सवाल कश्मीर का
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सवाल कश्मीर का

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Jan 1, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Jan 2006 00:00:00

“सेल्फ रूल” जम्मू-कश्मीर को हिन्दुस्थान से तोड़ने की साजिश है

– प्रो. भीम सिंह

अध्यक्ष, पैंथर्स पार्टी

डल झील जम्मू-कश्मीर में

शंकराचार्य मन्दिर

केन्द्र में मनमोहन सिंह सरकार ने सत्ता में आने के बाद से कश्मीर पर जिस तरह की नीति अपनाई है उस पर आपकी क्या टिप्पणी है?

संप्रग सरकार की कश्मीर पर बयानबाजियां चाहे कुछ भी रही हों, असलियत कुछ और है। जम्मू-कश्मीर भारत का न केवल अटूट अंग है बल्कि ताज-ए-हिन्द है। यह हमारे संविधान में निहित है। 1994 में तमाम राजनीतिक दलों ने संसद के दोनों सदनों में प्रस्ताव पारित किया था कि जम्मू-कश्मीर में मुद्दा बस एक है कि पूरा जम्मू-कश्मीर भाग खाली कराया जाए। इसका साफ अर्थ है कि भारत कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान या किसी से भी बात करना चाहता है तो वह बात संविधान के दायरे में ही हो सकती है। और संविधान में यह बात साफ तौर पर समाहित है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है।

लेकिन आज केन्द्र सरकार कश्मीर समस्या को लेकर जिस दिशा में बढ़ रही है, वह क्या संतोषजनक कही जा सकती है?

हमें तो आज तक कोई दिशा नजर नहीं आई है। जो दिख रहा है वह यह है कि हम आतंकवाद का हौसला बढ़ा रहे हैं। प्रदेश की पिछली सरकार, जिसमें पीडीपी और कांग्रेस थे, ने जितने भी कदम उठाए उनसे आतंकवाद को बढ़ावा मिला, आतंकवादियों के हौसले बढ़े। समर्पण कर चुके आतंकवादियों को हर महीने तीन-तीन हजार रुपए दिए गए। राज्य के पढ़े-लिखे नौजवान, जो डाक्टर- इंजीनियर थे, 50-50 रु. रोजना पर प्रतिबंधित मजदूर बना दिए गए। आतंकवादियों को जेल से गाड़ियों में बैठाकर घर तक छोड़ा गया। राजग सरकार के विदेश मंत्री जसवंत सिंह उन्हें जहाज में बिठाकर कंधार ले गए थे। प्रदेश में चाहे पीडीपी नेतृत्व की सरकार रही या अब कांग्रेस की, इनकी नीतियों में कोई फर्क नहीं है। इनकी नीतियां अमरीका और बरतानिया, यानी अमरीकी गुट को खुश करने की हैं।

क्या ऐसा नहीं लगता कि हमारी सरकार 1993 की अमरीकी नीति के अनुसार व्यवहार कर रही है?

1993 की क्या कहते हैं, आप 1951 की निक्सन योजना की बात करें, जिसका यही मकसद था कि जम्मू-कश्मीर को बांट दिया जाए। उसके अनुसार योजना थी, जम्मू क्षेत्र के मुस्लिमबहुल क्षेत्र, जो दरियाए चिनाब के उत्तर की ओर हैं, को कश्मीर से जोड़ा जाए। इसे तथाकथित वृहत् कश्मीर का नाम दिया, फिर “इस्लामिक रिपब्लिक आफ कश्मीर” का नाम दिया। यह अमरीका की नीति रही है। इस बार फिर अमरीका ने एक नया शगुफा छोड़ा जिसे पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने पूरे जम्मू-कश्मीर में “सेल्फ रूल” का नाम देकर प्रचारित किया था।

जनरल मुशर्रफ के इस “सेल्फ रूल” फार्मूले पर पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में क्या प्रतिक्रिया हुई?

पी.ओ.के. में किसी नेता ने इस फार्मूले का स्वागत नहीं किया। मुजफ्फराबाद में किसी राजनीतिक दल ने उसका स्वागत नहीं किया। यहां तक कि पिछले दिनों जब मैंने सरदार कयूम खां को दिल्ली बुलाया था, तब उन्होंने मुशर्रफ के इस “सुझाव” का विरोध करते हुए इसे गरीबों को झांसे में रखने वाला बताया था। लेकिन, अजीब बात है कि, इससे ठीक उलट कश्मीर घाटी के सभी राजनीतिक दलों-कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, हुर्रियत सहित- ने जनरल मुशर्रफ के इस “सुझाव” का स्वागत किया। “सेल्फ रूल” तो जम्मू-कश्मीर को हिन्दुस्थान से किसी भी कीमत पर तोड़ने की साजिश है।

अगर हुर्रियत सहित कश्मीर घाटी की सियासी पार्टियों ने ऐसा कहा तो क्या इसे देश-विरोधी कदम नहीं कहा जा सकता?

देशविरोधी ही नहीं उससे बढ़कर। और यह आज की बात नहीं है। कश्मीर में 90 प्रतिशत राजनीतिक नेतृत्व अमरीका द्वारा प्रायोजित है जिन्हें सी.आई.ए. और आई.एस.आई. संचालित करती हैं। मैं शुरू से यह बात कहता आ रहा हूं। यहां पर 6-7 वरिष्ठ पत्रकार हैं जो आई.एस.आई. से “वेतन” पाते हैं। हिन्दुस्थान की सरकार यह सब बहुत अच्छी तरह जानती है मगर बदकिस्मती यह है कि भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद राष्ट्रवादी नेता खत्म हो गए। आप जानते हैं कि मैं कभी श्रीमती इंदिरा गांधी की नीतियों का कभी समर्थक नहीं रहा, जेल में भी रहा। मानना पड़ेगा कि उनके जैसा आज कोई नेता नहीं है। लेकिन आज जो सियासी नेतृत्व है वह हर कदम उठाने से पहले वाशिंगटन से मशविरा करता है।

विश्वास बढ़ाने के लिए जो कदम उठाए गए हैं, रास्ते खोले गए हैं, क्या उनसे कोई स्थिति सुधरेगी?

जो रास्ते खोले हैं, किसके लिए खोले हैं, यह कभी सोचा है दिल्ली में बैठे लोगों ने? वहां ढोल बजा दिए मीडिया के सामने, बस। मीडिया के जरिए चाहे कुछ दुष्प्रचार करा दो। इलेक्ट्रानिक मीडिया पर तो किसी का नियंत्रण नहीं है। मैं समझता हूं कि विश्वास बढ़ाने के कदम महज प्रोपेगेण्डा हैं और कुछ नहीं। जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रवादी तबका, चाहे वह किसी समुदाय का है, आज खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है।

क्या कश्मीर समस्या के हल के नाम पर सरकार कश्मीर को बुश-परवेज के हवाले करती दिख रही है?

पं. जवाहरलाल नेहरू ने 1947 में श्रीनगर के लाल चौक पर कहा था कि हरि सिंह कौन हैं जम्मू-कश्मीर का फैसला करने वाले। इसका फैसला कश्मीरी करेंगे। उन्होंने ही यह मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर भ्रम पैदा किया था। हिन्दुस्थानी के नाते मेरी नागरिकता निर्धारित करने वाले कांग्रेसी कौन होते हैं। आज आप जम्मू-कश्मीर में जनमत करवा लीजिए, 90 प्रतिशत लोग भारत के पक्ष में मत करेंगे। लेकिन भारत ने आज तक हमें अपनाया नहीं है। यह त्रासदी है। कश्मीर में समस्या तब तक बनी रहेगी जब तक भारत की संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में कानून बनाने का अधिकार नहीं दिया जाता। धारा 370 में एक संशोधन लाया जाना चाहिए कि संसद के पास अधिकार हों कि वह विलय के दस्तावेज से संबंधित मामलों के बारे में कानून बना सकती है।

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