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विभाजक राजनीति पर सांसें लेती कांग्रेसनीत सरकार

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

पहले देश तोड़ा अब समाज तोड़ेंगेआरक्षण करने वाली सरकारपहले शिक्षकों का तो सम्मान करे-टी.वी.आर. शेनायक्याभारत में बहस का चलन खत्म हो चुका है? अपने मन की बात कहने की इच्छा रखने वाले तो कई हैं पर ऐसे कितने हैं जो किसी दूसरे मत के होकर भी उस बात को समझने की उतनी ही योग्यता रखते हैं? आरक्षण का मुद्दा भी कुछ ऐसा ही उलझन भरा है जिसमें जो कहा जाए उसका गलत अर्थ निकाल ही लिया जाता है।मैं प्रधानमंत्री से एक सवाल पूछना चाहता हूं। डा.सिंह, आपके मानव संसाधन विकास मंत्री के प्रस्ताव का चाहे जो महत्व हो, क्या आप ईमानदारी से कह सकते हैं कि आपकी सरकार द्वारा सुझाया हल स्थिति को और बिगाड़ेगा नहीं? संप्रग सरकार ने सीटों की संख्या सभी पाठक्रमों में 50 प्रतिशत बढ़ाने का प्रस्ताव रखकर यह सुनिश्चित करने का वादा किया है कि सामान्य वर्ग की सीटों की संख्या घटेगी नहीं। एक राजनीतिज्ञ की बजाय एक शिक्षाविद् की तरह बोलते हुए, क्या प्रधानमंत्री कह सकते हैं कि यह व्यावहारिक है?शुरूआत से ही लें, इसका अर्थ होगा पुस्तकालयों से लेकर प्रयोगशालाओं तक सभी पर जबरदस्त दबाव डालना। यह कहना बहुत अच्छा है कि आप 50 प्रतिशत सीटें बढ़ा देंगे, पर क्या आपने अतिरिक्त वित्तीय बोझ का आकलन कर लिया है। एक अनुमान के अनुसार, पांच साल में कम से कम 8000 करोड़ रुपए चाहिए होंगे। फिर भी आपकी सरकार ने, आग ठण्डी करने की जल्दबाजी में, 2007 तक आरक्षण लागू करने की कसमें खाई हैं। यह व्यावहारिक कैसे है?ईमानदारी से कहें तो भौतिक संसाधनों के लिए पैसा तलाशना उतनी बड़ी समस्या नहीं है। कहीं बड़ी समस्या शिक्षकों की खोज है। अच्छी शिक्षा का सार होता है शिक्षक का अपने छात्रों की पढ़ाई पर व्यक्तिगत ध्यान देना। आधुनिक विश्वविद्यालयों में छात्रों की संख्या इतनी अधिक है कि ऐसा हो नहीं पा रहा है। जहां कक्षा में सौ से अधिक छात्र आपस में सटे बैठे हों वहां किसी छात्र पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना असंभव है। यह केवल भारत की नहीं, बल्कि दुनियाभर की समस्या है।आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज के प्राचीन विश्वविद्यालयों ने इस समस्या के समाधान रूप में ऐसी कक्षाएं शुरू कीं जहां शिक्षक कुछ अनौपचारिक तौर पर कम संख्या में छात्रों से मिलते हैं। ये निजी टूशन की तरह नहीं बल्कि औपचारिक शैक्षणिक प्रक्रिया का ही एक अंग हैं। यह स्वस्थ व्यवस्था अब भी भारत के कुछ कालेजों में उपयोग में आ रही है, हालांकि इनकी संख्या तेजी से घटती जा रही है।कोई कह सकता है कि शिक्षकों की संख्या बढ़ाने इसका हल हो जाएगा। यह कहना आसान है पर लागू करना लगभग असंभव है। आई.आई.टी. के निदेशकों से पूछकर देखें, वे प्रोफेसरों की कमी की बात बताएंगे। इतिहास गवाह है कि भारत के कालेजों के प्रोफेसरों को कम वेतन मिलता है। मैं कई शिक्षकों को जानता हूं जो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं लेकिन कम वेतन के कारण मजबूरी में निजी टूशन पढ़ाने जाते हैं। आर्थिक पहलू से अलग, भारतीय शिक्षकों के पास न तो उतने संसाधन हैं और न ही उन्हें इतना सम्मान प्राप्त है जैसा विदेशों में शिक्षकों को प्राप्त है। अमरीकी प्रशासन प्रतिभा की खोज में लगातार बड़े विश्वविद्यालयों को खंगालता रहता है। (राष्ट्रपति निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनने से ठीक पहले तक डा. हेनरी किसिंजर हार्वर्ड में पढ़ाते थे।)अगर भारतीय विश्वविद्यालयों में आर्थिक और व्यावसायिक लाभ (शोध सुविधाओं से लेकर अन्य) कम हैं तो आप शिक्षा क्षेत्र में योग्य व्यक्तियों को आकर्षित कैसे कर पाएंगे? प्रधानमंत्री जी, क्या आपको पूरा भरोसा है कि आपका निदान समस्या से बदतर नहीं होगा? बढ़ते काम के दबाव से कितने शिक्षक अपना कार्य जारी रखेंगे? वे पहले ही कम वेतन और अधिक काम के बोझ तले दबे हैं?किसी स्तर पर मैं आरक्षण के आह्वान की प्रशंसा कर सकता हूं। मगर बिना सोचे-समझे सीट बढ़ाकर शिक्षा का स्तर कमतर करने को किसी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। (25 मई, 2006)10

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