|
-हेमन्त कुकरेती
जीवन को कैसे दूं कि
मरने की बात ही नहीं उठे
अंजुरी में ढलक गई
रक्त की बूंद हूं मैं
या मिट्टी में दबा काठ का टुकड़ा
जिसे पानी गला देगा
या मैं विचार दूं
दुनिया को फिर से बनाने का
अपनी इस आग का क्या करूं
जिससे माथा तप गया
और जल रही हैं आंखें
कितनी मजबूत है यह जिल्द
जिसने बांधा हुआ है अब तक
अपने समय का दिवाकर बनो
कहते हैं विनय
और किनारे पर पड़ा
एक कंकड़
अनगिन सहस्रांशु जितना चमकने लगता है
वसंत को लाते हैं
झरे हुए पत्ते
उसका भी होता है एक अर्थ
33
टिप्पणियाँ