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टी.जे.एस. जॉर्ज

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Oct 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

वरिष्ठ स्तम्भकारनहीं, कोई खतरा नहीं हिन्दुत्व कोपिछले पांच हजार वर्ष से भारत नि:संदेह एक हिंदू बहुल देश है, लेकिन इसको लेकर कभी कोई दावा नहीं किया गया। देश में कभी भी, किसी ने भी संख्या बल और बहुमत का प्रश्न न तो अधिकार की भावना में बहते हुए उठाया, न ही कभी किसी तरह की चिंता ही दिखी। यहां तक कि जब बौद्ध मत ने हिंदुत्व को चुनौती दी, उस समय भी प्रश्न संख्या का नहीं अपितु दर्शन का था। आदि शंकराचार्य ने चुनौती को स्वीकार करते हुए अद्वैत मत का प्रतिपादन किया, जिसने हिंदुत्व की आंतरिक समृद्धता को संरक्षित करने के साथ विश्व को एक अप्रतिम विचार भी दिया।मगर आज यह विषय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के कारण केवल संख्या बल के स्तर तक सिमट कर रह गया है। आज बहस हिंदुत्व की प्रतिबद्धता या दूसरे मतों के विचारों के बारे में न होकर भारतीय जन-जीवन और नीति में बहुमत के दबदबे को कायम करने की है। ऐसे में महत्वपूर्ण प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या संख्या बल के आधार पर पांथिक वर्गों में बंटा यह देश, भारत के रूप में एक रह पाएगा?यह सवाल अल्पसंख्यक वर्गों, खासकर मुसलमानों और ईसाइयों के तौर-तरीकों और उद्देश्यों से उपजे मौजूदा विवादों के कारण खड़ा हुआ है। मुसलमानों के चार बीवियों से निकाह करने की व्यवस्था का नाजायज फायदा उठाकर अपनी जनसंख्या को बढ़ाने और उसके परिणामस्वरूप हिंदू धर्म के लिए खतरा पैदा होने का तर्क कपोल कल्पना से अधिक कुछ नहीं है। जनगणना संबंधी आंकड़ों को हर वर्ग ने अपने हिसाब से अलग-अलग ढंग से लिया है और परिवार नियोजन के उपायों को न अपनाने के बावजूद मुसलमान किसी भी तरह से भारत जैसे देश में बहुसंख्यक नहीं हो सकते हैं। इतना ही नहीं, इससे मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बद से बदतर ही होगी।भारतीय मुख्यधारा के मूल्यों के साथ मुसलमानों के समरस न होने का आरोप अधिक तर्कसंगत है। यहां भी सभी मुसलमानों को एक ही तराजू पर तोलना गलत होगा। मुसलमानों में भी प्रगतिशील और शिक्षित तबका है, जो हमारी तरह ही पूरी समझदारी के साथ मुख्यधारा से जुड़ा हुआ है। जबकि मुस्लिम कट्टरपंथी और मुल्ला-मौलवियों का वर्ग अनावश्यक रूप से चर्चा में बना रहता है। मुस्लिम कट्टरपंथी और मुल्ला-मौलवी अपने आप में इस्लाम पर एक बड़ा कलंक हैं, क्योंकि वे मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन को जस का तस बनाए रखे हैं। उन्हें चर्चा करके, समझा-बुझाकर अथवा कानून के जरिए एक समान आचार संहिता सहित एक सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए दबाव बनाया जाना चाहिए। सांप्रदायिक दृष्टिकोण की बजाय मानवीय शिष्टताओं का पालन किया जाना चाहिए।जबकि दूसरी तरफ, ईसाइयों ने मतांतरण की अपनी कोशिशों से स्थानीय समाजों के लिए समस्याएं उत्पन्न करने के साथ झूठे मूल्यों के दुष्प्रचार से दुनिया भर के लिए परेशानी खड़ी कर दी है। आज के दौर में मतांतरण कराने में लगे ईसाई सार्वजनिक रूप से लोगों को मतांतरित करने के लिए हर सस्ती और ओछी चालबाजियों का इस्तेमाल करते हैं। मतांतरण एक सामाजिक कोढ़ है। ऐसे कार्यों में लगे ईसाई प्रसारकों की निंदा होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा करके वे ईसाइयत पर भी दाग लगा रहे हैं। दूसरे, सभी ईसाई मत-प्रसारक नहीं हैं और मतांतरण में नहीं लगे हैं। आज अमरीकी धन से पोषित, हर संभव तरीके से मतांतरण में लगे और प्रार्थना तथा चमत्कार की चंगाई सभा करने वाले प्रसारकों को चिन्हित करके अवांछितों की सूची में डाल देना चाहिए। पुराने दौर के मिशनरी, इनसे काफी अलग थे। उन्होंने या तो उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा का प्रसार किया अथवा कोढ़ग्रस्त रोगियों की बस्तियों में निचले तबके की सेवा में अपना जीवन बिताया था। सेंट जेवियर और लॉयला जैसे महाविद्यालयों ने भारतीयों की अनेक पीढ़ियों को सभ्य नागरिक के रूप में प्रशिक्षित किया है। इनके बिना, आधुनिक भारत निश्चित रूप से कमतर होता। यह विडंबना ही है कि धनवान और ऊंचे मशीनी तामझाम से लैस ईसाई प्रसारकों की ओछी करतूतों के कारण इन महाविद्यालयों के अच्छे कार्य भी अनदेखे हो रहे हैं।यह बात सही है कि इस्लाम और ईसाइयत के नाम पर काफी तादाद में शैतान प्रवृत्ति के लोग दिख रहे हैं पर क्या इतना भर हिंदू संस्कृति और भारत को भारत के रूप में जीवित रहने की आशंकाओं जन्म दे देता है? बहुत कुछ हिंदू संस्कृति की परिभाषा पर निर्भर करता है। एक बात तो निश्चित है कि हिंदू संस्कृति वैदिक संस्कृति से अधिक विशाल है। दूसरे, हिंदू संस्कृति के मायने धार्मिक न होकर सांस्कृतिक हैं। हिंदुत्व एक जीवन दृष्टि है, जिसमें से धर्म की उत्पत्ति हुई। इस्लाम और ईसाइयत संप्रदाय हैं, जिनसे जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण विकसित हुआ। हिंदुत्व की इस सांस्कृतिक विलक्षणता की उपेक्षा और उसके अक्षुण्ण भाव से मुंह मोड़ने का अर्थ हिंदुत्व को संप्रदायों की कतार में रखना भर होगा।शत्रु भाव रखने वालों की संख्या बल के कारण हिंदू संस्कृति के विलीन होने की आशंका प्रकट करने वाले लोग इस संस्कृति की भव्यता को विस्मृत कर देते हैं। हिंदू संस्कृति ने चीनी, मेसोपोटामियाई अथवा माया की सभ्यताओं से कहीं अधिक विशद् दर्शन विकसित किए। पश्चिमी जगत उसके अगाध ज्ञान से चकित है। सन् 1791 में जर्मन विद्धान गोएथे ने लिखा कि जब मैं शकुंतला का जिक्र मात्र करता हूं तो उसी में सब कुछ कह देता हूं। सन् 1798 में नेपोलियन के पास वेद थे। भगवद्गीता पढ़ने के लिए संस्कृत सीखने वाले आन्द्रे मॉलरॉ ने सन् 1936 में पंडित नेहरू को लिखा था, “महान शंकराचार्य को भारत का मार्गदर्शन करने दीजिए।” यह है हिंदू संस्कृति, बौद्धिक रूप से प्रेरक और सांस्कृतिक रूप से मानव सभ्यता को प्रतिष्ठा देने वाली। यह अन्य मतावलंबियों के संख्या बल से कमजोर नहीं पड़ सकती। इसे अगर कहीं से खतरा है तो वह कहीं भीतर से है।(लेखक एशिया वीक, हांगकांग के संस्थापक संपादक औरसम्प्रति न्यू इंडियन एक्सप्रेस, बंगलौर से जुड़े हैं)NEWS

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