनिक किया जाए ताकि सबको पता चले कि अमरीका -भारत के बीच सम्पन्न परमाणु सहयोग संधि में आखिर है क्या। मलफोर्ड ने भले इस बयान पर उपजी तीखी प्रतिक्रिया के बाद इस पर गंभीर अफसोस जताते हुए कदम वापस खींचे हों, लेकिन इस सबसे अमरीकी दिमाग की सोच कुछ हद तक साफ हो जाती है। भारत सरकार अब इस दुविधा में है कि वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम के सम्बंध में क्या रुख अपनाए।
सच में संप्रग सरकार के अब तक के कार्यकाल में ऐसे एक नहीं अनेक अवसर आए हैं जब यह प्रश्न खड़ा हुआ है कि इस देश में सरकार नाम की कोई चीज है भी या नहीं?
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