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नेपाल-भारत सीमा विवाद?-प्रकाश पंतआधुनिक नेपाल का राजनीतिक इतिहास 1768 ई. से प्रारम्भ होता है, जिसके निर्माता श्री 5 महाराजाधिराज पृथ्वीनारायण शाह ने मात्र 20 वर्ष की आयु में राज सम्भाला तथा 52 वर्ष की आयु तक राज किया। उस समय नेपाल में बाईसी, चौबीसी, किरात, सेन आदि राजवंश थे। पृथ्वीनारायण शाह ने नेपाल के समस्त राजवंशों के एकीकरण का अभियान चलाया। 1 मार्च, 1792 को नेपाल तथा ईस्ट इंडिया कम्पनी के मध्य व्यापार विनिमय सम्बंधी समझौता किया गया था। इसके पश्चात 26 अक्तूबर, 1801 को 13 सूत्रीय संधि भी की गयी। इस संधि की धारा 5 में कहा गया कि सीमा सम्बंधी विवादों को सुलझाने के लिए न्याय व अधिकार के सिद्धान्त के आधार पर दोनों देशों के प्रतिनिधि आपस में बैठकर सीमा निर्धारण करेंगे। इस प्रकार नेपाल और ईस्ट इंडिया शासित भारत के मध्य सीमा निर्धारण हेतु प्रथम संधि हुई।सन् 1805 में सीमा विस्तार तथा वृहद् नेपाल राष्ट्र की कल्पना लेकर अमर सिंह थापा अपनी सेना के साथ कुमायूं, गढ़वाल से होते हुए कांगड़ा तक पहुंच गए। कांगड़ा के राजा संसार चन्द लड़ाई हार गए। वे भेष बदल कर गुप्त मार्ग से अपने परिवार के साथ भाग गए। उन्होंने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के यहां शरण ली। संसार चन्द द्वारा कांगड़ा किला सौंपे जाने की शर्त पर महाराजा रणजीत सिंह ने नेपाली सेना के ऊपर आक्रमण कर दिया। 24 अगस्त, 1809 को युद्ध में पराजित होकर अमर सिंह थापा ने कांगड़ा का किला छोड़ दिया तथा सतलज की दूसरी ओर अपना राज्य स्थापित किया।ईस्ट इंडिया कम्पनी को तिब्बत से व्यापार करने में नेपाल से की गई वाणिज्य संधि बाधा थी। नेपाली शासकों के सीमा विस्तार को देखते हुए अंग्रेजों ने 25 दिन के अन्दर बुटवल तथा स्यूराज तक का क्षेत्र खाली करने हेतु नेपाल के राजा को पत्र सौंप दिया। पत्र के माध्यम से निर्धारित सीमा समाप्त होने के पश्चात् अंग्रेजों की सेना ने बुटवल की ओर प्रस्थान किया। परन्तु नेपाली सेना ने पुन: 29 मई, 1814 को बुटवल तथा स्यूराज पर कब्जा कर लिया। इसे देखते हुए अंग्रेजों ने नेपाल के साथ 1 नवम्बर, 1814 को नेपाल के साथ युद्ध की घोषणा कर दी। हालांकि अंग्रेज सेना 22 अक्तूबर को ही नेपाल के कब्जे वाले देहरादून क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी थी। फिर तो नेपाली सेना हारती गई, पीछे हटती गई और अल्मोड़ा तक अंग्रेजों का कब्जा हो गया। 15 मई, 1815 को अल्मोड़ा के बमशाह द्वारा आत्मसमर्पण की सूचना प्राप्त होते ही अमर सिंह थापा ने अंग्रेज अधिकारी अक्टरलोनी के साथ संधि पत्र पर हस्ताक्षर किए। इस प्रकार महाकाली नदी के इस पार सतलज तक का सम्पूर्ण पर्वतीय व तराई का जीता हुआ भू भाग अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। इस संधि की पुष्टि करने के लिए 2 दिसम्बर, 1815 को एक संधि प्रस्तावित की गयी, जिसे सुगौली संधि (1816) के नाम से जाना जाता है, जिसके अनुच्छेद 3 के अन्तर्गत 5 क्षेत्रों से सीमा निर्धारण किया गया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी को पूर्णरूप से निम्न क्षेत्र सौंप दिए गए-1. काली तथा राप्ती नदी के मध्य का सम्पूर्ण निचला क्षेत्र 2. राप्ती तथा गंडक नदी के मध्य का सम्पूर्ण निचला क्षेत्र। 3. गंडक तथा कोसी नदी के मध्य का सम्पूर्ण निचला क्षेत्र 4. मेची तथा तिस्ता नदी के मध्य का सम्पूर्ण निचला क्षेत्र और 5. मेची नदी के पूर्व का सम्पूर्ण पहाड़ी क्षेत्र।सन् 1857 में भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन का बिगुल बज गया। सेना के अनेक क्षेत्रों से बगावत का संकेत प्राप्त होने लगा। ब्रिटिश सेना संख्या में सीमित थी और भारतीय सैनिक संख्या में अधिक, इसे देखते हुए अंग्रेजों ने नेपाल से मदद मांगी। लखनऊ में विद्रोह को दबाने के लिए नेपाली शासक जंग बहादुर राणा तथा ब्रिटिश राजदूत कर्नल रेमसे के मध्य वार्ता हुई, जिसके पश्चात् 2 जुलाई, 1857 को गोरखा सेना की 6 रेजीमेन्टों ने भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचलने के लिए प्रस्थान किया। 10 दिसम्बर, 1857 को जंग बहादुर राणा ने 3 पल्टनों के साथ गोरखपुर से लखनऊ प्रस्थान किया तथा जनवरी, 1858 को गोरखपुर व 10 मार्च, 1858 को लखनऊ में विद्रोह कुचल दिया गया। नेपाली सेना ने बेगम हजरत महल, आलम बाग, छत्तर मंजिल, मोती महल, केशर बाग इत्यादि महत्वपूर्ण स्थलों पर कब्जा कर लिया। गर्वनर जनरल लार्ड केनिडि, जोकि इस सम्पूर्ण घटनाक्रम का चश्मदीद गवाह था, ने ब्रिटिश सरकार से नेपाल को इस सहायता के बदले विशेष उपहार देने की सिफारिश की, जिसके आधार पर 1 नवम्बर, 1860 को पुन: एक सीमा संधि नेपाल व ब्रिटिश सरकार के मध्य हस्ताक्षरित की गयी। इसमें ब्रिटिश सरकार द्वारा काली नदी (शारदा) की सीमा पर लगाए गए सीमा स्तम्भों को मान्यता प्रदान की गयी तथा काली व राप्ती नदी के मध्य का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र नेपाल को प्रदान कर दिया गया। इस कारण कंचनपुर, कैलाली, बर्दिया, बांके इत्यादि चार जिले नेपाल की सीमा के अन्दर आ गए।वर्तमान सीमा विवाद- भारत-नेपाल के वर्तमान सीमा विवाद की शुरुआत 1996 से हुई जब नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने सशस्त्र आन्दोलन का मार्ग चुना। इससे पूर्व 1990 तक ने.क.पा. (माओवादी) नेपाली संविधान के तहत बहुदलीय प्रजातंत्र में हिस्सेदारी कर रही थी। पर 13 फरवरी, 1996 को माओवादियों ने सशस्त्र संघर्ष की औपचारिक घोषणा कर पुलिस थाने पर हमला कर दिया, जिसका क्रम आज तक जारी है। माओवादी हिंसा में अब तक लगभग हजारों नागरिकों की हत्या हो चुकी है और नेपाल के लगभग 75 जिले माओवादी गतिविधियों से प्रभावित हो चुके हैं। माओवादियों द्वारा नेपाली जनमानस के अन्दर भारत विरोधी मानसिकता एक सोची-समझी रणनीति के तहत रोपी जा रही है। नेपाल-भारत के मध्य सीमा विवाद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि भारत ने नेपाल के अनेक क्षेत्रों पर अनधिकृत रूप से कब्जा कर रखा है। इस सम्बंध में 29 जून, 1998 को नेपाल के सभी वामपंथी दलों ने संयुक्त हस्ताक्षरयुक्त पत्र संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव को प्रेषित किया था। पत्र में कहा गया था कि “नेपाल के सभी वामपंथी दल भारत द्वारा नेपाल की सीमा पर किए जा रहे भारतीय अतिक्रमण के विरोध में संघर्षरत हैं। भारत ने नेपाल के कालापानी क्षेत्र में 19,600 हेक्टेयर भूमि पर कब्जा कर रखा है तथा उसमें 1962 से अपनी सेनाओं के शिविर स्थापित किए हुए हैं। नेपाल की भूमि पर भारत की सेनाओं ने अपनी चौकियां स्थापित की हैं। इसी प्रकार नेपाल के अन्य क्षेत्र में भी भारत द्वारा अनधिकृत रूप से कब्जा किया गया है। सुस्ता इलेची इत्यादि नेपाल के क्षेत्र भारत के कब्जे में हैं। पूर्व नेपाल के पशुपति नगर में नेपालियों की झोपड़ियों को तोड़कर भारतीय सेना ने अपनी चौकियां स्थापित कर ली हैं। चीन के साथ नेपाल द्वारा 5 अक्तूबर, 1961 को नेपाल-चीन के मध्य खुली सीमा पर वैज्ञानिक आधार पर की गयी सीमा संधि के अनुरूप अन्तरराष्ट्रीय सहयोग व हस्तक्षेप से भारत-नेपाल के मध्य सीमा निर्धारण किया जाए।”नेपाल का एक और तर्क है कि “30 अक्तूबर, 1950 को काठमांडू में नेपाल-ब्रिटेन के मध्य हुई संधि की धारा 8 के अनुसार 21 दिसम्बर, 1923 से पूर्व की सभी संधियां, जोकि अंग्रेजों द्वारा भारत-नेपाल के सम्बंध में की गयी थीं, को निरस्त समझा जाए। इसके प्रभाव से वृहद् नेपाल, जिसकी सीमा उत्तराञ्चल व हिमाचल तक थी, नेपाल की सीमा के अन्दर आ जाएंगे। क्योंकि सुगौली संधि (1816) इससे प्रभावित हो रही है। जिसके माध्यम से नेपाल-भारत की सीमा निर्धारण किया गया था।”विवाद के सम्बंध में नेपाल के वामपंथी दलों का तर्क है कि “वर्ष 1816 में नेपाल-ब्रिटिश भारत के मध्य हुई सीमा संधि में नेपाल के पश्चिम में सीमा काली नदी को उल्लिखित किया गया है परन्तु उसके उद्गम के सम्बंध में कोई उल्लेख नहीं है। लिम्पियाधुरा, जोकि कटी नदी का उद्गम स्थल है, वही काली नदी का उद्गम स्थल भी है। जबकि भारत का तर्क है कि लिपुलेख, जो कि लिपू नदीं का उद्गम स्थल है, इस लिम्पियाधुरा तथा लिपुलेख के मध्य का 35 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र, जिसमें काला पानी क्षेत्र भी है, भारत का है। ब्रिटिश काल में सन् 1850 में कोलकाता से प्रकाशित मानचित्र में काली नदी का उद्गम स्थल लिपुलेख दिया गया है, जिसकी पुनरावृत्ति 1930 में प्रकाशित मानचित्र में भी की गयी है।” काली नदी के उद्गम के विवाद के साथ एक अन्य विवाद भी है, जिसे “शारदा संधि” विवाद कहते है। 3 मई, 1916 को ब्रिटिश अधिकारी जो म्यानर स्मिथ ने शारदा नदी के जल उपयोग हेतु “शारदा-गंगा-यमुना पोषक योजना” के प्रस्तावित स्थल पर 1910 में आई बाढ़ से शारदा नदी द्वारा मार्ग परिवर्तन कर लेने के कारण सैलानी गढ़ की जगह बनबसा घाट के निकट बांध स्थानान्तरित करने की अनुमति चाही थी। जिसके आधार पर नेपाल सरकार ने 23 अगस्त, 1920 को उक्त क्षेत्र के आवेदित लगभग 4000 एकड़ भू-भाग के बदले भूमि तथा जल आवंटन इत्यादि शर्तों के साथ अपनी सहमति प्रदान की। ब्रिटिश सरकार ने नेपाल सरकार की 4093.88 एकड़ भूमि के बदले में खीरी जनपद में 2914 एकड़ बरहाइच जनपद की 1114.58 एकड़ तथा गोण्डा की 65.3 एकड़ भूमि सौंप दी, जिस पर स्थापित सीमा स्तम्भों का विवाद भी समय-समय पर उठता रहता है। इस सबके बावजूद भारतीय सीमावर्ती क्षेत्र का जनमानस विशेषकर उत्तराञ्चल तथा नेपाल से लगने वाली सीमा पर निवास करने वाले सीमावर्ती क्षेत्रों के निवासियों के मध्य घनिष्ठ परम्परागत सम्बंध रहे हैं। दोनों क्षेत्रों में तीज-त्यौहार एक ही जैसे हैं। लोगों का रहन-सहन, वेश-भूषा तथा भाषा में एकरूपता है। सीमावर्ती राज्य उत्तराञ्चल के जनपद उधमसिंह नगर के विकास खण्डों खटीमा तथा सितारगंज में विशेषकर थारू जनजाति के लोग निवास करते हैं। जनजातीय भूमि का हस्तान्तरण न कर पाने के कारण लगभग 2000 थारू जनजाति के व्यक्तियों द्वारा 4273 गैरथारू लोगों को अवैध रूप से 5963 एकड़ भूमि हस्तान्तरित की गई, जिसे अधिकांश सेवानिवृत्त सैनिक तथा अन्य पर्वतीय क्षेत्रों के निवासियों ने खरीदा है। परन्तु भूमिधारकों के अधिकार क्रेता को प्राप्त नहीं हो पाए। वर्तमान में थारू जनजाति के कुछ युवाओं में इस बात को लेकर आक्रोश है कि इतनी अधिक भूमि गैरथारू लोगों को उनके पूर्वजों द्वारा बेच दी गई या इन लोगों ने उन पर जबरन कब्जा कर रखा है। यदि ये युवा भूले-भटके नेपाली माओवादियों के सम्पर्क में आ गए तो निश्चित रूप से भारत के इस भू-भाग को अशान्त होने से कोई रोक नहीं पाएगा। इस क्षेत्र में माओवादियों की पहुंच होने लगी है। किच्छा, रुद्रपुर, पिथौरागढ़ तथा लोहाघाट आदि में वामपंथी संगठनों द्वारा चिपकाए गए कुछ पोस्टर इस बात का संकेत हैं कि माओवादी युवाओं को आकर्षित करने की योजना पर काम कर रहे हैं। इसलिए आवश्यक है कि इस समस्या का अविलम्ब निराकरण हो जाना चाहिए। साथ ही सीमावर्ती क्षेत्र में निवास करने वाली जनता को आधारभूत सुविधाएं तथा नौजवानों को रोजगार उपलब्ध कराने की विशेष चिन्ता करनी होगी।द(लेखक उत्तराञ्चल के विधायक एवं पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हैं।)12
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