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टी.वी.आर. शेनाय

by
Mar 12, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Mar 2006 00:00:00

सभ्यताओं में संघर्ष के सूत्र?टी.वी.आर. शेनायकुछ महीने पहले की बात है, मुझे याद आता है कि उत्तर भारत की एक महिला ने दक्षिण भारत में सांस्कृतिक भिन्नताओं के बारे में बात की थी। केरल में नौकरी कर रहे अपने रिश्तेदारों से मिलने गयी वह महिला वहां के प्रसिद्ध गुरुवायुर मंदिर में दर्शन के लिए गयी थी। भीतर जाने से पहले उसने श्रद्धावश अपना सर पल्लू से ढक लिया तो इस पर वहां के पुजारियों ने उसे डपटते हुए कहा कि ऐसा करना हिन्दू मान्याताओं के विरुद्ध है।गुरुवायुर मंदिर के प्रबंधक बिल्कुल ठीक थे। मुझे नहीं मालूम कि आपमें से कितने पाठकों ने दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में कदम रखा होगा। इस संग्रहालय में खजाने की इतनी तादाद है कि वह बाहर बरामदे तक रखना पड़ रहा है। वहां रखे तमाम शिल्पों में से सबसे पहले नजर देवी सरस्वती की एक अति सुन्दर प्रतिमा पर जाती है जो मेरी जानकारी के अनुसार चौहान काल की है। ज्ञान की उस देवी की प्रतिमा का सर खुला है। इसी तरह भारतीय इतिहास, सिन्धु तट की सभ्यता से लेकर मौर्य, गुप्त और अन्य वंशों तक के हजारों सालों के चिन्ह भी दर्शाए गए हैं। मगर जैसे-जैसे समय गुजरता है- और आप राजपूत लघुचित्रों की दीर्घा तक पहुंचते हैं- पर्दा प्रकट होता जाता है, यहां तक कि आदिशक्ति पार्वती का चेहरा भी पूरी तरह आवरण में है। यह, शब्दश: भारत के स्थानीय उदाहरणों के स्थान पर जमे पश्चिमी एशियाई सांस्कृतिक कृतियों का रेखांकित प्रदर्शन है। अट्ठारहवीं सदी के चालुक्य वंश से लेकर विजय नगर और मराठाओं तक सभी के हथियारों ने दक्षिण भारत को सुरक्षित रखकर प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखा। अत: उस राजपूत महिला के सर पर वस्त्र ढकने को, जो मथुरा में स्वीकार्य है, गुरुवायुर में गुस्से से देखा गया।मेरी मंशा यह नहीं है नकाब या चेहरे को ढकने के मुस्लिम महिलाओं में चलन पर किसी बहस को आमंत्रित करूं। नकाब अपने में महत्वपूर्ण है। यह ऐसा प्रतीक है जो यह खुलकर कहता है कि इसको पहनने वाला समाज में अलग ही दिखता है। अनेक अंग्रेजी पर्यवेक्षकों का पर्दे के खिलाफ यही तर्क आया है। अगर कोई ईसाई इस्लामी देश में जाता है तो उसे वहां की परंपराओं का पालन करना जरूरी होता है, तो फिर यूरोप के मुसलमानों के लिए कोई अलग मापदंड क्यों होना चाहिए? इसे आप साधारण तर्क कह सकते हैं, यहां तक कि थोड़ा बेरूखा भी मगर यह उस बढ़ती अधीरता कीे ओर इशारा करता है, जो उन कुछ मुस्लिम अप्रवासियों के दावों के जवाब में दिये जाते हैं, जो किसी खास समाज के साथ घुलने-मिलने से मना करते हैं। यह केवल किसी महिला के पर्दा करने का सवाल नहीं है। ब्रिटेन में रहने वाले मुसलमानों के एक वर्ग ने अपने प्रशासन के लिए एक मुस्लिम संसद “मजलिस” का आह्वान किया है। कनाडा के ओनटारियो प्रांत में रहने वाले मुसलमानों को पारिवारिक विवाद सुलझाने के लिए शरीयत अदालतों की स्थापना करते पाया गया, जिसने कनाडा में समान नागरिक संहिता को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया है। और आस्ट्रेलिया में एक मौलवी ने नकाब की पैरवी करते हुए दूषित टिप्पणियां कीं कि खुले चेहरों वाली महिलाएं ऐसा “कच्चा गोश्त हैं जिनके पीछे कुत्ते भागते फिरते हैं।” लेकिन अमरीका जैसे अप्रवासियों से भरे देश में मुस्लिम पृथकतावाद पर बहस का शोर सबसे अधिक गूंजना सहज ही है। मुझे नहीं मालूम की यह घटना भारतीय अखबारों में छपी है या नहीं मगर मिनीपोलिस- सेंट पॉल अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उठा एक छोटा सा मुद्दा अमरीका में कन्जरवेटिव चर्चा कार्यक्रमों का पसंदीदा विषय बन गया। पता चला कि हवाई अड्डे पर कई टैक्सी ड्राइवर मुस्लिम अप्रवासी हैं। उनमें से कुछ ने शराब ले जा रहे यात्रियों को ले जाने से मना कर दिया। इसकी सफाई में उन्होंने कुरान का हवाला दिया जिसमें शराब पीना प्रतिबंधित है। मेट्रोपोलिटन हवाई अड्डा ने एक नया विचार रखा कि मुस्लिम टैक्सी ड्राइवरों की गाड़ियों के ऊपर एक विशेष बत्ती लगा दी जाए। इसके बाद तो आयोग के पास गुस्से में तमतमाते संदेश आने लगे कि आखिर एक सेकुलर संस्था शरीयत कानून को हरी झंडी क्यों दिखा रही है। एक अमरीकी ने लिखा कि अगर वही टैक्सी ड्राइवर उसे एक हमबर्गर (इस्लाम ने सूअर का मांस वर्जित है) साथ ले जाने से मना कर दे तो। कई महिलाओं ने चिढ़ते हुए पूछा कि क्या उन्हें ऐसी टैक्सियों में बैठने से पहले खुद को ढंकना पड़ेगा? ऐसे विरोधों का सामना होने पर आयोग ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया। मगर इस उठापटक का परिणाम यह हुआ कि आम अमरीकियों के मन में इस्लाम की छवि और गिर गयी। जिस मिनीपोलिस राज्य की यह घटना है, वह एक पारंपरिक डेमोक्रेटिक गढ़ रहा है। उदाहरण के लिए यह पचास राज्यों में अकेला था, जहां 1984 में राष्ट्रपति चुनावों में रोनाल्ड रीगन को वोट नहीं मिले थे। मगर कुछ सप्ताह पहले बुश विरोधी लहर के चलते रिपब्लिकन टिम पोलेंटी और केरोल मोलनाउ उदार मिनीपोलिस के क्रमश: गवर्नर और लेफ्टिनेंट गवर्नर चुने गये। लगभग उसी समय जब अमरीका में हवाई अड्डा आयोग अपने आदेश को वापस ले रहा था, ब्रिटिश गुप्तचर एजेंसी (एम.आई.5) मुस्लिम अप्रवासियों के बारे में एक सार्वजनिक चेतावनी जारी कर रही थी। लंदन के क्वीन मेरी कॉलेज में 10 नवम्बर को डेम ऐलिजा मेनिनगम बुलर ने कहा, “विद्रोहियों को पश्चिम और मुस्लिम दुनिया के बीच के इतिहास की उनकी व्याख्या से उपजे अन्याय और शिकायत के भाव से प्रेरणा मिलती है। कुछ मात्रा में यह दृष्टिकोण काफी लोगों ने स्वीकारा। जुलाई, 2005 के बाद यू.के. में हुए चुनावी आंकलन मोटे तौर पर सही हैं तो एक लाख से ज्यादा हमारे नागरिक मानते हैं कि लंदन के जुलाई, 2005 के विस्फोट जायज थे।” ऐलिजा ने यह अपने भाषण के दौरान कहा था जो उसने “एक राजनेता के रूप में नहीं पर ऐसी महिला के रूप में कहा था जो 32 साल तक गुप्तचर अधिकारी रही थीं।” यह बात शायद ब्रिटिश जनता के बीच जम गयी- इतनी अधिक कि जैक स्ट्रा ने लंकाशायर टेलिग्राफ में यह दावा करते हुए लिखा कि उन्होंने मुस्लिम महिलाओं से कह रखा था कि अगर उनसे बात करनी है तो नकाब हटाकर बात करें।याद रखें कि जैक स्ट्रा ब्रिटेन के एक साधारण सांसद नहीं हैं। वर्तमान में वे हाउस आफ कॉमन्स के नेता हैं और कुछ समय पहले तक विदेश मंत्री थे। वे भली भांति जानते थे कि उनका लिखना हड़कम्प मचाएगा मगर उन्होंने तब भी लिखा और यह जानते हुए लिखा कि इससे ब्रिटिश मतदाता खुश होंगे। अमरीकियों, ब्रिटेन वालों और दुनिया के अन्य हिस्से के लोगों को यह बात परेशान किये है कि आज के मुस्लिम अप्रवासी समाज के साथ जुड़ने का कोई संकेत नहीं दिखा रहे हैं। इससे भी बदतर यह है कि उनमें से कुछ अब इस बात पर अड़े हैं कि मेजबान देश उनकी इच्छाओं के अनुसार खुद को ढाल ले। अथवा जैसा कि गुरुवायुर मंदिर के पुजारी कह सकते थे कि उत्तर भारत की महिलाओं ने खुद को ढकने की पश्चिम एशियाई परंपरा अपना ली है।13 साल पहले सैमुअल हंटिंग्टन की पुस्तक “क्लैश आफ सिविलाइजेशन” पर बहुतों की त्योरियां चढ़ गयी थीं। अब हंटिंग्टन कहीं बेहतर भविष्य वक्ता सिद्ध हो रहे हैं। अपनी ताजा पुस्तक “हू आर वी” में वे कहते हैं कि अबाधित और अमर्यादित अप्रवासी एक खतरा हैं। आज उन पर कोई हंस नहीं रहा है। (22.11.2006)39

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