|
जन-जन में व्याप्तहिन्दुत्व की अदृश्य अजस्रधाराक्या भारत का हिन्दू बने रहना आवश्यक है? क्या हिन्दू का हिन्दू के रूप में जीवित रहना जरूरी है? उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में स्वामी विवेकानन्द ने कहा होगा कि पराधीनता की हजार साल लम्बी कालावधि से जूझकर भी भारत जीवित रहा है तो इसलिए कि उसके पास विश्व को देने के लिए एक अमृत कुंभ है और उसे दिए बिना वह नहीं मरेगा। स्वाधीनता के 58 वर्ष बाद आज हिन्दू समाज जिस स्थिति से गुजर रहा है उसे देखकर लगता है कि शायद वह अमृत कुंभ हिन्दू समाज से छिन चुका है और उसका अस्तित्व भारत और विश्व पर भार मात्र है। इस समाज का बड़ा अंग अपने को हिन्दू कहने से कतरा रहा है। हिन्दू समाज भीतर से जाति और क्षेत्र के आधार पर विभाजित हो गया है। वोट गणित में हिन्दू नामक कोई वोट बैंक न होने के कारण हिन्दू शब्द “साम्प्रदायिकता” का पर्याय बन गया है। हिन्दू के अलावा बाकी सब “सेकुलर” हैं। “सेकुलरिज्म” के लिए हिन्दू साम्प्रदायिकता का काल्पनिक हौव्वा खड़ा करना पड़ता है।सहस्राब्दियों लम्बी इतिहास यात्रा के फलस्वरूप हिन्दू समाज को ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति का अमृत कुंभ प्राप्त हुआ था, उस इतिहास का स्मरण करना-कराना भी अब अपराध माना जाने लगा है। हिन्दू समाज की किसी भी उपलब्धि, विशेषता या गुणवत्ता का वर्णन करने से “साम्प्रदायिकता” को बल मिलता है। आज हिन्दू समाज स्वयं को अपराधी के कटघरे में खड़ा पा रहा है। उसे ही अपनी मातृभूमि के विभाजन के लिए दोषी ठहराया जा रहा है। उसकी कोख में से जन्मे मस्तिष्क स्वयं को माक्र्सवादी और नास्तिक कहने में गर्व का अनुभव कर रहे हैं। वे दिन-रात हिन्दू समाज के अतीत और वर्तमान को हीन बताने और लांछित करने में अपनी शक्ति लगा रहे हैं। विभाजित और भ्रष्टाचार की दलदल में फंसे इस समाज पर असहिष्णुता, धार्मिक उत्पीड़न और अल्पसंख्यक समाजों के नरमेध का कलंक लगाया जा रहा है। इतना ही नहीं तो वह दूसरों का नरमेध रचाने के लिए अपने ही पुत्रों को जिन्दा जलाने का जघन्य पाप भी कर सकता है। राजनेताओं, बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग और मीडिया-सब हिन्दू समाज पर ही चौतरफा हमला करने में लगे हैं। उसके श्रद्धा केन्द्रों को अपमानित, लांछित करने में रस ले रहे हैं। काञ्ची कामकोटि पीठ के शंकराचार्यों का जो उत्पीड़न हो रहा है वह हिन्दू समाज की दु:स्थिति का परिचायक है। विदेशी मत प्रचारकों को भारत सरकार पद्मश्री जैसा राजकीय सम्मान देकर मतान्तरण के लिए प्रोत्साहित कर रही है, विदेशी मिशनरी की प्रचार सभा में उपस्थित रहकर किसी राज्य के मुख्यमंत्री व्यापक जन-विरोध की उपेक्षा करके मतान्तरण को राजकीय समर्थन दे रहे हैं। दूसरे राज्य की मुख्यमंत्री सत्ता में वापसी के लिए अपने ही मतान्तरण विरोधी कानून को वापस ले रही हैं और एक अत्यन्त प्राचीन, पूज्य धार्मिक श्रद्धा केन्द्र काञ्ची कामकोटि पीठ पर आक्रमण करना राजनीतिक दृष्टि से लाभप्रद मान रही हैं।हिन्दू शब्द अवांछित?क्या यह सब इस बात के संकेत नहीं हैं कि शायद अब “हिन्दू” शब्द से जुड़े रहना अपने देश में ही अवांछित, अनावश्यक एवं अपमानजनक बन चुका है? इस शब्द के प्रति कुछ लोगों का आग्रह ही मानो भारत की आज की सब समस्याओं का कारण है। कल्पना कीजिए कि हिन्दू नाम से जाना जाने वाला समाज यदि इस शब्द का आग्रह छोड़ दे तो कितनी समस्याएं एक साथ समाप्त हो जाएंगी। यदि सब हिन्दू हजारों साल से चली आ रही ऐतिहासिक परम्परा से नाता तोड़कर इस्लाम मत की गोद में चले जाएं तो क्या पाकिस्तान, भारत और बंगलादेश एकता के सूत्र में नहीं बंध जाएंगे? अखण्ड भारत का सपना पूरा नहीं हो जाएगा? तब 100 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले विशाल भारत को नन्हे-नन्हे पाकिस्तान और बंगलादेश से अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सीमाओं पर बाड़ नहीं लगानी पड़ेगी, कश्मीर समस्या सदा-सर्वदा के लिए हल हो जाएगी, शस्त्रास्त्रों और सैनिक-शक्ति पर खर्च होने वाली अपार धनराशि बच जाएगी, विकास के काम आएगी। समान नागरिक संहिता, धारा 370, राम जन्मभूमि मंदिर का पुनर्निर्माण जैसे ज्वलंत मुद्दे एक झटके में हल हो जाएंगे। जनसांख्यिकी में असंतुलन की चिन्ता नहीं रहेगी। साम्प्रदायिकता के विरुद्ध सेकुलरिज्म को संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। पूरा देश दारुल इस्लाम बन जाएगा, “सामाजिक-आर्थिक समता व विश्वबन्धुत्व” का स्वर्ग बन जाएगा। इस्लाम की गोद में जाने पर जाति की दीवारें ढह जाएंगी। भौगोलिक क्षेत्रीयता का आधार ही नहीं रहेगा। एक “उम्मा” के सूत्र से पूरा समाज बंध जाएगा। और तब जाति और क्षेत्र के आधार पर खड़े अनेक दलों के अस्तित्व का कोई औचित्य ही नहीं रहेगा। प्रगतिशील इस्लाम की पताका के नीचे पूरा देश राजनैतिक एकता और स्थिरता का उपभोग कर सकेगा। कितना सुखद दृश्य होगा वह!यदि हिन्दू बने रहने का आग्रह हम छोड़ दें तो गरीबों और पिछड़ों के उद्धार के लिए व्याकुल बेचारे ईसाई मिशनरियों को अपने संस्थानों पर हिन्दू आक्रमण का हौव्वा नहीं खड़ा करना पड़ेगा। अमरीकी सरकार के अन्तरराष्ट्रीय पांथिक स्वतंत्रता आयोग के सामने गुहार नहीं लगानी पड़ेगी। भारत पर धार्मिक उत्पीड़न का आरोप नहीं लगवाना होगा। वे अपनी सुख-सुविधाओं को छोड़कर भारत आ रहे हैं तो अपने लिए नहीं बल्कि हिन्दू समाज की कैद से गरीबों, पिछड़ों और वनवासियों को मुक्ति दिलाकर समृद्धि और समता के रास्ते पर बढ़ाने के लिए। 500 साल से वे यह “पुण्य” कार्य करते आ रहे हैं। करोड़ों हिन्दुओं को उन्होंने ईसा मसीह की शरण में ले जाकर छुआछूत, जात-पात और गरीबी से बाहर निकाल लिया है। इस पुण्य कार्य में यदि कोई बाधा है तो वह हिन्दू बने रहने का आग्रह। आप यह सवाल उठा सकते हैं कि हिन्दू समाज का कौन-सा मार्ग चर्च की गोद में जाए और कौन-सा इस्लाम की? और इसका निर्णय कौन करे? हिन्दू समाज ने अपने भीतर किसी सर्वोत्तम निर्णायक सत्ता को तो स्थापित किया नहीं। उसके पास न कोई पोप है, न कोई खलीफा। तब यह निर्णय कौन ले?कहां है निर्णायक सत्ता?यह प्रश्न सचमुच कठिन है और इसका कोई उत्तर भी हमारे पास नहीं। केवल इतना कहा जा सकता है कि हिन्दू समाज घोषणा कर दे कि उसने हिन्दू बने रहने का आग्रह छोड़ दिया है, अब वह भारत के साथ किसी लम्बे इतिहास के सूत्रों से नहीं बंधा है, अब वह उसे पुण्य भूमि नहीं मानता, उसके साथ माता-पुत्र के रिश्ते को उसने तोड़ दिया है। अब जो चाहे उसे गोद ले सकता है, जिसमें जितनी ताकत हो वह उतना बड़ा भाग छीन सकता है, हिन्दू के नाते अब कोई प्रतिरोध नहीं होगा। अब भारत के हिन्दू बने रहने में कोई अर्थ ही नहीं बचा है। यूनान, मिस्र और रोम की प्राचीन सभ्यताएं जिस प्रकार विलुप्त हो गईं, उसी रास्ते पर अब हिन्दू भी जाने को तैयार हो गया है। इतिहास चाहे तो हिन्दू नाम से अभिहित लम्बी यात्रा, सभ्यता और संस्कृति की स्मृतियां सुरक्षित रखे, चाहे न रखे, भारत भूगोल के नाते तो तब भी रहेगा। पाकिस्तान और बंगलादेश की तरह उसकी रगों में वही खून भी रहेगा। केवल उसका अस्मिता बोध विस्मृति के गर्भ में खो जाएगा। वह अपने को ईसाई चर्च और इस्लाम के बीच छीना-झपटी के लिए खुला छोड़ देगा। भारत की भूमि सभ्यताओं के संघर्ष की क्रीड़ा भूमि बन जाएगी।पर, यहां इससे भी कठिन प्रश्न सामने खड़ा हो जाता है। यदि हिन्दू समाज में कोई सर्वमान्य, सर्वोपरि निर्णायक सत्ता है ही नहीं तो हिन्दू समाज को “अस्मिता-त्याग” का यह आदेश देगा कौन? “हिन्दू” की बात करने वाली सब संस्थाओं, सब नेताओं पर अभी भी यह प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है कि हिन्दू हितों का ठेकेदार तुम्हें किसने बनाया? तुम होते कौन हो? हम भी तो हिन्दू हैं, पर सेकुलर हिन्दू हैं, तुम साम्प्रदायिक हो। हर हिन्दू स्वतंत्र है। वह अपनी मर्जी से हिन्दू है या नहीं है। हिन्दुत्व क्या है, भारत के हिन्दू होने का अर्थ क्या है, यह प्रत्येक हिन्दू अपनी-अपनी समझ से तय करेगा। इसलिए भारत हिन्दू रहे या नहीं, यह प्रत्येक हिन्दू अपने मन से तय करेगा। इसका निर्णय तुम या हम नहीं करेंगे। यदि हजारों साल के सैनिक, बौद्धिक एवं मजहबी आक्रमणों के बीच भी भारत हिन्दू बना रहा है तो वह करोड़ों हिन्दुओं की, सैकड़ों पीढ़ियों की आन्तरिक स्वयंस्फूर्त, स्वतंत्र आस्था के कारण बना हुआ है। इसलिए चुनावी राजनीति और मीडिया के प्रचार से अलग हटकर हिन्दू समाज के अन्तप्र्रवाहों और मनोभाव को समझने का प्रयास करो तो शायद तुम्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल जाए।राजनीति-मीडिया से परे का हिन्दूऔर सचमुच जब मैं राजनीति और मीडिया से अलग जाकर हिन्दू समाज के मन को जानने का प्रयास करता हूं तो एक दूसरा ही दृश्य मेरे सामने आता है। मैं देखता हूं कि पाश्चात्य आधुनिकता के प्रवाह में बह रहे एक मुट्ठी भर शहरी नवधनाढ वर्ग को छोड़ दें या माक्र्सवाद के मरे बच्चे को छाती से चिपकाए बंदरिया जैसे इने-गिने कलमशूर बौद्धिकों और पत्रकारों को छोड़ दें तो यह विशाल हिन्दू समाज आज भी किसी न किसी मात्रा में कुल धर्म और जाति धर्म का पालन कर रहा है। प्रत्येक परिवार किसी न किसी आश्रम, पूजास्थल या सन्त-पुरोहित से जुड़ा हुआ है। अपनी स्वयं स्फूर्त, सहज श्रद्धा से तीर्थयात्राओं, मेलों और पर्वों में सम्मिलित होता है। वह कौन-सी प्रेरणा है जो लाखों-लाख की भीड़ को मोरारी बापू, आसाराम बापू जैसे संतों के प्रवचनों में खींच ले जाती है? क्यों स्वाध्याय परिवार, स्वामिनारायण पंथ, गायत्री परिवार, राधास्वामी मत, सत्य साईं बाबा और ऐसे ही अन्य अनेक धर्मगुरुओं के अनुयायियों की संख्या आज भी लाखों-करोड़ों में है? किसके निमंत्रण पर कुम्भ और अन्य मेलों में लाखों नर-नारी अपने खर्च पर भारी कष्ट उठाकर एकत्र होते हैं? क्यों इन मेलों, तीर्थयात्राओं और प्रवचनों में जाति-पाति, ऊंच-नीच, धनी-निर्धन की दीवारें ढह जाती हैं? क्या कोई केन्द्रीय सत्ता है, कोई तन्त्र है जो इस विकेन्द्रित, वैविध्यपूर्ण विशाल हिन्दू समाज को आदेश देता है, चलाता है? या उसकी अपनी कोई भूख है जो उसे इन सब आयोजनों की ओर खींच ले जाती है? प्रवचनकार अलग-अलग हैं, स्वतंत्र हैं, पर सबका दर्शन एक है, भाषा एक है, शब्दावली और प्रतीक भी लगभग समान है। सब एक ही भाव धारा को प्रवाहित करते हैं। कोई बुद्धिजीवी या राजनेता लगातार सात दिन तक इतने विशाल जनसमूह को आकर्षित और अनुप्राणित करके तो दिखाए! तो यह है, वास्तविक हिन्दू समाज जो अपनी सहज प्रेरणा से हिन्दू रहना चाहता है। उसे अपनी अस्मिता को छोड़ने का आदेश देने का अधिकार किसी के पास नहीं है।यह हिन्दू चेतना कैसे काम करती है, इसका साक्षात्कार हमें उस दिन हुआ जब हम दस-पन्द्रह समानधर्मी मित्रों के सामने नोबुल पुरस्कार से सम्मानित विश्व ख्याति के साहित्यकार सर विदियाधर सूरजप्रसाद (वी.एस.) नायपाल ने अपनी पीड़ा उड़ेली कि भारतीयों को अपने गौरवशाली अतीत, विश्व सभ्यता में अपने पूर्वजों के योगदान के बारे में इतना अज्ञान क्यों है? वे दक्षिण पूर्व एशिया की यात्रा करके लौटे ही थे। वहां के जनजीवन पर भारतीय संस्कृति की गहरी छाप, कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भारतीय इतिहास-पुराणों की कथाओं को छलकते देखा। मैं चकित था कि लगभग डेढ़ सौ साल पहले भारत से हजारों मील दूर त्रिनिदाद नामक द्वीप में छिटके एक निर्धन परिवार की तीसरी-चौथी पीढ़ी में जन्मे इस अन्त:करण में यह सांस्कृतिक बोध कैसे जागृत हो सका! 42 साल पहले सन् 1962 में जब वे अपनी जड़ों को खोजने पहली बार भारत आए तो यहां की गरीबी, गंदगी, विषमता को देखकर वे इतने निराश हुए थे कि उन्होंने भारत को “तमस का क्षेत्र” घोषित कर दिया था। 1975 में जब वे तीसरी बार आए तो उन्होंने विदेशी आक्रमणों और हजार साल की गुलामी के घाव भारत के शरीर पर बिखरे देखे। तब उन्होंने भारत को एक “घायल सभ्यता” के रूप में प्रस्तुत किया। तब भी उन्होंने भारत का प्राचीन सभ्यता, उसकी आध्यात्मिकता को अस्वीकार किया था और अतीत से पूर्ण सम्बंध विच्छेद कर पश्चिमी विकास के रास्ते को अपनाने में ही भारत का कल्याण देखा था। उन्हें गांधी अपनी आध्यात्मिक और हिन्दू निष्ठा के साथ पूरी तरह अस्वीकार थे। किन्तु उनके अंदर से कोई चीज उन्हें भारत के अंत:स्थल की गहराइयों में धकेलती रही। कोई जिज्ञासा उन्हें फिर भारत खींच लाई और उन्होंने भारत के चप्पे-चप्पे पर, जन-जन में क्रांति की आहट सुनी। जिसमें से प्रगट हुई उनकी रचना “भारत अब लाखों-लाखों क्रांति के कगार पर”। तभी उनकी हिन्दू चेतना इस्लाम और उसके अनुयायियों को जानने के लिए प्रवृत्त हुई, जिसकी अगली कड़ी के रूप में उन्होंने समझना चाहा कि इस्लाम अपने मतान्तरितों में क्या बदल लाता है, मतान्तरितों का मन-मस्तिष्क कैसे काम करता है। इस यात्रा ने नायपाल के जिज्ञासु मन को अचेतन हिन्दू संस्कारों से जोड़ दिया। सैकड़ों पीढ़ियों के संचित सुप्त संस्कार जागृत हो गए और भारत से दूर, भारत से असम्बद्ध यह अन्त:करण भारत के प्राचीन गौरव का साक्षात्कार कर सका। इतिहास के घावों की पीड़ा का अहसास कर सका। यही अहसास था कि सन् 1992 में राष्ट्र की पराजय और अपमान के प्रतीक बाबरी ढांचे के विध्वंस को उन्होंने इतिहास की आंखों से देखा। जब भारत में जन्मे अनेक बुद्धिजीवी इतिहास के उस प्रतिशोध को राष्ट्रीय शर्म कह रहे थे, तब इतिहास दृष्टि से सम्पन्न नायपाल ने उसे इतिहास की स्वाभाविक परिणति घोषित किया था।एक समान हिन्दू चेतना सरस्वती की अदृश्य धारा के समान आज भी प्रत्येक हिन्दू अंत:करण में बह रही है, इसका साक्षात्कार मुझे पिछले महीने दो दिन की एक संगोष्ठी में जाकर हुआ। संगोष्ठी का विषय था, “भारत को समझने के लिए हिन्दुत्व की प्रासंगिकता”। अब अंग्रेजी के “हिन्दुइज्म” शब्द का हिन्दी रूपान्तर “हिन्दुत्व” हो या “हिन्दू धर्म”, इस पर कुछ लोग विवाद खड़ा कर सकते हैं। पर यह तो हिन्दुत्व के विरोधी भी मानते हैं कि इस्लाम या ईसाई जैसे संगठित पंथों की श्रेणी में हिन्दू धर्म नहीं आता। भारतीय परम्परा के “धर्म” शब्द के निकट “हिन्दुत्व” शब्द ही पहुंचता है, क्योंकि अंग्रेजी के “हिन्दुइज्म” शब्द से उस सांस्कृतिक धारा का बोध होता है जो वेदों से लेकर आज तक निरन्तर अखण्ड प्रवाहमान है।नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय जागृति संस्थान के सम्मेलन में (बाएं से) प्रो. बर्नहार्ड वोगल, डा. कर्ण सिंह,श्री हंसराज भारद्वाज (केन्द्रीय कानून मंत्री), स्वामी जितात्मानंद (रामकृष्ण मिशन)व डा. सुभाष कश्यपसंगोष्ठी के विषय से अधिक मेरे आश्चर्य का कारण बना वह वर्ग, जो उस संगोष्ठी में इस विषय पर विचार करने के लिए एकत्र हुआ था। मैं तो सोच ही नहीं सकता था कि वहां उपस्थित अधिकांश लोग किसी भी रूप में हिन्दुत्व को भारत के लिए प्रासंगिक मानते होंगे। इनमें प्रथम पंक्ति के विधिवेत्ता थे, अर्थशास्त्री थे, उच्च बौद्धिक संस्थानों के प्रमुख थे, सेवानिवृत्त राजनयिक, प्रशासनिक अधिकारी, सैन्याधिकारी, सुरक्षा बलों के प्रमुख, गुप्तचर विभाग के प्रमुख, पत्रकार-कलाकार, दार्शनिक, संन्यासी, शिक्षाविद् थे। मैं चकित था यह देखकर कि ऐसे विषय पर बौद्धिक समागम में कई राजनेता भी सहभागी थे। इनमें से चार- केन्द्रीय विधि मंत्री एच.आर. भारद्वाज, डा. कर्ण सिंह, वसंत साठे, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कांग्रेसी हैं तो डा. मुरली मनोहर जोशी भाजपा के और पूर्व सांसद बी.बी. दत्ता निर्दलीय हैं। अंतिम सत्र के अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा के एक ओर डा. जोशी दूसरी ओर दिग्विजय सिंह बैठे एक ही भाषा बोल रहे थे, कि हिन्दुत्व ही भारत का प्राण है, भारत की आत्मा है। हिन्दुत्व को छोड़ देने पर भारत, भारत नहीं रहेगा, केवल मिट्टी का टुकड़ा रह जाएगा।आई.आई.टी., चेन्नै के पूर्व निदेशक प्रो. पी.वी. इन्द्रेसन, सुरक्षा विशेषज्ञ एवं दिल्ली के सेन्टर आफ पालिसी रिसर्च के प्रो. भरत करनाड, सेंटर फार इन्डस्ट्रियल इकानामिक रिसर्च के कार्यकारी अध्यक्ष डा. एस.आर. मोहनोत, पाण्डिचेरी विश्वविद्यालय में अन्तरराष्ट्रीय सम्बंधों के प्रोफेसर डा. नलिनी कान्त झा, इन्स्टीटूट आफ पीस रिसर्च एण्ड एक्शन की निदेशक प्रो. सुशीला मान, सेंटर फार पब्लिक पालिसी एण्ड सोशल डेवलेपमेंट, हैदराबाद के अध्यक्ष डा. जी.आर.एस. राव, भारत में नेपाल के पूर्व राजदूत प्रो. लोकराज बराल, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त जी. पार्थसारथी, भारत सरकार के पूर्व विदेश सचिव लखनलाल मेहरोत्रा, भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् के वर्तमान अध्यक्ष डा. किरीट जोशी, एन.सी.ई.आर.टी. के पूर्व निदेशक डा. जे.एस. राजपूत, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की पूर्व निदेशक डा. कपिला वात्स्यायन, वीमेन पॉलिटिकल वाच की अध्यक्षा वीना नायर, दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि संकाय की विभागाध्यक्ष प्रो. नमिता अग्रवाल, सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता पिंकी आनन्द, पंंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं बिहार के पूर्व राज्यपाल एम.रामा जायस, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विधि संकाय के पूर्व विभागाध्यक्ष, राजाजी इन्टरनेशनल इन्स्टीट्यूट आफ पब्लिक अफेयर्स एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक सदाशिव रेड्डी, भारत सरकार के पूर्व शिक्षा सचिव और सम्प्रति भारतीय विद्या भवन के निदेशक जे. वीराराघवन, प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक “ट्रिब्यून” के पूर्व सम्पादक हरि जयसिंह, वरिष्ठ पत्रकार इन्द्रजीत, नलसार यूनीवर्सिटी आफ ला के निदेशक, प्रो. रनबीर सिंह, सेंटर फार पॉलिसी स्टडीज के निदेशक व भारतीय समाज नीति समीक्षण केन्द्र के सदस्य डा. जितेन्द्र बजाज, स्टार न्यूज के वरिष्ठ सम्पादक अनिल कुमार सिंह, अजमेर विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रोफेसर एस.एन.सिंह, हैदराबाद के सेंटर फार टेलीकाम मैनेजमेंट एण्ड स्टडीज के निदेशक व आन्ध्र प्रदेश प्रज्ञा भारती के अध्यक्ष डा. टी.एच. चौधरी जैसे अनेक महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली बौद्धिकों के अतिरिक्त मेजर जनरल विनोद सहगल, सीमा सुरक्षा बल के पूर्व निदेशक एवं झारखंड व मणिपुर के पूर्व राज्यपाल वेद मारवाह, चेन्नै के सत्यमूर्ति ट्रस्ट फार डेमोक्रेटिक स्टडीज के न्यासी कर्नल (से.नि.) आर. हरिहरन, पूर्व केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त यू.सी. अग्रवाल, सी.बी.आई. के पूर्व निदेशक व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व महानिदेशक डी.आर. कार्तिकेयन जैसे वरिष्ठ प्रशासक इस संगोष्ठी में भाग ले रहे थे। जहां कला के क्षेत्र से गोपाल शर्मा एवं उमा शर्मा आए थे तो संगोष्ठी की प्राणवायु की भूमिका रामकृष्ण मिशन, राजकोट के प्रसिद्ध विद्वान संन्यासी स्वामी जितात्मानंद निभा रहे थे।जिनके निमंत्रण पर ये सब विद्वान एकत्र आए वे, डा. सुभाष कश्यप स्वयं एक प्रख्यात संविधानविद् हैं। दलनिरपेक्ष स्थापित विद्वान ही ऐसे प्रतिनिधि बौद्धिक समागम का माध्यम बन सकता है। ये सभी विद्वान पूर्णतया स्वतंत्र हैं, किसी एक दल से बंधे नहीं हैं। और सबने अपनी-अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र में स्वतंत्र अध्ययन और मनन से विश्वसभ्यता को हिन्दुत्व की महान देन का साक्षात्कार किया था। प्रत्येक ने हिन्दुत्व को एक महान, उदार, सर्वसमावेशी जीवन दर्शन के रूप में देखा। सभी का यह निष्कर्ष था कि विश्व को उदारता, सहिष्णुता और श्रेष्ठ मानवीय गुणों की ओर बढ़ाने के लिए भारत का हिन्दू बने रहना आवश्यक है। सबके मन में पीड़ा है कि भारतीय संविधान भारत की जीवन-रेखा हिन्दुत्व के विरुद्ध संकुचित, असहिष्णु, विस्तारवादी मजहबों को शक्ति एवं संरक्षण प्रदान करता है। एक सत्र की अध्यक्षता करते हुए पूर्व कांग्रेसी मंत्री वसंत साठे ने कहा कि संविधान की धारा 29 व 30 पंथनिरपेक्षता के आदर्श का उल्लंघन करती है। वयस्क मताधिकार पर आधारित संविधान में मजहब के आधार पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का निर्धारण लोकतंत्रविरोधी है। स्वामी जितात्मानन्द जी ने बड़े पीड़ा भरे स्वर में कहा कि यह कैसी पंथनिरपेक्षता है कि जहां यदि मैं छात्रों को “एकं सद्विप्रा: वहुधा वदन्ति” का वैदिक पाठ पढ़ाऊं तो बंगाल के माक्र्सवादी मेरा घेराव करते हैं कि मैं साम्प्रदायिकता का जहर घोल रहा हूं। पर यदि अल्पसंख्यक संस्थानों में जिहाद और मतान्तरण का पाठ पढ़ाया जाए तो संविधान उन्हें संरक्षण प्रदान करता है। एक सत्र में पूर्व सांसद बी.बी. दत्ता, मेजर जनरल विनोद सहगल, कर्नल आर. हरिहरन, प्रो. जितेन्द्र बजाज और डा. टी.एच. चौधरी ने जनगणना के आंकड़ों और अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार जनसांख्यिकी असंतुलन का भयावह चित्र प्रस्तुत किया। उन्होंने चेतावनी दी कि पंथनिरपेक्षता की विकृत धारणा एवं तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत होकर यदि जनसंख्या असंतुलन को रोका नहीं गया तो भारत अपनी हिन्दू अस्मिता को खोकर मजहबी कट्टरवाद के अंतर में डूब जाएगा। सभी विद्वानों ने संगोष्ठी के लिए लिखित शोध-निबंध प्रस्तुत किए थे। संगोष्ठी के आयोजक राष्ट्रीय जागृति संस्थान के निदेशक अभय कश्यप का लम्बा पृष्ठभूमि आलेख स्वयं में एक समृद्ध शोध-निबंध है जो जीवन के विविध क्षेत्रों में भारत की प्राचीन उपलब्धियों का वर्णन करते हुए भारत की हिन्दू अस्मिता को रेखांकित करता है। जाने-माने फ्रांसीसी पत्रकार फ्रांस्वा गोतिए ने शोधपरक लेख में सिद्ध किया है कि यूरोप के दार्शनिक एवं पांथिक गठन में भारत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ग्रीक दर्शन एवं ईसाई विचारधारा का उद्गम भारत में है। उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिाटिश शासकों ने अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों के लिए एवं ईसाई मिशनरियों ने अपने मतान्तरणवादी हठ के लिए भारत के इस योगदान को झुठलाने का सुनियोजित प्रयास किया। परम पावन दलाई लामा ने इस संगोष्ठी के लिए अपने संदेश में कहा कि भारत ऐसा अकेला देश है जिसकी सभ्यता और संस्कृति का प्रवाह अपने आदिकाल से अखण्ड-अनवरत बह रहा है। यह अध्यात्म की भूमि है, इसके जन-जन में अध्यात्म का झरना विद्यमान है। संगोष्ठी में प्रस्तुत सभी निबंध, भाषण और परिचर्चाएं जब पुस्तक रूप में आएंगी तब पता चल सकेगा कि सत्ता राजनीति और मुट्ठीभर वामपंथी बौद्धिकता के बाहर भारत का अंत:करण आज भी हिन्दुत्व से रंगा है।ऐसी संगोष्ठी में भाग लेने पर यह विश्वास पैदा हुआ कि सहस्राब्दियों के संस्कारों के फलस्वरूप हिन्दू चेतना की अदृश्य धारा आज भी प्रत्येक हिन्दू के अंत:करण में प्रवाहमान है। आवश्यकता है उसे देश की परंपरागत संस्थाओं- मेलों, तीर्थयात्राओं, पर्वों, आश्रमों, मठों एवं मंदिरों के माध्यम से जाग्रत और कर्मरत करने की । वहां जाकर विश्वास पैदा हुआ कि स्वामी विवेकानन्द की भविष्यदृष्टि ने ठीक देखा था कि भारत के पास विश्व को देने के लिए हिन्दुत्व रूपी एक अमृत कुंभ है और उसे देने के लिए वह जीवित रहेगा। (30 मार्च, 2005)NEWS
टिप्पणियाँ