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गवाक्ष

by
Feb 7, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Feb 2006 00:00:00

पतित-पावनी पीड़ा का चीत्कार बनी हैशिव ओम अम्बरअभिव्यक्ति-मुद्राएंकटे ठूंठ पर बैठकर गई कोयलिया कूक,बाल न बांका कर सकी शासन की बन्दूक। -नागार्जुनफंसी गले में रह गई कोयलिया की कूक,दाएं भी बन्दूक थी बाएं भी बन्दूक। -यश मालवीयकटे आम के ठूंठ पर बैठ रही है कूक,यह कोयल की कूक है या फिर उसकी हूक। -चन्द्रसेन विराटआजादी की भीड़ में गड़बड़ हुई विशेष,अंग्रेजी भारत रही हिन्दी गई विदेश।हिन्दी हुई शकुन्तला भूल गया दुष्यन्त,दुर्वासा के शाप का जाने कब हो अन्त।-चन्द्रभाल सुकुमारभाई ब्राज किशोर सिंह किशोर की भावप्रवण पंक्तियों को उद्धृत करते हुए आज की बात प्रारंभ करता हूं-बेकल-बेकल सी है पावन गंगा धारा,सहमा हो अंधियारे से जैसे उजियारा।कदम-कदम पे जाल प्रदूषण का फैला है,रोज-रोज होता जाता आंचल मैला है।गंगा हिमगिरि के अन्तस् की वत्सलता है,गंगा संस्कृति के चन्दन की शीतलता है।गंगा की हर लहर एक इतिहास ग्रन्थ है,गंगा है पाथेय स्वयं में स्वयं पन्थ है।किन्तु आज अभिशापों की छाया गहराई,वरदानों की गाथा खुद से है सकुचाई।टूट-टूट कर बिखरा हीरक-हार बनी है,पतित-पावनी पीड़ा का चीत्कार बनी है।गंगा भारत के इतिहास की प्रशस्ति, वर्तमान की स्वस्ति और भविष्यत् की आश्वस्ति बताई जाती रही है। उसके साथ भारतीय मनीषा की तपो साधना, भारतीय लोकचेतना की आस्था और भारतीय कविता की सहज उद्भावना निरन्तर संयुक्त रही है। अव्याख्येय अनहद के अविराम संकीर्तन के रूप में गंगा का स्मरण, दर्शन, उसके अमृत-जल का आचमन और उसमें अवगाहन, निमज्जन भारतीय जन-गण-मन को पवित्र करता आ रहा है। हमारी पौराणिक चेतना गंगा को उस दिव्य नदी के रूप में देखती है जो सृष्टि के निर्माण, पोषण और विलयन के अधिष्ठाता त्रिदेवों से एक साथ सम्बद्ध है। विराट् के श्रीचरण, ब्राह्मा का कमण्डल और अन्तत: कैलासपति का जटाजूट गंगा के अधिष्ठान-स्थल हैं। तीनों लोकों को आप्यायित करने के कारण वह त्रिपथगा है, उसने भागीरथी और जाह्नवी संज्ञाओं को धारण कर राजर्षि भगीरथ और महर्षि जह्नु को पितृत्व का गौरव प्रदान किया है। शान्तनुप्रिया और देवव्रत भीष्म की मां के रूप में उसकी एक अलग गाथा पौराणिक पृष्ठों में संग्रहित है तो सगरपुत्रों के उद्धार की कथा हर पतित की व्यथा को उद्धार का आश्वासन देती है। डा. ब्राजेन्द्र अवस्थी के शब्दों में-कहते हैं हरिचरन से प्रवहमान है गंगा,ब्राह्मा के कमण्डल का अनुष्ठान है गंगा।शंकर की जटाओं में लिये स्थान है गंगा,धरती के लिए स्वर्ग का सोपान है गंगा।यदि गंगाजल का दर्श-स्पर्श पान मिल गया,तो तीनों देवताओं का वरदान मिल गया।गंगा की इसी दिव्यता को प्रणति निवेदित करते हुए पुन: पुन: इस देश की कवित्व-शक्ति ने उसकी अप्रमेयता को निरुपित किया है। कविवर चन्द्रशेखर मिश्र सत्य कहते हैं-और सब जल किन्तु यह है अमृतधार,ऋषि-मुनि कह गये ग्रन्थ में पढ़ा किया।इससे पवित्र भेंट कुछ न मिली हमें तो,गंगा से ही जल लिया गंगा में चढ़ा दिया।गंगा-गीता और गो हमारी संस्कृति की त्रिपदा गायत्री हैं। किन्तु इस देश के पिछले छह दशकों में इन तीनों के साथ व्यवहार में संवेदनहीनता की पराकाष्ठा परिलक्षित हुई है। गीता आज दैनन्दिन स्वाध्याय का ग्रन्थ न रहकर कचहरी में कसम खाने का साधन मात्र बन गई है, गोवंश की निर्मम हत्या के क्षेत्र में भारत ने वैश्विक मानक की स्थापना कर दी है और गंगा में निरन्तर बढ़ता हुआ प्रदूषण चीख रहा है कि भारत अब एक धर्म-प्राण देश नहीं पाखण्ड देश बन गया है। गंगा में गिरते हुए नालों और उद्योगों के जहरीले कचरे के लिए यदि सरकारी व्यवस्था पर दोष आता है तो उसमें अधजले शव तथा मृत पशुओं आदि को प्रवाहित करने, उसे एक श्रद्धा-स्थली के स्थान पर “पिकनिक-स्पॉट” के रूप में देखने की दोषी सामान्य जनता ही है!कविवर श्रीकृष्ण तिवारी की इन पंक्तियों में जिस आशंका की अभिव्यक्ति हुई है वह दिनोंदिन सच होती दीख रही है-जाह्नवी जिस दिन तुम्हारा जल जहर हो जाएगा,आस्था मिट जाएगी यह आदमी मर जायेगा।तुम महज सरिता नहीं हो अस्मिता हो देश की,भावना की और निष्ठा की तरल अभिव्यक्ति हो।तुम भगीरथ की तपस्या का सजल परिणाम हो,प्रेम की धारा अमल हो, भक्ति हो, अनुरक्ति हो।जाह्नवी जिस दिन तुम्हारी छवि धुआं हो जायेगी,प्राकृतिक सौन्दर्य का प्रतिमान ही मर जायेगा।आखिर हम कब जागेंगे?31

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