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बहुसंख्यक हिन्दुओं की देन है सेकुलरिज्म

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Oct 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

सरदार तरलोचन सिंहअध्यक्ष, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोगएवं राज्यसभा सदस्यराष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पहले गैरमुस्लिम अध्यक्ष एवं राज्यसभा सदस्य सरदार तरलोचन सिंह ने सन् 2001 की जनगणना के पंथानुसार आंकड़ों का जो विश्लेषण करवाया, उसने पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ रही ईसाइयों की जनसंख्या को सबके सामने ला दिया। इसी कारण इन दिनों उनका काफी विरोध हो रहा है। क्या है उस रपट में और क्या कहना चाहते हैं इस सम्बंध में वे, कुछ प्रश्नों के साथ हम उनसे मिले। यहां प्रस्तुत हैं जितेन्द्र तिवारी द्वारा उनसे की गई बातचीत के मुख्य अंश -सन् 2001 की पंथानुसार जनगणना के संदर्भ में आपने अल्पसंख्यक आयोग के अन्तर्गत एक उपसमिति का गठन किया, क्यों? उस समिति ने क्या निष्कर्ष निकाले हैं?सन् 2001 में हुई पंथानुसार जनगणना की रपट जब प्रस्तुत की गई तब आयोग के अध्यक्ष होने के नाते मैंने उस कार्यक्रम की अध्यक्षता की। रपट प्रस्तुत होने के बाद काफी हो-हल्ला मचा। कुछ ने कहा कि पंथानुसार जनगणना नहीं होनी चाहिए जबकि यह हर बार होती है। इस बार अंतर केवल इतना ही है कि इसे अलग से प्रस्तुत किया गया। इस रपट के प्रस्तुत होने के बाद मुसलमानों की तेजी से बढ़ी जनसंख्या वृद्धि दर को लेकर काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई। बाद में उसमें कुछ संशोधन भी किए गए। ईसाइयों और सिखों के बारे में भी रपट में कुछ बातें महत्वपूर्ण थीं। चूंकि हमारे आयोग का काम यह भी देखना होता है कि अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच मतभेद न बढ़ें, इसलिए हमने तय किया कि इस पंथानुसार जनगणना के अध्ययन एवं विश्लेषण के लिए विशेषज्ञों की एक समिति गठित की जाए।भारत के सबसे विख्यात जनगणना विशेषज्ञ डा. आशीष बोस के नेतृत्व में गठित जनगणना विशेषज्ञों के 5 सदस्यीय दल ने पंथानुसार जनगणना का विश्लेषण कर सबसे पहले सिखों के बारे में रपट दी। इस रपट पर चर्चा के लिए सभी तख्तों के जत्थेदार, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी-अमृतसर व दिल्ली के प्रमुख, सिख सांसद, पंजाबी विश्वविद्यालयों के कुलपति सहित सिख विद्वान एकत्र हुए। इस रपट में जो सबसे गंभीर निष्कर्ष निकाला गया था वह यह था कि सिखों में स्त्री-पुरुष संतुलन बिगड़ रहा है। उनमें कन्या भ्रूण हत्या का चलन बढ़ा है। हालांकि कुछ सिखों ने इस बात का विरोध किया कि इस बात को सार्वजनिक क्यों किया गया, पर हमारा कहना था कि सच्चाई पर पर्दा डालने से भविष्य में गंभीर परिणाम होंगे। यह ऐसा चलन है जिससे पूरी कौम को खतरा है। इससे स्त्री-पुरुष अनुपात असंतुलन बढ़ेगा। पंजाब में लड़कियां नहीं मिलेंगी तो बाहर से ब्याह कर लाई जाएंगी, तब यहां की संस्कृति नष्ट हो जाएगी। इस स्थिति पर सिखों ने गंभीर चिंतन किया है और अब पंजाब में कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध अभियान चल रहा है। दूसरी रपट पारसियों के बारे में आई। पारसी हमारे देश में बहुत महत्वपूर्ण पदों पर हैं और बहुत धनाढ भी हैं। परन्तु स्वयं पारसियों के प्रमुख भी हैरान थे कि यदि उनकी जनसंख्या इस गति से कम होती रही तो आगामी 20-25 वर्षों में वे नाममात्र को रह जाएंगे। अब वे इस स्थिति को लेकर चिंतित हैं और विचार कर रहे हैं।ईसाइयों के बारे में तीसरी रपट हमने कोचीन में प्रस्तुत की क्योंकि कोचीन ईसाइयों का प्रमुख केन्द्र है। उस बैठक की अध्यक्षता कैथोलिक ईसाइयों के प्रमुख ने की और उसमें देशभर के 40 प्रमुख ईसाई प्रतिनिधि उपस्थित थे। उस बैठक में पंथानुसार जनगणना का विश्लेषण कर डा. आशीष बोस की समिति ने बताया कि भारत में ईसाइयों की अनुपातिक जनसंख्या में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। सन् 1991 में भी ईसाई 2.3 प्रतिशत थे और सन् 2001 की जनगणना में भी इतने ही हैं। अर्थात् सम्पूर्ण भारत में तुलनात्मक रूप से ईसाइयों की जनसंख्या नहीं बढ़ी। लेकिन उत्तर पूर्वी राज्यों में ईसाइयों की जनसंख्या असामान्य रूप से बढ़ी हुई पाई गई। किसी-किसी राज्य में 80 प्रतिशत तो किसी राज्य में 120 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज की गई है। जबकि इन राज्यों की जनसंख्या तुलनात्मक रूप से काफी कम है। हमने ईसाइयों के प्रमुखों से कहा कि मिजोरम, नागालैण्ड, मेघालय व अरुणाचल प्रदेश आदि उत्तर पूर्वी राज्यों में आपकी जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है, इस पर विचार करें।परन्तु इस विषय पर आपको कटघरे में खड़ा किया जा रहा है।इस रपट के आने के बाद कुछ ईसाई संगठनों ने, विशेषकर अमरीका की एक ईसाई संस्था ने विरोध करना शुरू कर दिया, मुझे ईसाई विरोधी कहते हुए आयोग से हटाने की मांग की गई। इस रपट को लेकर कोई राजनीति नहीं की जानी चाहिए। यह रपट हमने तैयार नहीं की बल्कि भारत के प्रमुख जनगणना विशेषज्ञों का निष्कर्ष है। हम इस रपट को केवल प्रस्तुत कर रहे हैं और ईसाइयों से यह अपेक्षा है कि वे इस पर विचार करें ताकि मतान्तरण के नाम पर इस देश में जो विवाद और संघर्ष होता है, वह न हो। मतान्तरण के नाम पर हो रहे विवाद को समाप्त कराना हमारी जिम्मेदारी है। यदि ईसाइयों के प्रमुख स्वयं इस बात की घोषणा कर रहे हैं कि वे मतान्तरण नहीं करा रहे हैं तो यह विवाद समाप्त होना चाहिए।उत्तर-पूर्व के किन राज्यों में ईसाइयों की जनसंख्या असामान्य रूप से अधिक बढ़ी है?पूर्वोत्तर के कुल 7 राज्यों में से मिजोरम, नागालैण्ड और मेघालय में ईसाइयों की जनसंख्या बहुत अधिक बढ़ी है। इन राज्यों में मुख्यत: जनजातियां रहती हैं। इन राज्यों की जनसंख्या भी कमोबेश बढ़ी है पर तुलनात्मक रूप से देखें तो ईसाइयों की जनसंख्या असामान्य रूप से बहुत अधिक हो गई।अनेक राष्ट्रवादी संगठन यह कहते रहे हैं कि पूर्वोत्तर में सेवा के नाम पर तथा जबरन मतान्तरण कराया जा रहा है, आपकी रपट इन आरोपों की पुष्टि करती है। क्या इसीलिए आपका विरोध हो रहा है?डा. बोस की रपट में यह कहा गया है कि ईसाइयों की जनसंख्या में यह वृद्धि जन्म दर बढ़ने के कारण नहीं बल्कि अन्य कारणों से है। चर्च के प्रमुखों ने हमें आश्वस्त किया है कि वे अपने रिकार्ड में देखेंगे कि यह वृद्धि किन कारणों से हुई है और कितने नए लोगों ने मत परिवर्तन करके ईसाई मत स्वीकार किया है।रपट में यह भी कहा गया है कि पूर्वोत्तर में घुसपैठ करने वाले कुछ बंगलादेशी स्वयं को ईसाई लिखा रहे हैं, क्यों?उत्तर-पूर्व के राज्यों में बहुत बड़ी संख्या में बंगलादेशी मुसलमान घुस आए हैं। डा. बोस को इन राज्यों में बढ़ती ईसाई जनसंख्या के अध्ययन के दौरान कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने बताया कि बंगलादेशी मुसलमान स्वयं को सुरक्षित रखने, यहां का पक्का नागरिक सिद्ध करने के उद्देश्य से स्वयं को ईसाई लिखा रहे हैं। इसमें कितनी सचाई है मैं नहीं कह सकता, परन्तु डा. बोस ने कोचीन में अपनी रपट प्रस्तुत करते हुए कहा है कि उनके पास इस तथ्य से सम्बंधित एक दस्तावेज भी है। उन्होंने चर्च और सरकार से कहा है कि वह वास्तविकता सामने लाएं।इसी के साथ-साथ हम इस बात का अध्ययन और विश्लेषण भी करा रहे हैं कि सन् 2001 से पूर्व सन् 1991 में हुई जनगणना के समय इन प्रदेशों की जनजातियों ने अपना धर्म क्या लिखाया था। इस बार की जनगणना में पहली बार जैनियों ने स्वयं को केवल जैन लिखाया है, हिन्दू नहीं। लेकिन इसे हम मतान्तरण नहीं कह सकते। लेकिन पूर्वोत्तर के जनजातियों के बारे में डा. बोस भी अध्ययन कर रहे हैं और चर्च से भी कहा गया है कि वे देखें कि पहले उनका धर्म क्या लिखा था। और, हिन्दू धर्म के जितने अनुयायी वहां थे, क्या उसमें कमी आई है?ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे विरोध को आप किस रूप में ले रहे हैं?ईसाइयों की कुछ छोटी-मोटी संस्थाओं को लगता है कि हम उनकी निंदा कर रहे हैं, इसीलिए वे विरोध कर रहे हैं। पर हम सच सामने ला रहे हैं। और सच वह है जो आंकड़ों के माध्यम से सामने आ रहा है। हमारे कहने या उनके कहने से सच को छुपाया नहीं जा सकता।डा. बोस द्वारा निकाले गए जनगणना के निष्कर्षों को क्या आपने सरकार अथवा गृह मंत्रालय को भेजा है?अभी नहीं। अभी तो हम उसी समुदाय के प्रमुखों के सामने इन निष्कर्षों को चर्चा के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। मुसलमानों और बौद्धों की जनगणना पर रपट आनी बाकी है। इन सब रपटों के आने के बाद हम उस पर अपनी एक रपट बनाएंगे, जो सरकार को भेजेंगे।आप अल्पसंख्यक आयोग के पहले सिख अध्यक्ष हैं, अन्यथा इससे पहले यही समझा जाता था कि अल्पसंख्यक यानी केवल मुसलमान।यह दुर्भाग्यपूर्ण है और राजनीतिज्ञों ने ऐसा किया है। संविधान में मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी और बौद्ध- पांचों को बराबर की मान्यता है। पर हमारे देश के राजनीतिक लोग ऐसे तरीके अपनाते हैं, जिससे उन्हें लाभ मिले। वे अल्पसंख्यकों का लाभ नहीं देखते। आप इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि बिहार में अल्पसंख्यकों अर्थात् मुसलमानों का सबसे कम विकास हुआ है जबकि वहां मुसलमान के नाम पर ही सर्वाधिक राजनीति होती है।लेकिन देश के दूसरे सबसे बड़े समुदाय अर्थात् मुसलमान को अल्पसंख्यक मानना कहां तक उचित है?यह हमारे स्तर की बात नहीं है, जिस दिन से इस देश का संविधान बना उसी दिन से उन्हें यह दर्जा दिया गया है। पर मेरा कहना है कि अल्पसंख्यकवाद को लेकर जो राजनीति हो रही है, उसमें इन लोगों को नारों के सिवाय मिलता क्या है?पर अल्पसंख्यक वित्त विकास निगम से 95 प्रतिशत अनुदान मुसलमान ही लेते हैं। सिखों, पारसियों व बौद्धों की तो वहां कोई उपस्थिति ही नहंीं है।इतना सब कुछ होने के बावजूद व्यापक परिदृश्य में परिणाम क्या है? इस देश में तुलनात्मक दृष्टि से सर्वाधिक अनपढ़ मुसलमान हैं। आर्थिक व सामाजिक स्तर पर भी वे पिछड़े हैं।मैं उनसे हमेशा यही कहता हूं कि आप राजनीतिक नारों की ओर कम देखो, अपने विकास की ओर ध्यान दो। केवल अल्पसंख्यकों में नहीं, देश के प्रत्येक वर्ग में गरीब हैं। राजनीतिक दल यदि ईमानदारी से प्रयत्न करें और इन लोगों का पिछड़ापन दूर करें तो इसमें सबका फायदा है, देश का भी हित इससे जुड़ा है।लेकिन अल्पसंख्यकों की बात करते-करते पैदा हुए अल्पसंख्यकवाद ने राष्ट्रवाद को कहीं पीछे धकेल दिया है, क्या इससे राष्ट्र को हानि नहीं होती?इस बात से मैं सहमत हूं। आज देश को राष्ट्रवाद की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है हम सबको एकजुट होकर राष्ट्र को सबसे ऊपर रखना चाहिए, न कि अपने राजनीतिक हितों को। कठिनाई यह है कि राजनीतिक दल अपने दलगत हितों के लिए इन बातों को पीछे छोड़ देते हैं। अब चुनाव जाति पर ही नहीं बल्कि उसकी उपजाति को ध्यान में रखकर लड़े जा रहे हैं, इससे राष्ट्र ही कमजोर होगा। हर आने वाला चुनाव जातिवाद को बढ़ाता जा रहा है, इस बारे में कोई नहीं सोचता।अल्पसंख्यक आयोग इस स्थिति को रोकने के लिए क्या भूमिका निभा रहा है?अल्पसंख्यकों-बहुसंख्यकों के बीच भाईचारा बढ़े, इसके लिए हम सदैव प्रयास करते रहते हैं। इसके लिए हमने अपने आयोग की पहल पर हिन्दू-मुस्लिम समाज के प्रमुख प्रतिनिधियों को साझा मंच देकर विचार-विमर्श का अवसर दिया। आयोग की पहल पर ही चर्च के प्रमुखों तथा रा.स्व.संघ, विश्व हिन्दू परिषद तथा मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के प्रतिनिधियों के बीच बैठक हुई। चर्च के नेताओं तथा रा.स्व.संघ के प्रतिनिधियों के बीच 4 बार संवाद कार्यक्रम आयोजित हुए। एक-दूसरे के बारे में शक और विवाद को दूर करने के लिए इस तरह की बैठकें होती रहनी चाहिए।हिन्दुस्थान की पहचान उसके हिन्दू स्वरूप से है, हिन्दू संस्कृति से है। क्या आपको नहीं लगता कि अल्पसंख्यकवाद अथवा जातिवाद से इसका मूल स्वरूप बिगड़ रहा है?भारत हमारा देश है, यह भावना सबके मन में रहे तो अलग-अलग पूजापद्धति होने के बावजूद इसके मूल स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आप जितना अधिक बारीकी में जाएंगे तो विवाद बढ़ेंगे। आखिर हिन्दू समाज ने ही तो मुस्लिम और ईसाई समुदायों को स्वीकार किया, उन्हें संरक्षण दिया। भले ही ये मजहब बाहर से आए पर पनपे यहीं और यहीं के लोगों ने उन्हें अपनाया, कभी कोई विवाद नहीं हुआ। इसलिए मैं अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों से कहता हूं कि इस देश में सेकुलरिज्म देश की संस्कृति के कारण है। भारतीय संविधान में सेकुलरिज्म का स्वरूप जिस संविधान सभा ने दिया उसमें 90 प्रतिशत हिन्दू ही थे। जब हमारे आस-पास के और सम्पूर्ण एशिया के देश जब सेकुलरिज्म को अस्वीकार कर रहे थे तब भारत ने इसे अपनाया। मैं अपने अल्पसंख्यक भाइयों से हमेशा यह कहता हूं कि हम संविधान के आधार पर अपने जिन हकों के लिए लड़ते हैं वह आखिर किसने दिए। इस देश के बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय की ही देन है यह सेकुलरिज्म। संविधान बनाने वाले लोग चाहते तो इस देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर देते, पर उन्होंने सबको एक मानकर समानता के अधिकार दिए। मेरा मानना है कि कुछ लोगों को छोड़ दें तो सभी पंथों के लोग इस भारतीय सेकुलरिज्म में विश्वास करते हैं, उसे मानते हैं और उसी में उनका भविष्य है।NEWS

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