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स्त्री

by
Mar 9, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Mar 2006 00:00:00

हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भ”स्त्री” स्तम्भ के लिए सामग्री, टिप्पणियां इस पते पर भेजें-“स्त्री” स्तम्भद्वारा,सम्पादक, पाञ्चजन्य,संस्कृति भवन, देशबन्धु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-55″सास-बहू और परिवार से जुड़े धारावाहिक कितने पारिवारिक?”विषयक बहस पर आमंत्रित विचारों की अन्तिम कड़ीबन्द करो अब टी.वी., इसमें तो लफड़े ही लफड़ेटी.वी. पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों में सिर्फ लफड़े ही लफड़े भरे हैं। चाहे एकता कपूर के द्वारा निर्मित धारावाहिक हों या फिर किसी और के, सब एक-दूसरे की नकल करते हैं। अधिकांश गृहणियां “टाइम पास” करने के इरादे से इन्हें देखती हैं क्योंेकि टी.वी.पर कुछ और अच्छा न होने से इन्हें देखना मजबूरी है।सिर्फ मांग भर सिंदुर डालने से, बड़ी-बड़ी बिंदिया लगाने से, हाथ भर-भरकर चुड़ियां पहनने से भारतीय संस्कृति की रक्षा नहीं होती और न ही इसमें भारतीय संस्कृति का दर्शन होता है। हमारा आचरण हमारी संस्कृति का परिचायक है। ये धारावाहिक, उनके पात्र, भारतीय संस्कृति का दीन-हीन रूप दर्शाते हैं। यह भारत एक-पतिव्रता सीता और एक-पत्नीव्रती राम का देश है। यही हमारा मूल आदर्श है परन्तु इन धारावाहिकों के स्त्री पात्र तो जैसे वस्त्र बदले जाते हैं, वैसे पति बदलती हैं। “कसौटी जिन्दगी की” में कोमोलिका, अपर्णा ऐसे ही पात्र हैं। एक ही स्त्री पात्र न जाने कितने विवाह रचाती है? “कहीं तो होगा” की “कशीश” ऐसा ही पात्र है। भाई-भाई द्वारा छोड़ी गई पत्नी से विवाह रचाता है। “कसौटी जिंदगी की” में एक ही परिवार का पुरुष सदस्य कितने ही लफड़ों में फंसा होता है, कभी विवाहपूर्व लफड़े, तो कभी विवाहों के बाद के लफड़े। उनका रहस्य खुल जाने पर तो घर में महाभारत मच जाती है। फिर भी वह पुरुष परिवार का सबसे आदर्श व्यक्ति माना जाता है। ये आदर्श व्यक्ति लफड़ों से बाज ही नहीं आते। कहानी अच्छे से चल रही है कि अचानक राज खुल जाता है- कि “ये फलाने का बेटा नहीं है, वह फलाने की असली मां नहीं है। क्योंकि “सास भी कभी बहू थी” नामक धारावाहिक में, अचानक ये सब दिखाया जाने लगा। घर मानो घर नहीं नरक बन गए हैं। ऐसी संस्कृति भारतीय संस्कृति तो नहीं हो सकती। हां, आभास यह जरूर मिल रहा है कि धारावाहिक निर्माता यह सब भारत में होते देखना चाह रहे हैं और इसी योजना से ये धारावाहिक बनाए गए हैं। इन धारावाहिकों में काम करने वाली स्त्री पात्रों की पोशाकें तो देखिए। साड़ी के साथ ब्लाऊज पहनना भूल गई हैं। खुले कंधे पर पतली सी डोर झूलती है। छोटे स्कर्ट, शार्टस पहनकर घूमती हैं, मानो पांच-छ: साल की बच्चियां हों। इन्हें देखकर शर्म से गर्दन झुक जाती है।ये सभी धारावाहिक वास्तविकता से दूर हैं। “कसौटी जिंदगी की” में प्रेरणा का पत्नीत्व किसकी पत्नी बने रहने में है, यह तो भगवान ही जाने। एक खिलौने की तरह उसका इस्तेमाल हो रहा है। “अभी मैंने रखा, अब तू रख ले।” मि. बजाज व अनुराग मानो एक-दूसरे से यही कहते हैं। फिर से प्रेरणा, अनुराग से शादी करे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने वाले ये धारावाहिक स्त्री का घिनौना रूप प्रस्तुत करते हैं, उदाहरण के तौर पर “कहीं किसी रोज” की रमोला, “कसौटी जिन्दगी की” में कोमोलिका। हर बार बुरे कामों में ये सफल होती हैं। इन धारावाहिकों में खलनायकत्व तो इतना प्रबल है कि इनसान का अच्छाई पर से विश्वास ही उठ जाए। ये धारावाहिक हमारे मार्गदर्शक नहीं हैं। न तो ये हमें कोई शिक्षा देते हैं, और न ही कोई प्रेरणा देते हैं। अच्छे परिवार व युवा इन धारावाहिकों को देखना पसंद नहीं करते। डर है कि कहीं ये धारावाहिक, उनके परिवार और बच्चों को बिगाड़ न दें।इन्हें बंद करने का एक ही तरीका है कि लोग इन बोगस, धारावाहिकों को देखना ही बंद कर दें। आज अपने टी.वी. बंद रखने का समय आ गया है। वी टी.वी., एम टी.वी, ये न तो पहले देखने लायक थे न अब। रिमिक्स के नाम पर पर तो भयानक नंग-धड़ंग नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं। पुराने फिल्मी गीतों को देख-सुनकर दिल खिल उठता था पर अब तो रिमिक्स गीतों को देख-सुनकर दिल बुरी तरह से बैठ जाता है। इन धारावाहिकों के कारण स्त्री की छवि मटमैली-सी हो गई है। अच्छी-अच्छी औरतों को लोग बुरे दृष्टिकोण से देखने लगे हैं।सिंधु पाटिलप्राध्यापिका, एस.एफ.एस.कालेज नागपुरशुरु में आकर्षक, बाद में कलुषित-सरोज ओकवैसे देखा जाए तो सास-बहू से जुड़े तथाकथित पारिवारिक धारावाहिकों की शुरुआत बड़ी ही सुन्दरता से होती है। इसके पात्र अपने सहज अभिनय से मन को आकर्षित करते हैं। और उसे देखते रहने की उत्सुकता को बढ़ाते हैं। पात्रों के अभिनय, अच्छे संस्कार, पारिवारिक वातावरण एवं सहज ढंग से प्रस्तुत किए गए संवाद मन को छू लेते हैं। सास-बहू, भाई-भाई, बच्चों का प्रेम, एक साथ नाश्ता व भोजन करना, अच्छे संस्कारों और हंसी-खुशी का वातावरण, वेशभूषा, मेकअप आदि पर शुरुआत में तो बहुत ध्यान रखा जाता है किन्तु जैसे ही इसमें खलनायक का प्रवेश होता है सारा रूप ही पलट जाता है। खलनायक की पोशाक में अद्र्धनग्नता प्रदर्शित होती है। उसके विचारों से घर का सुन्दर वातावरण कलुषित हो जाता है। ईष्र्या, द्वेष, खून, बलात्कार, जेल, अस्पताल, श्मशान के दृश्यों को लंबा खींचकर इन धारावाहिकों में जो दिखाया जा रहा है उनमें बहुत कुछ समाज का ही चित्रण है। धारावाहिकों में दो-दो पत्नियां, अवैध बच्चे आदि बातें दिखाने से युवा पीढ़ी पर जरूर बुरा असर होता है। वस्तुत: टी.वी. पर अच्छे आदर्श विचारों के प्रसारण की ही अनुमति होनी चाहिए क्योंकि धारावाहिक बच्चे, युवा, बड़े बुजुर्ग-सभी एक साथ बैठकर देखते हैं। वेशभूषा, संवादों पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। 75, विष्णुपुरी मेन, इन्दौर, म.प्र.किससे कहें, कहां जाएं?-प्रिया विजय कपले”हिन्दू स्त्रियां तीन-चार शादियां करती हैं, बाल-बच्चेदार पति घर-परिवार और धन-सम्पदा होने के बाद भी बाहर की औरतों से इश्क लड़ाते हैं।” बन्द करो ये सब चीजें बताने व फैलाने के जिम्मेदार धारावाहिकों को। इन्हें देखकर मन में घृणा और एक हूक उठती है। पर हम कर भी क्या सकती हैं? स्वयं और बच्चों को तो इसे देखने पर रोक लगा दी हैं। और जो देखते हैं, उन्हें हम इन धारावाहिकों के प्रति सचेत भी करते हैं। सभी लोग इन धारावाहिकों में दिखाई जा रही लम्पटता, अश्लीलता, बेतुकी कहानियों से क्षुब्ध भी हैं। इन फुहड़ धारावाहिकों के प्रति सबके मन में नफरत है किन्तु इन्हें प्रतिबंधित करने के लिए हम और हमारे मुहल्ले की स्त्रियां किससे कहें? कृपया आप ही इस बिन्दु पर हमारे नेताओं का, संसद का ध्यान आकृष्ट कर इन्हें तत्काल प्रतिबंधित करने, इनकी कथावस्तु को जांचने-परखने में सहायता करें। 91, अरावली, इंद्रपुरी, इंदौर (म.प्र.)23

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