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सिख पंथ के पांचवें गुरु श्री अर्जुन देवगोरक्षा के लिए जिन्होंने दिया बलिदानमाधवदास ममतानीसिख पंथ के पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव चौथे गुरु श्री रामदास के सुपुत्र थे। उनकी माताजी का नाम भानी था। गुरु अर्जुन देव का जन्म गोविंदवाल में 19 बैशाख वदी 7, सं. 1620 को हुआ था। उम्र के 18वें वर्ष में ही गुरुजी ने सुदी एकम (आसु 2) संवत 1638 अर्थात 1 सितंबर, 1581 को गुरु गद्दी ग्रहण की। अपने जीवनकाल में उन्होंने अमृतसर के प्रसिद्ध हरिमंदर साहिब की स्थापना की, जिसे स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर की प्रथम ईंट रखने के लिए उन्होंने लाहौर के प्रसिद्ध संत मियांमीर को आमंत्रित किया था। गुरुजी ने लोगों की भलाई के लिए अनेक सरोवर व कुएं खुदवाए तथा गोबिंदपुर, तरनतारन, करतारपुर, शेहरट्ठा, कीरतपुर आदि नगर भी बसाए।गुरु अर्जुनदेव ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब, सुखमनी साहिब, बावन अखरी, बारह माहा सहित अनेक प्रसिद्ध ग्रंथों का रचना की।श्री गुरुग्रंथ साहिब : संगत ने गुरुजी से प्रार्थना की थी कि अनेक व्यक्ति गुरुनानक के नाम पर शबद, कविता, भजन लिख रहे हैं जो कि काफी प्रचलित हैं। इन शबदों में नानक नाम का उच्चारण हो रहा है जिनसे यह समझना कठिन है कि गुरु जी की असली वाणी कौन-सी है? इस समस्या का समाधान करने के लिए गुरुजी ने सोचा कि एक ग्रंथ की रचना की जानी चाहिए जिसमें सभी गुरुओं की वाणी को अलग-अलग स्थान दिया जाए। अत: अमृतसर के रामगढ़ में, जिसे आज गुरुद्वारा रामसर के नाम से जाना जाता है और जो श्री हरिमंदर साहिब के समीप है, गुरुवाणी लेखन भाई गुरुदास जी की सहायता से प्रारंभ हुआ। गुरुजी ने स्वयं विभिन्न रागों में परमात्मा की प्रशंसा के शब्द लिखे हैं।श्री गुरुग्रंथ साहिब की रचना का कार्य निरंतर चलता रहा और संवत् 1661 भादों सुदी एकम को समाप्त हुआ। इस ग्रंथ को श्री हरिमंदर साहिब में स्थापित कर प्रधान ग्रंथी बाबा बुड्ढाजी को बनाया गया। कालान्तर में सिख पंथ के दसवें गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी ने नांदेड़ स्थित सचखंड गुरुद्वारे में श्री गुरुग्रंथ साहिब को गुरु गद्दी सौंपकर सभी सिखों को आज्ञा दी कि श्री गुरुग्रंथ साहिब ही सिख पंथ के ग्यारहवें गुरु हैं।श्री सुखमनी साहिब – “सुखों की मणी”सुखमनी साहिब गुरु अर्जुन देव महाराज की प्रमुख रचना है। सुखमनी का शाब्दिक अर्थ है सुखों की मणी अर्थात खुशियों का खजाना। गुरुजी ने इसकी रचना मंजी साहिब, रामसर सरोवर, अमृतसर में की। सुखमनी साहिब में गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित विशेष मंत्र है। सुखमनी साहिब के सिमरन का विशेष फल है। मनुष्य दिन-रात में 24,000 बार सांस लेता है, सुखमनी साहिब में 24 अष्टपदी (खंड) हैं, जिनमें 24,000 शब्दों का संकलन है। सुखमनी साहिब का दिन में 1 बार पाठ करने से प्रत्येक सांस के साथ परमात्मा का नाम जुड़ने का फल मिलता है।कहा गया है कि श्री सुखमनी साहिब का पाठ किसी के मन में बस गया तो वह स्वयं खजाना हो जाएगा व दूसरों को सभी प्रकार का आशीर्वाद व वर देने में सक्षम होगा। श्री सुखमनी साहिब का पाठ करने वाले के घर में क्षमा, शांति, रिद्धि-सिद्धियों की प्राप्ति का आशीर्वाद होगा और उसे उत्तम स्नान अर्थात गंगा-गोदावरी के नहाने का फल प्राप्त होगा। गुरु अर्जुनदेव द्वारा रचित श्री सुखमनी साहिब के नियमित पठन से आत्मिक शांति व मुक्ति मिलती है। इसलिए सुखमनी साहिब का पाठ नियमित करना चाहिए।गोरक्षा के लिए गुरुजी का बलिदानगुरुजी के एक पुत्र थे हरगोविंद, जो आगे चलकर सिखों के छठे गुरु हुए। श्री हरगोविंद के रिश्ते की बात एक मध्यस्थ के माध्यम से सदाकौर नामक युवती से चल रही थी। सदाकौर चंदूमल की सुपुत्री थी, जो कि दिल्ली के शासक जहांगीर का वजीर था। चंदूमल बहुत ही घमंडी था। उसे संतों की शक्ति व महानता का ज्ञान नहीं था, वह उन्हें मांगने वाला फकीर समझता था। अत: उसे यह रिश्ता पसंद नहीं था लेकिन जो हो गया सो हो गया। लेकिन दिल्ली की संगत ने गुरुजी से यह रिश्ता नामंजूर करने के लिए कहा तो संगत की भावनाओं की कद्र करते हुए उन्होंने यह रिश्ता नामंजूर करने का निर्णय लिया।जब मध्यस्थ शगुन लेकर अमृतसर पहुंचा तो गुरुजी ने शगुन लेने से इनकार कर दिया। इससे रिश्ता स्वीकार न करने पर कष्ट उठाने पड़े। चंदूमल तो जहांगीर का वजीर था, इसलिए अपनी ताकत के बल पर झूठे मामले में उसने गुरुजी को गिरफ्तार करा दिया। चंदूमल आगबबूला हो गया। उसने गुरुजी से परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा। गुरुजी दृढ़निश्चयी तथा संगत की भावनाओं का सम्मान करते थे। परिणामत: उन्हें बेहद तकलीफें भुगतनी पड़ीं। उन्हें खौलते हुए पानी के ड्रम में डाला गया, जेल में बंद कर अन्न व जल से भी वंचित कर दिया गया। इसके पश्चात गुरुजी को तपते रेत पर बैठाया गया। पर इससे भी गुरुजी के निश्चय में कोई फर्क नहीं पड़ा। तब उन्हें गर्म लोहे की चादरों पर भी बैठाया। इतनी यातनाएं देने के बाद भी जब गुरुजी अडिग रहे तो कपटी चंदूमल ने उन्हें गाय की त्वचा में लपेटने का निश्चय किया ताकि गाय की त्वचा सूखने पर गुरुजी की भीतर ही भीतर सिकुड़कर, मृत्यु हो जाए। सभी अवतारों के समान गुरुजी भी गो हत्या के विरुद्ध थे। गुरुजी को ज्ञात हो गया कि उनका अंतिम समय आ गया है अत: उन्होंने गाय की चमड़ी में लपेटे जाने के बदले खुद का बलिदान देना ही उचित समझा। तब गुरुजी ने चन्दूमल से कहा कि बहुत दिनों से नहाए नहीं हैं इसलिए वे रावी नदी पर जाकर स्नान करेंगे एवं मंगनी के विषय पर पुनर्विचार करेंगे। कुछ सिपाहियों व गुरुसिखों के साथ गुरुजी रावी नदी पर गए और पहली डुबकी में ही आत्मिक शक्ति से अपने शरीर की इति कर दी। कहते हैं कि गुरुजी ने पहले ही निर्देश दे रखा था कि उनका शरीर रावी नदी में प्रवाहित किया जाए। यह भी माना जाता है कि गुरुजी को ये सभी यातनाएं जहांगीर के इशारे पर ही दी गई थीं। वजह कुछ भी रही हो, पर गुरु अर्जुन देव जी ने गोरक्षा के लिए ही बलिदान दिया। प्रत्येक गुरु सिख का परम कर्तव्य है कि गोरक्षा का व्रत कायम रखे और गोहत्या के विरुद्ध रहे। प्रत्येक गुरु सिख को गोमाता की रक्षा व उसका पालन करना चाहिए जैसे बीमार, बिना दूध देने वाली वृद्ध गाय की सेवा, चिकित्सा, चारा वगैरह व्यक्तिगत रूप से अथवा ऐसी निष्काम संस्थाओं को, जो यह कार्य करती हैं, उन्हें सामग्री के रूप में अथवा आर्थिक सहायता देकर यथोचित सहयोग करना चाहिए। यह खर्च प्रत्येक गुरु सिख को अपनी दसवंत (कमाई का दसवां हिस्सा) में से करना चाहिए।गुरु अर्जुन देव का शहीदी दिवस ज्येष्ठ शुक्ल 4, संवत 1663 को हुआ था और इस वर्ष ज्येष्ठ शुक्ल 4 की समकक्ष अंग्रेजी तारीख 11 जून, 2005 शनिवार है। श्री गुरुग्रंथ साहिब में हमारे गुरुओं ने बारह मासों का वर्णन किया है और सिख पंथ के वेद व्यास भाई गुरदास व सूरजप्रताप ग्रंथ के रचयिता कवि चूड़ामणी संतोखसिंह ने भी उन्हीं बारह माह की तिथियों को आधार मान कर हमारे गुरुओं की जन्म एवं शहीदी तिथियां लिखी हैं और इन्हीं के आधार पर हम आदिकाल से गुरपर्ब मनाते आए हैं। तख्त श्री हरिमंदिर साहिब, पटना साहिब (जहां श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का अवतार हुआ है) व तख्त श्री सचखंड श्री हजूर साहिब, वहां की संयुक्त दुष्ट दमन जंत्री में भी गुरपर्व का आधार बारह माह की वर्णित तिथियां ही हैं। अत: पुरातन मर्यादानुसार गुरु अर्जुनदेव का शहीदी दिवस इसी तारीख को मनाना चाहिए।NEWS
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