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पाठकीय

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May 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2006 00:00:00

अंक-सन्दर्भ, 1 जनवरी, 2006

कश्मीर नहीं बंटने देंगे

पञ्चांग

संवत् 2062 वि., वार ई. सन् 2006

माघ शुक्ल 8 रवि 5 फरवरी, 06

,, ,, 9 सोम 6 ,,

,, ,, 10 मंगल 7 ,,

,, ,, 11 बुध 8 ,,

,, ,, 12 गुरु 9 ,,

,, ,, 13 शुक्र 10 ,,

(प्रदोष व्रत)

,, ,, 14 शनि 11 ,,

आवरण कथा के अन्तर्गत प्रकाशित श्री तरुण विजय के लेख “कश्मीर हाथ से निकल रहा है” ने विचलित कर दिया। प्रत्येक राष्ट्रभक्त की इच्छा यही है कि कश्मीर हमारे हाथ से किसी भी सूरत में न निकले। पर क्या हम जैसों की राष्ट्रीय इच्छाएं पूरी होंगी? हम तो यही देख रहे हैं कि सेकुलर राजनीति ने देश में अल्पसंख्यकवाद को जिस खतरनाक ढंग से बढ़ावा दिया है उसके अनेक दुष्परिणाम सामने आए हैं और कश्मीर उसका ज्वलंत उदाहरण है। क्या हम सब इन दुष्परिणामों को यूं ही देखने के लिए मजबूर हैं? या फिर इनको रोकने के लिए हमारे समाज के पास कोई प्रभावी रणनीति है? आज भले ही कोई रणनीति या एकजुटता न दिख रही हो पर इसमें दो राय नहीं कि हिन्दू समाज के सामने उपस्थित इन चुनौतियों का सामना उसकी तेजस्विता और संगठित शक्ति से ही होगा।

– राम हरि शर्मा

2 ए, गुरु तेग बहादुर नगर (दिल्ली)

यह पढ़कर व्याकुल हो गई हूं कि हमारे देश का मुकुट मणि कश्मीर हाथ से निकल रहा है। कल तक पाकिस्तान भी हमारे देश का हिस्सा था, ऐसे ही हम कहीं यह कहने को विवश न हो जाएं कि कश्मीर भी कभी हमारे देश का हिस्सा था। अगर हम इसी तरह ढिलाई बरतते रहेंगे, अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगे रहेंगे तो हम थोड़े-थोड़े समयान्तराल में कुछ न कुछ अपनी धरती माता का हिस्सा खोते जाएंगे। उधर हमारे नेता भी निज स्वार्थ में सही-गलत की पहचान करना भूल गए हैं। हमें अभी भी चेत जाना चाहिए।

– कु. मनीषा श्रीवास्तव

117/क्यू./35, एल.आई.सी. हाउसिंग सोसाइटी,

शारदा नगर, कानपुर (उ.प्र.)

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कश्मीर तो हमारे हाथ से निकल ही चुका है। बस कहने को ही कश्मीर भारत का अंग है, लेकिन 14 अगस्त को वहां पर पाकिस्तानी झण्डे फहराकर वहां की आजादी का जश्न मनाया जाता है। अधिकांश हिन्दू वहां से पलायन कर ही चुके हैं। अब पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को अपने देश में मिलाने के बजाय हम अपने कश्मीर को ही एक तरह से छोड़ रहे हैं। वहां अमरीकी हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। उसकी निगाहें कश्मीर पर टिकी हैं। भारतवासियों को सचेत हो जाना चाहिए और कश्मीर पर किसी भी अराष्ट्रीय पहल का विरोध करना चाहिए।

– वीरेन्द्र सिंह जरयाल

5809, सुभाष मोहल्ला, गांधी नगर (दिल्ली)

कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। यह हमारा अधिकार ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक सच्चाई भी है। कश्मीर समस्या नेहरू खानदान तथा सेकुलर बुद्धिजीवियों की देन है। ये सेकुलर और कट्टरपंथी अभी भी देश-विरोधी षडंत्र में ही लगे हैं। पर हम कश्मीर पर इनके किसी षडंत्र को सफल नहीं होने देंगे।

– रश्मि सावंत

अंधेरी पूर्व, मुम्बई (महाराष्ट्र)

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद केन्द्र में कितनी ही गैरकांग्रेसी सरकारें आईं और गईं, लेकिन किसी ने भी कश्मीर समस्या पर विशेष रुचि नहीं दिखाई। आखिर हम कश्मीर को अपना अंग भी तो कैसे मानें? कांग्रेस से तो खैर अपेक्षा ही नहीं थी। क्योंकि आम नागरिक तो दूर, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी वहां एक गज जमीन नहीं खरीद सकते। पर वर्तमान समय में हमारे राजनेताओं के पास अवसरवादिता के अलावा कोई और ग्रंथ है ही नहीं, जिसे पढ़कर वे कश्मीर के बारे में सोचेंगे।

– खुशाल सिंह माहौर

फतेहपुर सीकरी, आगरा (उ.प्र.)

लुभाने का प्रयास

मंथन के अन्तर्गत श्री देवेन्द्र स्वरूप का आलेख “पाकिस्तानी सेना में पहला सिख” पढ़ा। पाकिस्तान में नामशेष को बचे सिखों में से एक को सेना में लिया जाना केवल भारतीय सिखों को लुभाने का प्रयास मात्र है। जिहादी आतंकवाद से हिन्दू धर्म की रक्षार्थ ही सिख पंथ (खालसा) की स्थापना हुई थी। सिखों को इस बात का सदैव स्मरण रखना चाहिए तथा पाकिस्तान के कुटिल षडंत्र में नहीं फंसना चाहिए।

– मोहित कुमार मंगलम्

कुशी, कांटी, मुजफ्फरपुर (बिहार)

प्रेरणादायिनी नरिन्दर कौर

राजीव कुमार की रपट “धर्म के लिए जंग लड़ूंगी” पढ़ी। महाराजा रणजीत सिंह की वंश परम्परा की बहू नरिन्दर कौर ने ईसाई मत अपनाने वाले अपने पति का त्याग कर और मतान्तरण के खिलाफ जंग लड़ने की घोषणा करके अपने आपको धर्मवीरों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। सम्पूर्ण देश को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।

– आनन्द कुमार भारतीय

होम्योपैथिक मेडिकल कालेज, मोतिहारी (बिहार)

अंक-सन्दर्भ, 8 जनवरी, 2006

तुष्टीकरण का दंश

बंगलौर में वैज्ञानिकों पर हुए आतंकवादी हमले से सम्बंधित विचार पढ़े। कहने की आवश्यकता नहीं कि वामपंथियों और दागी सांसदों की बैसाखी पर टिकी केन्द्र की संप्रग सरकार आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों को स्वीकार करने में बिल्कुल असफल रही है। वर्तमान संप्रग सरकार की दब्बू नीतियों के चलते आतंकवाद का सामना नहीं किया जा सकता। वस्तुस्थिति जो भी हो, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आंतरिक सुरक्षा का दुरुस्त होना उस समय तक सम्भव नहीं, जब तक कि कथित सेकुलर खेमा अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की होड़ में लगा रहेगा।

– रमेश चन्द्र गुप्ता

नेहरू नगर, गाजियाबाद (उ.प्र.)

स्वाहा की व्याख्या

गवाक्ष स्तम्भ के अन्तर्गत श्री शिवओम अम्बर ने “स्वाहा” शब्द की व्याख्या का प्रयास किया है। यास्क निरुक्त 8/20 में “स्वाहा” शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है- 1. सुआहेति वा 2. स्वावागाहेति वा 3. स्वम्आहेति वा 4. स्वाहुतं हर्वि जुहोतीति वा। इन वचनों का क्रमश: भाषान्तर इस प्रकार है: 1. सबसे सदा अच्छा, कोमल, मधुर, कल्याणकारी और प्रिय बोलना चाहिए। 2. जैसा मन में वैसा वाणी से अर्थात् सत्य बोलना चाहिए। 3. अपने पदार्थ को ही अपना कहना चाहिए दूसरे की वस्तु का स्वयं स्वामी नहीं बनना चाहिए। 4. अच्छी प्रकार सामग्री से सदा हवन करना चाहिए।

– डा. सुरेन्द्र सिंह यादव

सी-134, ग्रेटर कैलाश-1 (नई दिल्ली)

इनकी वैचारिक सीमा

डा. कमल किशोर गोयनका ने अपने लेख “धिक्कार है ऐसी विद्वता पर” में लेखिका मृदुला गर्ग के कुविचार “अक्षरधाम की जगह शौचालय बनाए जाते तो ज्यादा अच्छा रहता” को बड़ा ही प्रभावी ढंग से उठाया है। मृदुला जी की सोच की सीमा किसी मंदिर के कलश की ऊंचाइयों को छू पाने में असमर्थ थी। इसलिए उन्होंने अपनी वैचारिक सीमा के अन्दर रहकर अक्षरधाम पर टिप्पणी की है।

– शरद जामठे

बडबन, छिंदवाड़ा (म.प्र.)

श्रीमती मृदुला गर्ग भारतीय मूल्यों के प्रति गंभीर समझ रखने वाली एक आदर्श महिला हैं। अक्षरधाम के प्रति उन्होंने कोई अनादर की बात नहीं कही है। उनका संकेत एक दूसरी समस्या की ओर है, जो गांधी जी के सामने सबसे पहले आई और उन्होंने हाथ में झाड़ू उठाई थी। मेरा निवेदन है कि मृदुला जी और गोयनका जी आपस में बातचीत कर इस दिमागी क्षोभ को शीत करें।

– डा. परेश

1251/8 सी, चण्डीगढ़

छिछली सोच

श्री मुजफ्फर हुसैन का आलेख “ये कैसे आलिम” पढ़ा। शायर बशीर बद्र के बारे में इन्होंने जो कुछ लिखा है, उसकी पुष्टि श्री मुनव्वर राना ने की है। कहा जाता है कि साहित्यकार, शायर, गीतकार आदि जाति, धर्म, मजहब आदि की संकीर्णता से परे होते हैं, पर बशीर बद्र की छिछली सोच को देखकर तो ऐसा कतई नहीं लगता।

– अभिजीत कुमार “बाबुल”

मुजफ्फरपुर (बिहार)

पुरस्कृत पत्र

आप विचार करें

प्रतिदिन समाचार पत्रों में पादरियों द्वारा धन, नौकरी, विदेश भेजने आदि का लालच देकर हिन्दुओं को ईसाई बनाने के समाचार पढ़ने को मिलते हैं। पर क्या कभी हमने सोचा है कि हिन्दुओं का एक ऐसा सम्पन्न वर्ग है जो लाखों रुपए प्रतिवर्ष अपने बच्चों को ईसाई मत की ओर प्रेरित करने तथा पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने के लिए खर्च करता है। यह वर्ग ईसाइयों द्वारा संचालित आवासीय विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाता है। वे बच्चे प्रतिदिन चर्च में प्रार्थना करते हैं और बाईबिल आदि पढ़ते हैं। दस-ग्यारह वर्ष ऐसे विद्यालयों में पढ़कर हिन्दू बच्चे अपने धर्म व संस्कृति को भूलकर पूर्णत: ईसाई बन जाते हैं। पिछले दिनों द्वारका जी (गुजरात) जाते समय ऐसा ही एक युवक “उत्तरांचल एक्सप्रेस” में मिला। बातचीत के क्रम में उसने कहा, “मैंने दसवीं तक ईसाई आवासीय विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की है। अब मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हूं। अर्थशास्त्र के विद्वानों का कथन है, “गांवों की अर्थ-व्यवस्था बिगाड़ने में “धर्म” मुख्य कारण है। धार्मिक अनुष्ठानों आदि पर भी इतना खर्च किया जाता है कि कमाने वाले की मृत्यु के बाद बेचारी विधवा धर्म (अन्तिम संस्कार और क्रियाकर्म) की आड़ में पिस जाती है। मैंने कहा, “जिन विद्वानों के ऐसे विचार हैं, वे हिन्दू समाज और भारतीयों के विषय में कुछ नहीं जानते। गांवों में ऐसी व्यवस्था है कि दु:खद परिस्थितियों में निर्धन परिवार के व्यय की सारी जिम्मेदारी सम्पन्न लोग उठा लेते हैं। पगड़ी रस्म पर लोगों द्वारा राशि देने का मुख्य कारण पीड़ित परिवार की सहायता करना ही होता है।” युवक कहने लगा, “स्कूल के दिनों में मैं चर्च भी जाता रहा हूं और बाईबिल आदि भी पढ़ता रहा हूं। मुझे वे पुस्तकें अच्छी लगीं।” मैंने पूछा, “हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ जैसे- वेद, उपनिषद्, भारत वर्ष का प्राचीन इतिहास कभी पढ़ा है।” उसने कहा नहीं। अब आप विचार करें कि हम चवअपने बच्चों को किस रास्ते पर भेज रहे हैं।

– डा. लज्जा देवी मोहन

463, एल., माडल टाउन, पानीपत (हरियाणा)

हर सप्ताह एक चुटीले, हृदयग्राही पत्र पर 100 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा। -सं.

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