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सीताराम येचुरी की तीसरे मोर्चे की कवायद

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Feb 7, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 07 Feb 2006 00:00:00

दम है तो उतरो मैदान में

टी.वी.आर. शेनाय

मनमोहन सिंह शासन की न्यायपालिका के साथ जरूरत से ज्यादा ही उलझनें रही हैं। (क्या आपको याद है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के चरित्र को बदलकर सस्ती लोकप्रियता पाने की अर्जुन सिंह की कोशिश को निरस्त कर दिया था?) लेकिन एक फैसला शायद छुपे रूप में कांग्रेस के लिए वरदान की तरह आया है।

20 जून को आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पी.एस. नारायण ने मौजूदा पंचायती राज्य चुनावों की अधिसूचना को निरस्त कर दिया। संक्षेप में, निर्णय ने याचिकाकर्ताओं की उस याचिका को स्वीकार किया कि चुनाव हेतु कोई वैध मतदाता सूची नहीं है। इन पंक्तियों को लिखते समय 16,133 मंडल परिषदों और 10,97 जिला परिषदों के चुनाव प्रभावी रूप से रुक गए हैं। (जब तक कि राजशेखर रेड्डी सरकार उच्च न्यायालय की खंडपीठ में अपील दायर करती और जीतती नहीं है।) तेलुगुदेशम, जिसने मतदाता सूचियों में बार-बार और जोर-जोर से धांधलियों की शिकायत की थी, चहक रही है। यह सब कांग्रेस के मुंह पर एक तमाचे जैसा होना चाहिए।

आंध्र प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव सत्तारूढ़ कांग्रेस के लिए बेहद शर्मनाक रहे। इसका कारण माकपा और तेलुगुदेशम में पुनर्मिलन था। जब तक की चंद्रबाबू नायडू ने 1998 के आम चुनावों को देखते हुए तय नहीं किया था कि भाजपा के साथ जुड़ने में कहीं ज्यादा लाभ होगा, ये दोनों सहयोगी हुआ करते थे। वह टूट चुभन भरी थी और माकपा ने 1994 में कांग्रेस के साथ मिलकर उसका बदला लिया और खूब खुश थी। लेकिन केवल 2 साल में ही बीते समय की कड़वाहट धुल गई।

माकपा और तेलुगुदेशम के बीच गठजोड़, हालांकि इसे प्रकाश कारत और चंद्रबाबू नायडू दोनों का आशीर्वाद प्राप्त है, साफतौर पर जमीनी स्तर पर दबाव के कारण हुआ था। स्थानीय नेता दोनों दलों के आला नेताओं द्वारा इसे हरी झंडी देने से बहुत पहले से ही इस प्रकार के “तालमेल” की मांग करते आ रहे थे। माकपा के एक जिला सचिव उमा महेश्वर राव कहते हैं कि हमने यह निर्णय नीतिगत तौर पर लिया है। दूसरे शब्दों में, तेल कीमतों पर आंदोलन के दौरान हुए इस गठजोड़ को एक अन्य स्तर तक ले जाना केवल एक योजनागत चाल ही नहीं “नीतिगत” निर्णय भी था।

कांग्रेस तिलमिलायी हुई थी। एक शिकायत उठी कि आखिर माकपा उस तेलुगुदेशम से हाथ कैसे मिला सकती है जिसने एक सांप्रदायिक पार्टी का समर्थन किया और दस साल तक जनविरोधी नीतियां अपनाती रही ? इस तरह आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का निर्णय एक ढाढ़स की तरह आया, एक ऐसे मौके की तरह जिसमें माकपा से रिश्ते सुधारे जा सकें। दिल्ली में आलाकमान ने पहले ही मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी और राज्य पार्टी अध्यक्ष केशव राव दोनों को अपने सहयोगियों को साथ लेकर बढ़ने का निर्देश दे दिया है। आखिर खम्मम और नलगोण्डा की घटनाओं को लेकर दस जनपथ को इतना भय क्यों है?

राजशेखर रेड्डी सरकार पर किसी तरह का खतरा नहीं है। कांग्रेस के पास विधानसभा में पर्याप्त संख्या है, 294 के सदन में इसके 191 विधायक हैं जबकि माकपा के कुल 9 विधायक हैं, बहरहाल, कांग्रेस तब भी संसद में माक्र्सवादियों पर आश्रित है। कम्युनिस्टों ने हाल के केरल विधानसभा चुनाव में इस स्थिति का फायदा उठाया और प्रकाश कारत ने जनता के बीच समर्थन वापसी के खूब बयान दिए। अब कांग्रेस का डर है कि माकपा पश्चिम बंगाल और केरल के बाहर भी अपना वर्चस्व बढ़ाने की कोशिश में है।

आंध्र प्रदेश की घटनाओं को अलग करके नहीं देखना चाहिए। प्रकाश कारत के चंद्रबाबू नायडू को पास बिठाने के साथ ही उनके सहयोगी सीताराम येचुरी तीसरे मोर्चे का झंडा उठाए हैं और समाजवादी पार्टी उस पर रीझ रही है। क्या पहले वाले तीसरे मोर्चे की वापसी हो रही है, जिसमें, याद रखें, चंद्रबाबू नायडू और मुलायम सिंह यादव आगे की पंक्ति में थे?

14वीं लोकसभा का अंकगणित सीताराम येचुरी का समर्थन नहीं करता। लोकसभा की वेबसाइट पर 146 कांग्रेस सांसदों के नाम हैं और 128 भाजपा सांसदों के। ये मिलकर 274 होते हैं जो आधे से कुछ ही ऊपर हैं। जैसा कि नाम से साफ है कि तीसरा मोर्चा इन दो बड़ी पार्टियों में से किसी को भी अपने में शामिल नहीं करेगा। ऐसे में तीसरे मोर्चे को संख्या कहां से प्राप्त होगी?

सीताराम येचुरी का तीसरा मोर्चा तब तक एक मृगमरीचिका ही रहेगा जब तक तीन विकल्पों में से एक इसे बल नहीं देगा। पहला विकल्प है भाजपा या कांग्रेस में बंटवारा कर देना। दूसरा है कांग्रेस को 1996 की तरह बाहर से समर्थन के लिए उकसाना। तीसरा रास्ता है आम चुनाव में जनमत हासिल करना। क्या इनमें से कोई भी दृश्य संभावित है?

दलबदल विरोधी कानून देखते हुए भाजपा या कांग्रेस को तोड़ना आसान नहीं होगा। वैसे, लगता नहीं है कि भाजपा या कांग्रेस का सांसद 30 दलों के जर्जर तीसरे मोर्चे से जुड़ेगा। क्या कांग्रेस पर बाहरी समर्थन का दबाव बनाया जा सकता है? एक बार फिर मुझे इस पर संदेह है। अब केवल एक ही व्यावहारिक मार्ग बचता है यानी-चुनाव। इसके धुंधले से आसार हैं। इस पर जरा नजर डालें। बढ़ती कीमतों के कारण कांग्रेस की अलोकप्रियता बढ़ रही है। अमरीकापरस्त नीतियों के कारण मुस्लिमों में प्रतिक्रिया बढ़ी है। केरल, तमिलनाडु में अभी शासन विरोधी जैसी को कोई स्थिति नहीं है। उत्तर प्रदेश में भी अगले कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं। और उन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और उस समाजवादी पार्टी में खींचतान दिखाई देगी जिसका माकपा समर्थन करती है। और भाजपा इतनी बेतरतीब स्थिति में है कि तीसरा मोर्चा निश्चित रूप से इसकी कीमत पर लाभ प्राप्त कर सकता है।

क्या ये कारक आने वाले तीन सालों तक कारगर रहेंगे? तेल की बढ़ी कीमतें शायद भुला दी जाएं। तमिलनाडु और केरल में सत्ता विरोधी भावना अपना असर दिखाए। अत: संभावित तीसरे मोर्चे के संदर्भ में कांग्रेस को अपदस्थ करने का यह सबसे अच्छा समय है।

पर इससे तब भी एक सवाल बचता है। क्या तीसरे मोर्चे के सहयोगियों आम तौर पर- और माकपा खास तौर पर- में इतनी हिम्मत है कि आम चुनावों में उतर सकें। आंध्र प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस को थोड़ी परेशानी पहुंचाना अलग बात है, लेकिन एक संपूर्ण विद्रोह बिल्कुल अलग मामला है। और सीताराम येचुरी की तीसरे मोर्चे पर की गई अति प्रचारित टिप्पणी के संदर्भ में मुझे वास्तव में नहीं लगता कि इस समय माकपा आम चुनावों का जुआ खेलेगी।

अत: क्या मनमोहन सरकार सुरक्षित है? कह सकते हैं, एक सीमा तक। माकपा के लिजलिजे समर्थन पर टिकी कोई सरकार अपने बारे में आश्वस्त नहीं हो सकती। लेकिन इस वक्त भारत के लिए सबसे बेहतर विकल्प मुझे यही लगता है कि मनमोहन सिंह सरकार जैसे-तैसे चलती रहे। (21-6-06)

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