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अमरीका के साथ रक्षा समझौता-प्रणव मुखर्जी ने भारत-उदय की गर्वीली छवि प्रस्तुत की-तरुण विजयभारत के रक्षा मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी औरअमरीका के रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफील्डभारत के रक्षा मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी और अमरीका के रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफील्ड ने गत 29 जून को जिस महत्वपूर्ण दस वर्षीय रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए उसके परिणामस्वरुप दोनों देश संयुक्त रुप से हथियारों के उत्पादन, प्रक्षेपास्त्र, रक्षा प्रणाली में सहयोग और संवेदनशील सैन्य प्रौद्योगिकी पर लगे अमरीकी निर्यात प्रतिबंधों को भारत के पक्ष में उठाने की संभावनाएं प्रबल हो गई हैं। इस समझौते से अंतत: भारत को कितना लाभ होगा और अमरीका भारतीय बाजार में कितनी पैठ बनाएगा, इसका विश्लेषण समझौते के दस्तावेज के अध्ययन के बाद ही सही अर्थों में किया जा सकेगा। यह समझौता भारत की रक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने में मील का पत्थर सिद्ध होगा, यह अभी कहा जा रहा है और भारत तथा अमरीका के मध्य एक उच्च स्तरीय सामरिक भागीदारी को मजबूत बनाएगा। दोनों रक्षा मंत्रियों ने एक रक्षा आपूर्त्ति तथा उत्पादन समूह भी बनाने पर सहमति जताई है जो रक्षा क्षेत्र के व्यापार प्रौद्योगिकी, सहयोग, सैन्य अनुसंधान विकास परीक्षण और मूल्यांकन के साथ नौसेना के वैमानिकों के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था करेंगे। श्री प्रणव मुखर्जी ने इस बात को स्पष्ट किया है कि भारत- अमरीका रक्षा सहयोग को रुस की कीमत पर नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि कुछ देश किसी खास किस्म की प्रौद्योगिकी में अधिक आगे होते हैं और कुछ बाकी क्षेत्र में। इसलिए एक ही देश हर प्रकार की आवश्यकता पूरी करेगा ऐसा कभी मानना नहीं चाहिए।लेकिन जो कमाल की बात हुई है वह है प्रणव मुखर्जी का वाशिंगटन के अत्यंत महत्वपूर्ण विचार केन्द्र “कार्नगी एंडोमेंट फार इंटरनेशनल पीस” में दिया गया भाषण। यह एक राष्ट्रवादी देशभक्त का भारत की सामरिक प्राथमिकताओं और भविष्य में समर्थ, समृद्ध, प्रगतिशाली भारत के उदय की विश्वसनीय छवि प्रस्तुत करने वाला एक ऐसा दस्तावेज है जिसे पढ़कर हर भारतीय का मन आनंदित होगा। उन्होंने यह सिद्ध किया कि जब दुनिया के बाकी देश अपने-अपने स्तर से प्रगति के पठार पर पहुंच चुके होंगे जिसके बाद सिर्फ नीचे ही जाना संभव होगा, उस समय भी भारत आर्थिक दृष्टि से प्रगति पथ पर आगे बढ़ रहा होगा। उन्होंने स्पष्ट रुप से भारत के अगल बगल में दो शत्रुओं की स्थिति बताई और यह कहा कि हजारों वर्ष के बाद यह पहली बार 1947 के विभाजन के बाद हुआ है कि भारत का अपने उत्तर-पश्चिमी देशों के साथ सीधा और जीवंत सम्पर्क टूटा है। उन्होंने पाकिस्तान पर जिहाद और आतंकवाद बढ़ावा देने का आरोप लगाया और कहा कि भारत उसका शिकार हो रहा है। उन्होंने चीन को भी भारत के लिए एक परमाणु शक्ति संपन्न शत्रु के वर्ग में रखा और कहा कि हजारों सालों से भारत की संस्कृति का यही संदेश रहा है कि हमने कभी विस्तारवादी आक्रमणकारी नीतियां नहीं अपनाई। यदि कहीं कुछ अपना प्रभाव हमने छोड़ा है या दुनिया के अन्य देशों में अपना संदेश दिया है तो वह संदेश केवल शांति और सह अस्तित्व का ही रहा है। क्योंकि यह भारत की सभ्यता की सनातन पहचान रही है। वे अमरीका के साथ झुके नहीं, उससे भीख नहीं मांगी, भारत की दयनीय छवि प्रस्तुत नहीं की बल्कि दुनिया में भारत का कितना प्रबल स्थान होने वाला है यह बताया और कहा कि यह अमरीका के अपने हित में होगा कि वह इस नवोदित भारत के साथ घनिष्ठ सामरिक संबंध बनाए। यहां उस भाषण के कुछ अंश उद्धृत हैं।-भारत और अमरीका के लक्ष्यों में आज हम अनेक क्षेत्रों में मिलन बिन्दु देखते हैं और यह क्षेत्र मूल्यों के साथ-साथ अपने-अपने हितों के भी हैं तो साथ ही साथ वर्तमान समय के उच्च आदर्शों के भी। जैसे लोकतंत्र, मौलिक स्वतंत्रता और आर्थिक शक्ति एक ओर है तो दूसरी ओर आतंकवाद, जनसंहार के हथियारों का विस्तार, समुद्री सुरक्षा और अन्तरराष्ट्रीय शांति और स्थिरता।भारत का सामरिक दृष्टिपथ हमारे भूगोल, इतिहास, हमारी अपनी संस्कृति और भविष्य दृष्टि तथा भू राजनीतिक यथार्थ के आधार पर निर्धारित हुआ है। भारत एक महाद्वीप भी है तो उसके साथ ही सागर तटीय देश भी। 30 लाख वर्ग कि.मी. का क्षेत्रफल, 15 हजार कि.मी. की धरातलीय सीमा, 7 हजार 500 कि.मी. लम्बा सागर तट और 1 अरब 10 करोड़ की जनसंख्या के साथ दुनिया का दूसरा सबसे जनबहुल देश।महाद्वीपीय एशिया के आधार पर और हिंद महासागर के शिखर पर इसकी स्थिति इसे पश्चिम, केन्द्रीय महाद्वीपीय तथा दक्षिण पूर्वी एशियाई और पूर्वी अफ्रीका से इंडोनेशिया तथा हिंद महासागर में फैले समस्त देशों में सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण विशिष्टता प्रदान करती है।हिन्द महासागर, जो हमारे देश के नाम से जाना जाता है, उसमें भारत की भीतर तक पैठी हुई स्थिति, सुरक्षा और स्थिरता के लिए भारत पर एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी डालती है। पं0 नेहरु ने एक बार कहा था, “जब मैं भारत की ओर देखता हूं…..जिसके तीनों ओर सागर है और चौथी ओर ऊंचे पर्वत …….इतिहास ने यह बताया है कि जो भी शक्ति हिंद महासागर पर नियंत्रण रखती है न केवल उस पर भारत का समुद्री व्यापार बल्कि भारत की स्वतंत्रता भी निर्भर होती है।”मित्रों, भारत की 11 पड़ौसी देशों के साथ सांझी सीमाएं हैं। जिनमें से अधिकांश की सीमाएं उनके अपने ही देश के साथ नहीं लगतीं।भारत की प्राकृतिक स्थिति में जहां उत्तर की ओर हिमालय की ऊंची दीवार है और विशाल गंगा का मैदान है वहीं उत्तर पश्चिम दिशा से ही भारत की ओर आने का स्वाभाविक मार्ग बना जहां से पश्चिम और मध्य एशिया से हमलावर और फौजी विजेता आए जिनमें यूनान के सिकंदर से लेकर मध्य एशिया का बाबर तक शामिल है। लेकिन इसका उलट कभी नहीं हुआ। भारत से कभी आक्रमणकारी दूसरी दिशाओं में नहीं गए। हालांकि ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मौर्य सम्राट अशोक ने अफगानिस्तान में अपनी छाप जरुर छोड़ी पर वह छाप युद्ध के विरोध में तथा बौद्ध पंथ के अनुसार अहिंसा और शांति का सन्देश देने वाले शिलालेखों के माध्यम से थी।ऐतिहासिक दृष्टि से भारत हमेशा मौलिक रुप से एक “खुले द्वार” वाला समाज रहा है। बाहर से अनेक महत्वपूर्ण प्रभाव आए जैसे इस्लाम और ईसाईयत, अरब और फारसी। उन सबको इसने आत्मसात कर लिया और सभी सांस्कृतिक आभाओं को प्रतिभासित करते हुए वह एशिया में सांस्कृतिक प्रभाव का स्रोत बना। भारत मानवीय बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों, हिन्दू धर्म की दैवीय भौतिक अंतर्दृष्टि तथा बौद्ध पंथ के शांति के संदेश का महान स्रोत रहा है। हालांकि सामरिक दृष्टि-पथ सैन्य शक्ति के संदर्भों में व्याख्यायित करना परंपरा से उचित माना जाता रहा है, लेकिन भारत का सामरिक दृष्टि-पथ हमेशा धर्म, संस्कृति, अध्यात्म, कला, वाणिज्य और कालांतर में गांधी की राजनीतिक नैतिकता के संदर्भ में व्याख्यायित होता रहा है।बीसवीं शताब्दी में अनेक ऐसे घटनाक्रम हुए जिनकी जड़ें औपनिवेशिक इतिहास में थीं और जिन्होंने एशिया में अपने ऐतिहासिक पड़ौसियों के साथ भारत के संबंधों को प्रभावित किया। संभवत: सर्वाधिक विडम्बना पूर्ण घटनाक्रम था भारत का विभाजन और भारत के पश्चिम तथा उत्तर में एक शत्रुता पूर्ण प्रतिशोधी पाकिस्तान के रुप में कठिन सीमा का उदय। इसके परिणामस्वरुप हमारे चार हजार वर्ष पुराने इतिहास में पहली बार हमने स्वयं को अपने उत्तर पश्चिमी क्षेत्र के ऐतिहासक और वाणिज्यिक परिवेश से भौतिक रुप से कटा और “द्वार-बंद” पाया।इस परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि बीसवीं शताब्दी बाहरी विश्व के साथ भारत के ऐतिहासिक और पारंपरिक रिश्तों के रुपाकार में एक निर्णायक बाधा के रुप में आई।जहां उपनिवेशवाद ने हमारे पारंपरिक ऐतिहासिक संबंधों को बाधित किया वहीं शीत युद्ध ने इन संबंधों को फिर से कायम करने में विलम्ब पैदा किया।पिछले दो दशकों में भारत ने साढ़े छह प्रतिशत की औसत वार्षिक विकास दर हासिल की है और अब वह क्रय शक्ति के स्तर से दुनिया की चौथी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति है। विदेशी मुद्रा भंडार 1991 में एक अरब डालर से बढ़कर आज 140 अरब डालर तक पहुंच गया है और उस समय से अर्थव्यवस्था का आकार(सकल घरेलू उत्पाद)दुगुना हो गया है। हम 8 प्रतिशत की वार्षिक विकास दर तक पहुंचते हुए 2010 तक इसे पुन: दुगुना करने की आशा करते हैं। अनेक आधुनिक अध्ययनों से संकेत मिलता है कि भारत अगले 25 वर्षों में दुनिया की तीन सर्वाधिक आर्थिक बड़ी महाशक्तियों में से एक होगा।हमारी बड़ी जनसंख्या, कल तक जिसे बोझा कहा जाता था, आज हमारी शक्ति है। एक अरब लोगों में से 55 करोड़ भारतीय 25 वर्ष से कम आयु के हैं। 30 करोड़ की संख्या वाले मध्यम वर्गीय लगातार तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। हमारी सबसे बड़ी शक्ति दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा प्रशिक्षित मानव शक्ति भंडार है। हमारे विश्वविद्यालय तथा उच्च शिक्षा के केन्द्र हर वर्ष 20 लाख स्नातक शिक्षित कर रहे हैं। सूचना प्रौद्योगिकी में निपुण लोगों की संख्या जहां आज साढ़े छह लाख है, वहीं वह 2010 तक 20 लाख से अधिक हो जाएगी।हम उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं, हमारे वैज्ञानिक सुपर कम्प्यूटर बना रहे हैं, सम्पूर्ण परमाणु ईंधन चक्रीय सुविधाओं के क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर हैं तथा अंतरिक्ष में हम अपने उपग्रह स्वयं स्थापित कर रहे हैं। हमारी बौद्धिक प्रतिभाओं से प्रभावित अनेक महत्वपूर्ण देश सूचना प्रौद्योगिकी की सेवाएं लेने के लिए उनसे भारत केन्द्रित सेवाएं (आउट सोर्सिंग) ले रहे हैं और भारत अब शोध और विकास का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बना है। 500 फार्चून कंपनियों में से (फार्चून पत्रिका में निर्देशित विश्व की सबसे बड़ी 500 कंपनियां) 190 कम्पनियां भारत के सूचना प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों की सेवाएं बाहर केन्द्रित (आउट सोर्सिंग)प्रक्रिया के माध्यम से ले रही हैं। हमारे सूचना प्रौद्योगिकी का क्षेत्र 2002 में जहां 1.5 अरब डालर के स्तर तक बढ़ा है वहीं वह 2008 तक 17 अरब डालर तक बढ़ जाएगा। और यह उपलब्धि हम बायो टेक्नालॉजी, बायो जैनेटिक तथा दवाओं के क्षेत्र में भी हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं।यहां यह कहना उचित होगा कि हमने यह सभी उपलब्धियां प्रतिकूल सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और अन्तरराष्ट्रीय वातावरण में रहते हुए अधिकांशत: स्वयं अपने प्रयासों से हासिल की है। न ही हमें उन बाजारों तक पहुंच या विशेष संबंधों का लाभ मिला है जो अधिकांशत: बड़ी आर्थिक शक्तियों को मिला चीन के सिवाय।परंतु इन उपलब्धियों और संभावनाओं के साथ-साथ अनेक कठिन आर्थिक चुनौतियां हैं-अथाह गरीबी, आय और आर्थिक विषमताएं, क्षेत्रीय असंतुलन, विशाल और पिछड़ा हुआ ग्रामीण व कृषि क्षेत्र, आधारभूत ढांचे की सीमाएं, ऊर्जा संसाधनों की बेहद कमी तथा क्षेत्रीय और उससे परे के बाजार तक पर्याप्त पहुंच में कमी। वैश्विक एकल घरेलु उत्पाद में भारत का हिस्सा विश्व जनसंख्या में उसके हिस्से से नौ प्रतिशत कम है।सामरिक प्राथमिकताएं-मैं इस पृष्ठभूमि में भारत की प्रमुख सामरिक प्राथमिकता क्षेत्र बताना चाहूंगा। ये प्राथमिकता क्षेत्र चीनी पुस्तक “चार कमियां” के नमूने पर इस तरह बताए जा सकते है-ऐतिहासिक कमी, सुरक्षात्मक कमी, आर्थिक कमी और वैश्विक स्तर पर निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी की कमी।सामरिक ऐतिहासिक कमी दूर करना-भारत के आसपास के क्षेत्र से पारम्परिक संबंध पुन: कायम करना और सटे हुए पड़ोसी देशों के साथ साथ विस्तारित पड़ोस, खासकर भारत के पश्चिम में मध्य एशिया के साथ पुराने रिश्ते जोड़ना इसके अन्तर्गत आता है । हम भारत को अफगानिस्तान और उससे परे उत्तर में ही नहीं बल्कि पूर्व में बंगलादेश, म्यांमार से आगे के सभी देशों के साथ सड़कों, व्यापार यातायात के गलियारों, गैस पाइप लाइनों, पर्यटन और संचार के माध्यम से पारस्परिक समृद्धि का एक क्षेत्र बनाना चाहेंगे। लेकिन हमारी इस दृष्टि को सबसे बड़ी चुनौती हमारे पश्चिमी पड़ोसी से है। हमारी उत्तर पश्चिमी पड़ोसियों से ऐतिहासिक सम्पर्क फिर से जोड़ने की इच्छा पाकिस्तान से शांति बहाली में एक निहित स्वार्थ भी देती है। इसलिए यह आकस्मिक संयोग नहीं कि शांति का लगभग हर प्रयास भारत की ओर से हुआ है-चाहे वह शिमला हो, लाहौर या आगरा हो या श्रीनगर।हालांकि पाकिस्तान से शांति बहाली की दिशा में अनेक सकारात्मक कदम उठे हैं पर अभी यह नहीं कहा जा सकता कि शांति प्रक्रिया गहरे पैठ गयी है। पाकिस्तान और पाकिस्तान नियंत्रित क्षेत्र में आतंकवाद के लिए सहयोगी ढांचा बरकरार है। पाकिस्तान अमरीका के सहयोग से जिस प्रकार के आतंकवाद विरोधी अभियान अपनी पश्चिमी सीमा पर कर रहा है, उस प्रकार के अभियान हम भारत से जुड़ी सीमा पर नहीं देखते।सुरक्षा की कमियां दूर करना-21वीं सदी में भारत के सामने कुछ अलग किस्म की सुरक्षा चुनौतियां हैं। हम खतरनाक पड़ोस में रह रहे हैं। भारत कट्टरपंथी गतिविधियों, आतंकवाद और राजनीतिक अस्थिरता के अर्ध चन्द्राकार क्षेत्र के मध्य में है। यह क्षेत्र है-उत्तरी और पूर्वी अफ्रीका से दक्षिण पूर्वी एशिया के बीच का। गत एक दशक में नैरोबी और मोम्बासा में अमरीकी दूतावासों पर हमले से लेकर मोरक्को, मिस्र,तुर्की, सउदी अरब, बाली, जकार्ता से 1992 के मुम्बई विस्फोटों तक आतंकवादी गतिविधियों की श्रृंखला है। यह अक्सर महसूस नहीं किया जाता कि मुम्बई विस्फोट, जनता में आतंकवाद की वैसी ही हरकत थी जैसी 11 सितम्बर को अमरीका पर हुए हमले को जाना जाता है।हालांकि भारत अपने पूरे इतिहास में शांति प्रिय देश रहा है। परंतु आजादी के बाद से उसने अपने दो सबसे निकटस्थ पड़ोसियों से आक्रमण तथा संघर्ष का सामना किया है। उनमें से एक तो इस पूरे कालखंड में खुले तौर पर शत्रुतापूर्ण और दुस्साहसी रहा है। जबकि दूसरे के साथ क्षेत्रीय और सरहदी मुद्दे अभी भी अनसुलझे हैं। तीसरे, भारत हर दिन, सीमा पार से आतंकवाद और स्थानीय विद्रोह का सहारा लेने वाले छद्म युद्ध को झेल रहा है।चौथे, हमारे पड़ोस में जहां दो परमाणु हथियार सम्पन्न देश हैं जिनका हमारे साथ आक्रमण और संघर्ष का इतिहास रहा है, वहीं जनसंहार के हथियार उन लोगों के हाथों में रहने की संभावना से हमारा सामना हो रहा है, जो राज्य की जिम्मेदारी से अलग संगठनों में सक्रिय हैं।पांचवी बात यह कि हमारे पड़ोस में असफल हो रहे देश आतंकवादियों के पनपने की उर्वरा जमीन बन रहे हैं। और आखिरी बिन्दु-हमें समुद्री सुरक्षा की ओर अधिक ध्यान देना होगा। जैसा मैंने पहले ही कहा, पूर्वी अफ्रीका से दक्षिणी पूर्वी एशिया तक हिन्द महासागर का क्षेत्र कट्टरपंथियों, आतंकवादियों और लड़ाकू अलगाववादी या अतिवादी संगठनों, आपराधिक गुटों जो नशीले पदार्थों हथियारों और भाड़े के लोगों का व्यापार करते हैं, से भरा हुआ है। हर साल मलक्का की खाड़ी से 60,000 से ज्यादा पोत खाड़ी से पूर्वी एशिया तक गुजरते हैं।आर्थिक क्षेत्र की कमियां दूर करना-आर्थिक क्षेत्र की कमियों के तीन चरण हैं-एक ऊर्जा की कमी और इसकी पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भरता। हमारा 70 प्रतिशत कच्चा तेल आयात किया जाता है। प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत वैश्विक औसत खपत का सिर्फ पांचवा हिस्सा है। इसलिए हमें सस्ती और दीर्घकालीन ऊर्जा आपूर्त्ति की व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए हमें सर्वाधिक सुलभ परमाणु ऊर्जा का क्षेत्र उपलब्ध दिखता है। अमरीका के साथ सहयोग से, कुछ अमरीकी प्रतिबंध हटाते हुए इस दिशा में आगे बड़ा जा सकता है।दूसरा बिन्दु है प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कमियां दूर करने का। प्रौद्योगिकी नियंत्रण की व्यवस्था शीत युद्ध के समय की बाते हैं। यदि भारत को एशिया में विकास और स्थिरता का अग्रगामी बनना है तो यह अमरीका के ही हित में होगा कि वह प्रौद्योगिकी नियंत्रण को कितना जल्दी हटाए उतना अच्छा होगा।तीसरा बिन्दु है कृषि क्षेत्र की दुर्बलता दूर करने का। हम अन्न की कमी वाले देश से आत्मनिर्भर स्थिति तक तो पहुंचे हैं पर हमारे किसानों को विश्व अर्थव्यवस्था जुड़ने का लाभ नहीं मिला है और उन्हें प्रकृति तथा वैश्वीकृत बाजार की विपत्तियां झेलनी पड़ रही हैं। जब तक विश्व व्यापार संघ(डब्ल्यू0टी0ओ0)से किसानों को न्याय नहीं मिलता तब तक हमारे 60 करोड़ किसानों की आजीविका पर खराब असर पड़ता रहेगा और एक ऐसी पगलाहट भरी अर्थव्यवस्था दिखेगी जिसमें कुछ को बहुत लाभ होगा और बाकी दुखी रहेंगे।वैश्विक निर्णय लेने में भागीदारी-यदि वैश्वीकरण अनिवार्य है तो बहुलतावाद उसकी प्राणवाहिनी प्रक्रिया होगी। राष्ट्रसंघ और उसकी वर्तमान सुरक्षा परिषद् कि गठन के बाद से विश्व काफी बदल गया है। शीत युद्ध का संघर्षात्मक ढांचा ढह गया है। एक ध्रुवीय व्यवस्था नहीं टिक सकती। एशिया में चीन और जापान जैसी नयी शक्तियां उभरी हैं। अत:जमीनी सच्चाई देखते हुए सुरक्षा परिषद् का पुनर्गठन आवश्यक है। आकार, जनसंख्या, अर्थव्यवस्था, सैन्य शक्ति, अन्तरराष्ट्रीय शांति रक्षा में सहयोग, वैश्विक मामलों में जिम्मेदारी, भविष्य की संभावनाएं- हर दृष्टि से भारत सुरक्षा परिषद् का सदस्य बनने का एक स्वाभाविक दावेदार है।NEWS
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