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सम्पादकीय

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Feb 4, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Feb 2006 00:00:00

चित्त के प्रशान्त हो जाने पर शुभाशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं। प्रशान्त मन वाला पुरुष आत्मा में स्थित होकर अक्षय आनन्द की प्राप्ति करता है।-मैत्रेयी उपनिषद् (1/6)कितनी प्रामाणिकता?यद्यपि श्रीमती सोनिया गांधी ने लोकसभा की सदस्यता और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर सब ओर इस प्रकार की छवि बनाने का प्रयास किया है कि उन्होंने त्याग किया है। परन्तु इस कदम को उचित मानते हुए भी इसके पीछे की प्रामाणिकता केवल तब सिद्ध होगी जब उन्हीं की तरह कांग्रेस के अन्य सांसद एवं लोकसभा के अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी इस उदाहरण का अनुकरण करते हुए अपने पदों से त्यागपत्र दे दें। सोनिया गांधी के इस्तीफे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसे चारों ओर से घिर जाने पर बाध्यता में उठाया कदम कहा है। उन्होंने प्रश्न किया कि अगर यह “नैतिकता” का तकाजा था तो जब मित्रोखिन दस्तावेजों ने कांग्रेस पर आरोप लगाए थे तब ऐसा क्यों नहीं किया गया? जब वोल्कर रपट ने श्रीमती गांधी का नाम साफ तौर पर लिया था तब इस्तीफा क्यों नहीं दिया गया? और अभी क्वात्रोकी के बैंक खातों के मामले में “नैतिकता” कहां गायब हो गई थी?इसमें दो राय नहीं है कि सांसद रहते हुए भी सोनिया गांधी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् की अध्यक्ष थीं। यह ऐसा पद था जो सरकारी सुख- सुविधाओं से परिपूर्ण था परन्तु सोनिया गांधी की उस तरह से कोई जवाबदेही नहीं थी। राजनाथ सिंह ने कहा कि चूंकि सोनिया गांधी संसद और चुनाव आयोग की जांच का सामना करने का साहस नहीं जुटा पार्इं इसलिए इस्तीफा देकर खुद को “नैतिकता” की प्रतिमूर्ति के रूप में प्रस्तुत कर दिया। श्री सिंह ने भाजपा की वह मांग भी दोहराई कि सरकार तुरंत संसद का सत्र बुलाए और इस गंभीर विषय पर चर्चा कराए। मीडिया के कैमरों की पहुंच के प्रति आश्वस्त सोनिया गांधी जानती थीं कि अब दो-चार दिन तक बस 10, जनपथ ही मीडिया पर हावी रहेगा और देश की गंभीर परिस्थिति तथा संप्रग सरकार के मुस्लिम तुष्टीकरण के निर्बाध जारी कामों से देश की जनता का ध्यान हट जाएगा। नक्सली, जिहादी आतंक तेजी से अपने पांव पसार रहा है, अलगाववाद चरम पर है और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का हर वह काम किया जा रहा है जिससे देश के बहुसंख्यक समाज के मन को ठेस पहुंचती है। सेकुलरवाद की नई-नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। महंगाई सातवें आसमान पर है। जीवनोपयोगी वस्तुएं आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में प्रदर्शन हो रहा है तो बस यह कि “सोनिया गांधी, इस्तीफा वापस लो”, “सोनिया गांधी आगे बढ़ो”। नैतिकता और राजनीतिक शुचिता निश्चित ही भारतीय राजनीति के मापदंड रहे हैं। लेकिन आज लगता है कि ये मापदंड कहीं खो चुके हैं। राजनीति में नैतिकता कितनी और कहां बची है? घोटालों और माफिया के संजाल में घिरे राजनीतिज्ञों ने कौन सी हद नहीं पार की? स्टिंग आपरेशन की बात न भी करें तो भी क्या सब कुछ सही तरह चल रहा है? आज की राजनीति को इन सब सवालों का जवाब देना पड़ेगा। इस्तीफे तो लोकतांत्रिक पद्धति में बहुत मामूली सी बात दिखाई देते हैं क्योंकि इस्तीफा देने वाले पूरे विश्वास के साथ यह घोषणा भी करते हैं कि जल्दी ही वे अपने उसी चुनाव क्षेत्र से जीतकर फिर संसद में पहुंच जाएंगे। क्या समय नहीं आ गया है कि राजनीतिक जीवन में शुचिता पर एक गंभीर बहस हो? क्या देश के राजनेता ऐसे नहीं होने चाहिए कि समाज उनकी ओर उम्मीद भरी नजरों से देखे और एक आदर्श के रूप में उन्हें स्वीकारे? प्रामाणिकता के मापदण्ड अब नए सिरे से तय करने ही होंगे।7

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