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-दिल्ली ब्यूरो
देशभक्ति का कोई भी गीत हो, हम गाएंगे
-शबनम खान, सामाजिक कार्यकर्ता एवं मानवाधिकारवादी
वन्दे मातरम् आजादी के आंदोलन के दौरान लोगों में जज्बा और जोश भरने के लिए गाया जाता था। आजादी के दीवानों में मुस्लिम भी बड़ी संख्या में थे। अगर किसी को आपत्ति होनी चाहिए थी, तो उन लोगों को होनी चाहिए थी जो आजादी के दौरान वन्दे मातरम् गा रहे थे। आज कुछ मौलाना या मुस्लिम नेता वन्दे मातरम् के विरोध में जो भी बातें कहते हैं, वह सिर्फ अपनी नेतागिरी और राजनीति चमकाने के लिए कहते हैं। मुसलमानों को इस पर कोई आपत्ति नहीं है, पर कुछ लोग सिर्फ अपने फायदे के लिए उन्हें भड़काते हैं।
मैं हमेशा यह गीत गाती हूं, गर्व से गाती हूं। हर आदमी को गाना चाहिए। मुझे ऐसा बिल्कुल नहीं लगता कि इसे गाने में मजहब कहीं आड़े आता है। यही नहीं, देशभक्ति की कोई भी बात, देशभक्ति का कोई भी गीत किसी मजहब के आड़े नहीं आता।
हमारे मजहब में कहीं ऐसा नहीं है कि हम जिस धरती पर जन्मे हैं अगर उसकी वंदना करें तो वह इस्लाम के विरुद्ध होगा। बल्कि यह कहा गया है कि जिस देश में आप रहते हैं उसके प्रति नतमस्तक रहिए। खुदा की इबादत एक बात है और अपने देश को नमन करना दूसरी बात, इसमें आपस में विरोधाभास कहां है? कुछ कट्टरपंथी लोग ही समाज में इस तरह की भावना फैला रहे हैं कि वन्दे मातरम् गाना इस्लाम या शरीयत के खिलाफ है। इस तरह के मौलाना क्या कभी मुसलमानों की शिक्षा और बेहतरी पर ध्यान देते हैं? सिर्फ भावनात्मक मुद्दों पर ही ये बढ़-चढ़कर बोलते हैं। मैं अपने मजहब पर कायम रहते हुए, अपनी इबादत करते हुए देश के प्रति अपने फर्ज को निभाने के लिए हमेशा तैयार रहती हूं। आखिर हमारे पूर्वजों ने इसी धरती को आजाद कराने के लिए शहादत दी थी। अगर किसी मस्जिद में जाने से आपका हिन्दू धर्म खतरे में नहीं पड़ता तो किसी मंदिर में चले जाने से मेरा इस्लाम भी खतरे में नहीं पड़ जाता। मैं मुस्लिम हूं, पर मेरा फर्ज है कि दूसरों का भी सम्मान करूं, सब मत-पंथों का सम्मान करूं।
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