मेरी सास, मेरी मां, मेरी बहू, मेरी बेटी
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मेरी सास, मेरी मां, मेरी बहू, मेरी बेटी

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

जब भी सास बहू की चर्चा होती है तो लगता है इन सम्बंधों में सिर्फ 36 का आंकड़ा है। सास द्वारा बहू को सताने, उसे दहेज के लिए जला डालने के प्रसंग एक टीस पैदा करते हैं। लेकिन सास-बहू सम्बंधों का एक यही पहलू नहीं है। हमारे बीच में ही ऐसी सासें भी हैं, जिन्होंने अपनी बहू को मां से भी बढ़कर स्नेह दिया, उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। और फिर पराये घर से आयी बेटी ने भी उनके लाड़-दुलार को आंचल में समेट सास को अपनी मां से बढ़कर मान दिया। क्या आपकी सास ऐसी ही ममतामयी हैं? क्या आपकी बहू सचमुच आपकी आंख का तारा है? पारिवारिक जीवन मूल्यों के ऐसे अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करने वाले प्रसंग हमें 250 शब्दों में लिख भेजिए। अपना नाम और पता स्पष्ट शब्दों में लिखें। साथ में चित्र भी भेजें। प्रकाशनार्थ चुने गए श्रेष्ठ प्रसंग के लिए 200 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।बेटी से बढ़कर बहूश्रीमती स्वाती अपनी सासू मां श्रीमती प्रतिभा कपले के साथपराए घर की बेटी जब बहू बनकर मेरे घर आएगी तो मुझे अपनी मां से भी बढ़कर आदर और सम्मान देगी, यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।बड़े पुत्र का विवाह हुआ और बहू घर आयी तो मैं फूली नहीं समायी, सोचा, मैंने अपनी कोख से बेटी को जन्म नहीं दिया तो क्या, आज से यही मेरी बेटी है। बहू ने भी मुझे मां समान आदर और प्यार दिया। देखते-देखते तीन साल बीत गए। मैं गंभीर रूप से बीमार रहने लगी। श्वास (दमे) की बीमारी ने मुझे बिस्तर पर पड़े रहने के लिए मजबूर कर दिया। स्वाती (बहू) पर सारे घर की जिम्मेदारी, छोटे बच्चे की परवरिश और उस पर से नौकरी का बोझ, पर वह मनोयोग से मेरी सेवा करती थी।उन्हीं दिनों बहू की चचेरी बहन नंदा का हमारे घर आना-जाना बहुत बढ़ गया। नंदा अपने स्वभाव के अनुसार चुगली करती थी, सास-बहू के झगड़ों की कहानियां सुनाती थी। वह स्वयं कुछ झगड़ालू स्वभाव की थी। इसलिए मुझे डर था कि कहीं मेरी बहू पर भी उसकी बातों का असर न हो जाए। नंदा बोलती रहती थी और मेरी बहू स्वाती चुपचाप सुनती रहती थी।एक दिन नंदा और स्वाती घर के काम-काज में जुटी थी और मैं बगल के कमरे में ही बिस्तर पर लेटी थी। नंदा जो कह रही थी वह मुझे साफ-साफ सुनाई पड़ रहा था। नंदा ने कहा, “स्वाती मेरी बात मान ले, अपनी सास को कहीं भेद दे, कहीं और नहीं तो वृद्धाश्रम ही भेज दे। दमा का रोग छूत का रोग है, तुझे भी लग जाएगा। वैसे भी दमे के मरीज न ठीक होते हैं और न जल्दी मरते हैं।” इतना सुनते ही मेरी बहू के सब्रा का बांध टूट पड़ा और वह नंदा पर चिल्ला पड़ी, “तुम्हें शर्म नहीं आती, मेरी सास जैसी तो कोई मां भी नहीं मिलेगी। यह घर उनका है, बेटा उनका है और पोता भी उन्हीं का है। जब तक उनसे काम होता था, उन्होंने बहुत किया। अगर उनकी जगह मेरी या तुम्हारी अपनी मां होती तब भी क्या तुम उन्हें वृद्धाश्रम भेज देतीं। तुम मेरे घर से चली जाओ और ऐसी बातें करनी है तो आज के बाद मत आना।” नंदा चुपचाप चली गयी। मुझे अपनी बहू पर गर्व हो रहा था। वह मेरे मन में बेटी से कहीं बड़ा स्थान बना चुकी थी और आज भी मेरी आंखों का तारा बनी हुई है।प्रतिभा कपले91 अरावली, इंद्रपुरी, इंदौर (म.प्र.)18

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