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संप्रग सरकार की दोषपूर्ण सार्वजनिक वितरण प्रणाली से

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Feb 7, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Feb 2006 00:00:00

गरीब बेहाल, किसान बदहाल-वरुण गांधीभारत एक विकासशील किंतु अभी भी एक गरीब देश है। इसलिए इसने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत खाद्य सामग्री के वितरण की व्यवस्था की है। लेकिन इससे लाभ उठाने वाले वर्ग में प्रस्तावित कटौती ने एक बार फिर इस व्यवस्था की कमियों को उजागर किया है। इस एक गलत कदम से लाखों लोगों की मौत हो सकती है। यह कहना एक अतिशयोक्ति प्रतीत होगी किंतु यही सत्य है। विशेषकर तब जब हम देखते हैं कि विश्व में बड़ी संख्या में बच्चे “वेस्टिंग” रोग से ग्रसित हैं। इस रोग को लंबाई के अनुपात में वजन कम होने के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसे हड्डियों का ढांचा दिखाई देने वाले बेहद दुबले पतले बच्चों में देखा जा सकता है। आम धारणा के विपरीत अफ्रीका में अधिकांश बच्चे “वेस्टिंग” से ग्रसित नहीं हैं। रेनर ग्रास (यूनिसेफ के पोषण प्रमुख) और पैट्रिक वेब (टफ विश्वविद्यालय में फ्राइडमेन स्कूल आफ न्यूट्रीशन साइंस एंड पॉलिसी पर शैक्षिक मामलों के प्रमुख) ने लानसेट में प्रकाशित एक “व्यूपाइंट” में कहा है कि विश्व के 55 लाख “वेस्टिंग” रोग से ग्रसित बच्चों में से लगभग 78 प्रतिशत भारत, पाकिस्तान तथा बंगलादेश में रह रहे हैं और इसमें से लगभग दो-तिहाई केवल भारत में ही हैं।बाल कुपोषण से ग्रस्त लगभग 30 लाख बच्चों की मौजूदगी ग्रामीण भारत में वास्तविक स्थिति को दर्शाती है और देश की निर्धनता का वास्तविक चित्र दिखाती है। “वेस्टिंग” को एक जटिल स्थिति मानते हुए ग्रास तथा वेब ने यह निष्कर्ष निकाला है कि “विकास के एजेंडा में प्रभावी तथा आवश्यक कार्रवाई की आवश्यकता है।” जिसका अर्थ है गांवों में लाखों लोगों को नियमित रूप से भोजन मिलना। परंतु भारत में इसका उल्टा हो रहा है। आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति को खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग द्वारा हाल ही में भेजे गए एक आठ-सूत्री नोट में ऐसा करने की बजाय “सूखाग्रस्त क्षेत्रों हेतु आवंटनों में कमी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ए.पी.एल.(गरीबी रेखा से ऊपर) और बी.पी.एल.(गरीबी रेखा से नीचे) को दिए जाने वाले अनाज के मूल्य में वृद्धि और ए.पी.एल. तथा बी.पी.एल. कार्डधारकों हेतु कोटे को वर्तमान के 35 किलोग्राम से कम करके 5 किलोग्राम करने की सिफारिश की गई है।”इसमें कोई शक नहीं कि ये कदम सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर हो रहे व्यय को कम करने के उद्देश्य से उठाए गए हैं क्योंकि कुछ नीति-निर्धारक मानते हैं कि यह पैसे की बर्बादी है। पर केंद्र सरकार का यह प्रस्ताव अपने भोजन के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर ही निर्भर रहने वालों के लिए एक आघात होगा, यह लाखों लोगों को भूखा मरने की कगार पर ले जाएगा।इसलिए उचित यही होगा कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली में परिवर्तन की सिफारिशों को क्रियान्वित न किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि यह व्यवस्था एक मजबूरी बनने की बजाय राष्ट्रीय संसाधनों के समान वितरण हेतु एक प्रभावी हथियार बने। सरकार भी यह महसूस करे कि उसे सामाजिक उत्तरदायित्व निभाना है और वह शासन के प्रत्येक पहलू को केवल लाभ तथा हानि के दृष्टिकोण से न देखे। गरीबों के हित की योजनाओं के लिए पैसे में कटौती करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पैसा अन्य स्रोतों से भी जुटाया जा सकता है।यह विडम्बना ही है कि भारत में जहां अप्रैल, 2007 तक के लिए गेहूं का लगभग 30 करोड़ टन सुरक्षित भंडार है और जहां धान की उपज 28 लाख टन बढ़कर 234 लाख टन हो गई है, वहां 20 करोड़ लोगों को कम भोजन मिलने और 5 करोड़ के भूख से मरने की कगार पर होने का अनुमान है। विशेषज्ञों ने पिछले काफी समय से जोर देकर कहा है कि इस विसंगति के पीछे का कारण वर्तमान सरकारी नीति में दोष और सुधार के उपायों को क्रियान्वित नहीं किया जाना है। जहां खाद्य सुरक्षा की नीति के अंतर्गत चुकाई जा सकने वाली कीमत पर आम आदमी को अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित करवाने का एक प्रशंसनीय उद्देश्य है, और इसने गरीब लोगों के पास भोजन पहुचाने को समर्थ बनाया है, वहीं इस नीति ने कृषि उत्पादन की वृद्धि और उसे प्राप्त करने के लिए समर्थन मूल्य और गेहूं तथा चावल के भण्डारण को बनाए रखने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है।यह कहा जा रहा है कि वर्तमान महंगी, अकुशल तथा भ्रष्टाचार से भरी संस्थागत व्यवस्था में एक बदलाव की आवश्यकता है जो अपेक्षित गुणवत्ता वाले अनाज को एक पारदर्शी तथा स्व-लक्षित तरीके से सस्ते दाम पर उपलब्ध कराने को सुनिश्चित करेगी। विशेषज्ञों का यह भी मत है कि आदान-प्रदान पर आर्थिक सहायता तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली वर्तमान वितरण प्रणाली को धीरे-धीरे समाप्त कर देना चाहिए और छोटे किसानों द्वारा हताशा में कम मूल्य पर फसल बेचे जाने को रोकने के लिए भविष्य के बाजारों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग को शामिल करते हुए उन्नत संचार प्रणालियों का उपयोग किसानों को उनके उत्पाद का बेहतर मूल्य दिलाने के लिए किया जा सकता है। फसल बीमा की राशि का एक मुख्य भाग सरकार द्वारा अदा करके फसल बीमा योजनाओं को बढ़ावा दिया जा सकता है। साथ ही साथ, अंतरराज्यीय आदान-प्रदान, भंडारण, निर्यात तथा संस्थागत ऋण और व्यापार वित्त-पोषण पर सभी प्रतिबंधों को हटाया जाना चाहिए। विशेषज्ञों का एक अन्य महत्वपूर्ण सुझाव यह है कि केवल चावल अथवा गेंहू पर ध्यान देने की बजाय उस क्षेत्र में प्रचलित अनाज को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।पर जरूरी है कि किसी भी क्षेत्र में पहल सावधानीपूर्वक की जानी चाहिए। बिना पर्याप्त सावधानी के किसी भी प्रकार का परिवर्तन किया जाना किसानों तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर लोगों, दोनों के लिए गंभीर स्थिति पैदा कर सकता है। हाल ही में कृषि वैज्ञानिक मधुर स्वामिनाथन ने गेहूं आयात नीति की गंभीर आलोचना करते हुए इसे एक “घोटाला” कहा है। वे राष्ट्रीय कृषक आयोग के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने कहा है कि सरकार की फसल खरीद की नई प्रणाली के कारण ऐसा हो रहा है कि गेंहू का बड़ी मात्रा में आयात किया जा रहा है जबकि देश में पर्याप्त उत्पादन हो रहा है। पिछले वर्ष से निजी खरीददारों को किसानों से गेंहू खरीदने की अनुमति दिए जाने के कारण सरकार के सुरक्षित भण्डारण में कमी आई है और इसे गेहूं आयात करना पड़ा है। देश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश में 25 लाख टन गेंहू के लक्ष्य की तुलना में राज्य सरकार ने केवल लगभग 40 हजार टन ही गेंहू खरीदा। यद्यपि निजी खरीददारों के आने का अर्थ यह हुआ है कि किसानों को अपनी फसल का थोड़ा बेहतर मूल्य मिला है, पर डा. स्वामिनाथन ने चेतावनी दी,”इस कदम द्वारा देश की खाद्य सुरक्षा से समझौता किया गया है।”संप्रग सरकार ने जिस प्रकार की खाद्य नीति अपनाई है। उसकी व्यापक आलोचना हो रही है। गेंहू के भण्डारण में कमी को दूर करने के लिए 650 रुपए प्रति Ïक्वटल की तुलना में 789.20 रुपए प्रति Ïक्वटल का आयात इस नीति की कमियों को उजागर करता है।आज स्थिति बद से बदतर हो गई है। भारत पहले ही 5 लाख टन गेहूं का आयात कर चुका है तथा 350 लाख टन के लिए निविदाएं आमंत्रित की गई हैं। भारतीय खाद्य निगम के कई केन्द्रों पर गेहूं के भंडार समाप्त हो चुके हैं। खाद्य उत्पादन की वृद्धि दर जनसंख्या की वृद्धि दर से काफी कम हो गई है और गेहूं का उत्पादन पिछले वर्ष के 710 लाख टन से घटकर 685 लाख टन रह गया है। यह मुख्यत: इसलिए हुआ है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा के अनाज उगाए जाने वाले क्षेत्रों में मिट्टी की उपजाऊ क्षमता के समाप्त होने की जांच हेतु कदम नहीं उठाए गए थे। इस स्थिति पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देने और इस स्थिति से उबरने के लिए दिल की बजाए दिमाग से काम लेने की आवश्यकता है। क्योंकि खाद्य सुरक्षा पर एक अच्छे निर्णय से राष्ट्र के सामाजिक तथा आर्थिक स्वास्थ्य पर दूरगामी परिणाम पड़ेंगे।17

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