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अब शिक्षा या व्यापार?नन्हीं जान और भारी बस्ता। स्कूलों की इसमें क्या भूमिका है? बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास पर इसका क्या असर हो रहा है? बचपन कहां खो रहा है? स्कूलों की इसमें क्या भूमिका है? इन तमाम सवालों के उत्तर जानने के लिए हमने कुछ लोगों से बात की।42 वर्षीय उपेन्द्र चौहान का एकमात्र पुत्र उत्कर्ष चौहान पटना के सर्वाधिक प्रतिष्ठित सेंट माइकल स्कूल में पढ़ता है। उत्कर्ष की उम्र 7 वर्ष है और वह दूसरी कक्षा का छात्र है। उपेन्द्र कहते हैं, “उत्कर्ष के बस्ते में 6 विषयों के लिए कुल 15 किताबें होती हैं और इसी अनुसार 15 कापियां भी। जांच के लिए अलग से 4 कापियां और फिर डायरी। यानी कुल 35 किताब-कापी। इसके अतिरिक्त पानी की बोतल और खाने का डिब्बा। सब मिलाकर लगभग 12 कि.ग्रा. का वजन रोजाना मेरे बेटे को ढोना पड़ता है। यह स्थिति करीब-करीब सभी निजी विद्यालयों की है।साढ़े तीन वर्ष का हर्षराज पटना के लोरेटो पब्लिक स्कूल में नर्सरी का छात्र है। उसकी मां श्रीमती कल्पना मिश्रा पटना उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं। वे बताती हैं कि हर्ष के लिए कुल 10 पुस्तकें हैं और इतनी ही संख्या में कापी। इसके अलावा स्कूल डायरी और कुछ अन्य कापियां। कुल मिलाकर 5-6 कि.ग्रा. का बोझ तो हो ही जाता है। एक नन्हे बच्चे के लिए यह बहुत बड़ा बोझ है। वे बताती हैं कि स्कूल से आने के बाद बच्चा काफी थका-मांदा होता है, उस पर गृह कार्य का भारी बोझ। साढ़े तीन साल का बच्चा इस स्थिति में नहीं होता कि 6 घंटे स्कूल में बिताने के बाद वह घर में आकर इतना सारा गृह कार्य करे। मुझे उस पर दया आती है, पर विवशता यह है कि अगर उस स्कूल में पढ़ाना है तो उसके नियम का पालन करना ही होगा। यह व्यवस्था बच्चों के साथ सरासर अन्याय है। इसके पीछे स्कूल प्रशासन द्वारा सिर्फ पैसा कमाने की मानसिकता है।लिटिल लैम पब्लिक स्कूल में कक्षा 6 का छात्र 11 वर्षीय पुष्कर कुमार कहता है कि 7वीं तक बच्चों के लिए पढ़ाई ऐसी होनी चाहिए, जिसे आसानी से हम समझ सकें। लेकिन यह इतनी उबाऊ और कठिन है कि दूसरी बात सोचने तक का वक्त नहीं मिलता। हमें पढ़ाई के साथ-साथ खेलने का भी समय मिलना चाहिए। पाठ्यक्रम इतना ज्यादा है कि खेलने का समय तो दूर, दूसरी बातों के लिए सोचने की भी फुर्सत नहीं होती।पटना के राजीव नगर में श्रीमती निभा ठाकुर संयुक्त परिवार में रहती हैं। उनके परिवार से 3 बच्चे अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूल में पढ़ने जाते हैं। निभा ठाकुर कहती हैं, “आज स्थिति ऐसी है कि जितना बच्चे को स्कूल में मेहनत करनी होती है, उससे कहीं अधिक अभिभावक को घर में करनी पड़ती है। बच्चे को न स्कूल में चैन है और न घर में। उनका बचपन छीन लिया गया है। उन पर पुस्तकों और कठिन पाठ्यक्रम को जबरन थोपा गया है। यह सब स्कूल प्रबंधन द्वारा अपनाई गई विशुद्ध व्यावसायिक नीति का परिणाम है।निजी स्कूल अभिभावकों को अपनी अंगुली पर नचाते हैं, पर शायद अभिभावकों के पास विकल्प भी नहीं है। कारण, सरकारी स्कूलों में जैसी पढ़ाई होती है, सब जानते हैं। बालिका मध्य विद्यालय, पटना के प्रधानाचार्य श्री राम कुमार शर्मा कहते हैं, “भले ही यह स्कूल राजभवन अहाते में है, लेकिन अधिकतर बच्चे झुग्गी-झोपड़ी बस्ती से यहां आते हैं। अगर सरकारी स्कूल में पढ़ाई की स्थिति सुधारनी है तो सबसे पहले शिक्षकों को टूशनों से रोकना होगा।” पटना के व्यस्त और महंगे इलाके बोरिंग केनाल रोड पर “उत्कर्ष इन्स्टीट्यूट” के नाम से “कोचिंग” संस्थान चलाने वाले श्री उमेश सिंह बिना झिझक स्वीकार करते हैं कि बहुत कम पूंजी में बड़ा मुनाफा कमाने वाला यह व्यवसाय तेजी से फल-फूल रहा है। वे कहते हैं, “सरकारी स्कूल, कालेजों की विफलता ने “कोचिंग” व्यवसाय के फलने-फूलने में सर्वाधिक मदद की है। जो सरकारी कालेज शिक्षक 25-30 हजार रुपए प्रतिमाह वेतन लेकर कालेज में नहीं पढ़ाते, वे ही बाहर अपनी “कोचिंग” चलाकर लाखों बटोर रहे हैं।” विज्ञान और प्रौद्योगिकी विषयों के “कोचिंग” संचालकों में कई ऐसे हैं जो पटना जैसे शहर में 5 से 8 लाख रुपए प्रतिमाह तक कमा लेते हैं। “कोचिंग” के नाम पर चारों ओर लूट मची है।-पटना से कल्याणीNEWS
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