चन्द्रावदान कालतन्त्रम्

Published by
Archive Manager

दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

पंडित चन्द्रकान्त बाली संस्कृत साहित्य मर्मज्ञ एवं कालगणना विशेषज्ञ माने जाते हैं। 1914 में मुलतान (अब पाकिस्तान) में जन्मे पं. बाली की गिनती मुलतान के चोटी के विद्वानों में होती थी। “प्रबंध पंचनद”, “दोहा मानसरोवर”, “पंजाब प्रान्तीय हिन्दी साहित्य का इतिहास”, “खारवेल प्रशस्ति”, “आदि शंकराचार्य”, “महाभारत युद्ध काल-मीमांसा” और “जैन कालगणना” नाम से उनकी सात पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक ऐतिहासिक घटनाओं और पंचांगों के संयोजन से पं. बाली ने एक अनूठा कालतन्त्र विकसित किया है। यहां प्रस्तुत है उनके द्वारा विभिन्न कालगणनाओं के आधार पर सप्तर्षि संवत् से ई. सन् ज्ञात करने की विधि – “चन्द्रावदान कालतन्त्रम्”। -सं.

चद्रकान्त बाली “शास्त्री”

भारत में कालगणना की 9 विधियां हैं- सप्तर्षि संवत्, सौर, चान्द्र, शायन, पैत्र्य, ब्राह्म, प्राजापत्य, बार्हस्पत्य और सावन। यहां हम सप्तर्षि संवत् की चर्चा करेंगे। सप्तर्षि संवत् एक पुराण शास्त्रीय कालगणना है। इसको हमने ई.पूर्व या ई.सन् में परिणत करने का एक शास्त्र प्रस्तुत किया है।

जब से सृष्टि प्रारंभ हुई है, तभी से सप्तर्षि संवत् अस्तित्व में आया है। प्राचीन काल में भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सप्तर्षि संवत् का प्रयोग होता था। इसके प्रमाण हैं हमारे पुराण, महाभारत, राजतरंगिणी, श्रीलंका का प्रसिद्ध ग्रंथ महावंश आदि।

महाभारत काल तक इस संवत् का प्रयोग हुआ था। बाद में यह धीरे-धीरे विस्मृत हो गया। नाम से ही स्पष्ट है कि इस संवत् का नामकरण सप्तर्षि तारों के नाम पर किया गया है। ब्राह्मांड में कुल 27 नक्षत्र हैं। सप्तर्षि प्रत्येक नक्षत्र में 100-100 वर्ष ठहरते हैं। इस तरह 2700 साल पर सप्तर्षि एक चक्र पूरा करते हैं। इस चक्र का सौर गणना के साथ तालमेल रखने के लिए इसके साथ 18 वर्ष और जोड़े जाते हैं। अर्थात् 2718 वर्षों का एक चक्र होता है। एक चक्र की समाप्ति पर फिर से नई गणना प्रारंभ होती है। इन 18 वर्षों को संसर्पकाल कहते हैं। जब सृष्टि प्रारंभ हुई थी उस समय सप्तर्षि श्रवण नक्षत्र पर थे और आजकल अश्वनी नक्षत्र पर हैं। श्रीलंका के प्रसिद्ध ग्रंथ “महावंश” में एक जगह लिखा गया है-

“जिन निवाणतो पच्छा पुरे तस्साभिसेकता।

साष्टा रसं शतद्वयमेवं विजानीयम्।।”

इसका अर्थ है सम्राट् अशोक का राज्याभिषेक सप्तर्षि संवत् 6208 में हुआ। इसे ईसवीं पूर्व में इस प्रकार बदल सकते हैं –

अ : 6476-6208 उ 268 ई.पू.। यानी 268 ई.पूर्व में अशोक का राज्याभिषेक हुआ। (देखें बॉक्स)

चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिन्दुसार के समय में सेल्यूकस भारत आया और उसके साथ मेगास्थनीज नामक व्यक्ति आया जो यहां राजदूत बनकर रहा। सेल्यूकस का आगमन 312 ई.पू. में हुआ। यह सम्पूर्ण वृत्तान्त यूनानी इतिहास से ज्ञातव्य है। राजदूत मेगास्थनीज ने मगध सम्राट बिन्दुसार के दरबार में रहकर कुछ तथ्य नोट किए थे। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री भगवत दत्त “बी.ए.” द्वारा लिखित पुस्तक “भारतवर्ष का वृहद् इतिहास”, प्रथम भाग, पृष्ठ-160 पर दिए गए उन तथ्यों से पता चलता है कि यूनानी राजदूत ने 6451 वर्षों का उल्लेख किया है जो सप्तर्षि-संवत् का अकाट प्रमाण है। इसी पूर्वोक्त विधि के अनुसार आ-6881 में से 6451 घटा कर शेष 430 ई.पूर्व में अष्टम नन्द का निधन और नवम नन्द का अभिषेक हुआ- यह कहा जा सकता है। कुछ विद्वान् 430 ई.पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य या किसी अन्य राजा का शासनकाल मानते हैं, जो अशुद्ध है।

इसी बात को यूनानी राजदूत ने 6042 सन्दर्भ लिखकर मुलतान-विभाग का प्रयोग किया है। दुर्भाग्यवश इसमें चार वर्षों की भूल है। चार वर्ष जमा करने पर ये अंक बनते हैं- 6046। इसे पूर्ववत् मुलतान विभाग अ-6476 से घटाने पर 430 ई.पूर्व ही सिद्ध होता है। ये दोनों अंक एक ही शासक के शासनकाल को सूचित करते हैं।

यह सन्दर्भ सप्तर्षि संवत् के अन्तरराष्ट्रीय प्रयोग का उदाहरण है।

पुराणशास्त्र

आभरताभिषेकान्तु यावज्जन्य परीक्षित:।

एतद् वर्ष सहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चदशोत्तरम्।।

आरभ्य भवतो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम्।

एतद् वर्ष सहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चदशोत्तरम्।।

ये पौराणिक सन्दर्भ तीन शासनकालों को सूचित करते हैं-

(क) भरताभिषेक (सप्तर्षि संवत्-1015)

(ख) परीक्षित का जन्म (सप्तर्षि संवत्-1015)

(ग) राजा नन्द का अभिषेक (सप्तर्षि संवत्-1015)

इन तीनों अंकों को इस प्रकार ई.पूर्व में पलट सकते हैं-

(क) आ : 6881-1015 उ 5866 ई.पूर्व में शकुन्तला पुत्र भरत का अभिषेक

(ख) ई : 4163-1015 उ 3148 ई.पूर्व में राजा परीक्षित का जन्म हुआ। इसी आधार पर हमने 3148 ई.पूर्व में महाभारत युद्ध का होना माना है।

सप्तर्षि संवत् का सूत्र

मुलतान विभाग कश्मीर विभाग पटना विभाग

अ 6476 – आ 6881

इ 3758 इ 3776 ई 4163

उ 1040 उ 1058 ऊ 1445

ऋ 1678 – ऋृ 1273

मुलतान विभाग से दक्षिण-पश्चिम दिशा, पटना विभाग से उत्तर-पूर्व दिशा एवं कश्मीर विभाग से श्रीनगर, जम्मू, लद्दाख एवं हिमाचल प्रदेश से जुड़े साहित्यों एवं ऐतिहासिक स्थलों पर दिए गए ई.पूर्व या ई.सन् को सप्तर्षि संवत् में बदला जा सकता है। ऊपर की तीन संख्याओं से ईसा पूर्व और अन्तिम संख्या से ई.सन् को सप्तर्षि संवत् में बदल सकते हैं।

(ग) ऊ : 1445-1015 उ 430 ई.पूर्व में नवम नन्द का अभिषेक हुआ। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि 430 ई.पूर्व में नवम नन्द का अभिषेक होना पुराण सम्मत भी है और मेगास्थनीज सम्मत भी।

भारत का प्राचीन इतिहास बहुत कुछ शिलालेखों, ताम्रपत्रों और राजकीय अभिलेखों में दर्ज है। इनमें से हाथी गुम्फा अभिलेख शिरोमणि अभिलेख है अर्थात् भारत का पहला शिलालेख है। यह पौराणिक इतिहास का अन्तिम चरण है और आधुनिक इतिहास का प्रथम चरण है अर्थात् दो इतिहासों का सन्धिस्थल है। इसमें 430 ई.पूर्व. में समाप्त होने वाले नन्दों और 312 ई.पूर्व में आने वाले यूनानी शासकों का उल्लेख है। इसमें सप्तर्षि संवत् का निभ्रन्ति उल्लेख है। सप्तर्षि संवत् 1135 (पनतरीय सत सहस्र) में अर्थात् 310 ई.पूर्व. में यह अभिलेख उत्कीर्ण करवाया गया। यह सप्तर्षि संवत् का प्रबलतम प्रमाण है।

राजतरंगिणी

भारतीय पुराण-शास्त्रों के बाद प्रामाणिक रचना कल्हणकृत राजतरंगिणी है। इसके समस्त उल्लेख आदि से लेकर अन्त तक सप्तर्षि संवत् के माध्यम से लिखे गए हैं। राजतरंगिणी के अनेकों टीकाकारों ने सप्तर्षि संवत् का उल्लेख तक नहीं किया यद्यपि कश्मीर और हिमाचल प्रदेश सप्तर्षि संवत् के मुलतान विभाग का अनुसरण करते हैं, परन्तु उसमें 18 वर्ष अतिरिक्त जमा करके उसे स्थानीय (लौकिक वर्ष का) प्रयोग बताते हैं। जब तक मुलतानी विभाग और कश्मीर के परिवर्तित रूप को हम नहीं समझेंगे तब तक राजतरंगिणी का संवत्-सम्बद्ध अर्थाधान ठीक-ठीक नहीं हो सकता।

कल्हण ने शक-सम्वत् का भी उल्लेख किया है। दु:ख की बात यह है कि सभी टीकाकारों ने 78 ई.सन् से चलने वाले शक सम्वत् को मानकर राजतरंगिणी की टीकाएं लिखी हैं, जो कि महा अशुद्ध है। दरअसल 622 ई.पूर्व. से चलने वाले शक सम्वत् का ही प्रयोग उसमें अनुसंधेय है। हम अपनी बात को सिद्ध करने के लिए नीचे सारिणी दे रहे हैं

सारिणी

1. महाभारत संग्राम 628 सप्तर्षि संवत् 3148 ई.पूर्व

2. अन्धकार युग 1266 सामान्य वर्ष 1882 ई.पूर्व

3. फुटकर शासन काल 2330 सामान्य वर्ष 448 ईसवी

लौकिब्दे चतुर्विंशे शककालस्य साम्प्रतम्। सप्तत्यधिकं यातं सहस्रं परिवत्सर:।।

1070 में से 448 ई. घटाने पर 622 ई.पूर्व आता है। यही प्राचीन शक सम्वत् का आरम्भ बिन्दु है।

उपसंहार

हमारा लक्ष्य भारतीय समाज को सप्तर्षि संवत् से अवगत कराना है। जब तक हम सप्तर्षि संवत् की परिभाषा और प्रयोग को नहीं समझेंगे तब तक पौराणिक इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता।

NEWS

Share
Leave a Comment
Published by
Archive Manager