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स्त्री

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Feb 4, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 04 Feb 2006 00:00:00

हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भ तेजस्विनी

तनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। आपके आसपास भी ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बल पर समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गर्इं। क्या आपका परिचय ऐसी किसी महिला से हुआ है? यदि हां, तो उनके और उनके कार्य के बारे में 250 शब्दों में सचित्र जानकारी हमें लिख भेजें। प्रकाशन हेतु चुनी गर्इं श्रेष्ठ प्रविष्टि पर 500 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।

आसमान छूते इरादे

अरुण कुमार सिंह

पूनम वाल्मीकि

पोलियो के कारण उसके दोनों पैर बेकार हैं इसलिए वह सामान्य रूप से चल भी नहीं सकती है। पर पूनम अपने मोहल्ले में सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी है। गजब की है उसकी जिजीविषा। पूनम सुबह पहले कालेज जाती है। वहां से लौटकर अपने मोहल्ले की निरक्षर महिलाओं को अक्षर ज्ञान कराती है और शेष समय का उपयोग स्वाध्याय के लिए करती है। पूनम वाल्मीकि की उम्र है मात्र 22 वर्ष। पूर्वी दिल्ली के यमुना विहार से सटी एक छोटी-सी कालोनी बृजपुरी में अपने माता-पिता और तीन भाइयों के साथ रहती है। इस कालोनी में लगभग सभी घर वाल्मीकि समाज के हैं। यहां के अधिकांश स्त्री-पुरुष दिल्ली नगर निगम या अन्य निजी संस्थानों में सफाई कर्मचारी का काम करते हैं। यहां कुछ ही लोग पढ़े-लिखे हैं, वह भी मुश्किल से सातवीं-आठवीं तक। इस प्रतिकूल माहौल और शारीरिक अक्षमता के बावजूद पूनम ने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अब वह स्नातक (वाणिज्य) अन्तिम वर्ष की छात्रा है। तीन भाइयों से छोटी है पूनम, पर सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी है और आगे भी पढ़ाई की तमन्ना रखती है। पूनम के माता-पिता दोनों दिल्ली नगर निगम में सफाई कर्मचारी हैं। मां श्रीमती बाला कहती हैं, “उन दिनों मैं अपने बच्चों के साथ बागपत (उ.प्र.) के एक गांव में रहती थी। पूनम मात्र 2 साल की थी, तभी उसे एक बार तेज बुखार आया। इलाज ठीक से नहीं हो पाया और उसके दोनों पैर बेकार हो गए। घर में बेटी के नाम पर अकेली यही है, इसलिए पूरा परिवार सोच में पड़ गया। हम लोगों को इसके भविष्य की भी चिन्ता होने लगी। समय बीतता गया और वह छह साल की हो गई।

गांव-घर की हमारी बिरादरी की एक भी लड़की पढ़ने नहीं जाती थी, इसलिए इसको पढ़ाना है, ऐसा विचार भी मन में नहीं आया था। किन्तु इसके ठीक होने की आस भी हमने नहीं छोड़ी थी। सालों तक कई डाक्टरों को दिखाया। एक डाक्टर ने मुझे सलाह दी कि “अब इसका इलाज कराना बेकार है। तुम इसे पढ़ने भेजो। भगवान ने चाहा तो पढ़ाई करके यही तुम्हारे घर का नाम रौशन करेगी।” उनकी यह सलाह मुझे अच्छी लगी और मैं दूसरे ही दिन इसे लेकर बागपत के एक ईसाई स्कूल में गई, जो मेरे घर के नजदीक था। वहां के प्रधानाध्यापक ने इसका दाखिला करने से साफ मना कर दिया। पास में और कोई दूसरा स्कूल भी नहीं था। इसके पिता जी काम के लिए बागपत से दिल्ली प्रतिदिन आना-जाना करते थे। इसका यहां दाखिला न होते देखकर हम लोगों ने दिल्ली में ही रहने का फैसला किया और कुछ ही दिन बाद दिल्ली आ गए। दिल्ली में रहने लायक हमारी स्थिति नहीं थी। किसी तरह गुजारा करने लगे। यहीं एक सरकारी स्कूल में इसका दाखिला करा दिया गया। रोज मैं गोद में लेकर इसे स्कूल छोड़ती और वापस लाती थी। अब यह खुद रिक्शे से कालेज जाती है।”

मां-बाप के इस त्याग को पूनम भी बहुत अच्छी तरह जानती है। वह कहती है, “मेरी वजह से मेरे मां-बाप ने इतने कष्ट उठाए। मैं उनकी अपेक्षा पर खरी उतरने का प्रयास कर रही हूं। मेरे दो सपने हैं, एक, एम.काम. करने के बाद कालेज में पढ़ाना और दूसरा, निरक्षरों को साक्षर बनाना। वह दिन मेरे लिए सौभाग्य का दिन होगा, जब मैं कुछ निरक्षरों को साक्षर बना पाऊंगी।” इन्हीं सपनों को लेकर पूनम आगे बढ़ रही है। प्रतिदिन सायं 3 से 4 बजे तक वह अपने घर में 10-12 निरक्षर महिलाओं को पढ़ाती है। उसका धर्म-कर्म में भी गहरा विश्वास है। उसी की पहल पर मोहल्ले के हर घर में प्रतिदिन सुबह शंख बजाया जाता है। निरक्षरों के लिए पठन-सामग्री आदि की व्यवस्था सेवा भारती, दिल्ली प्रदेश की ओर से की जाती है।

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