टी.वी.आर. शेनाय
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टी.वी.आर. शेनाय

by
Sep 1, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Sep 2005 00:00:00

सुनामी ने याद दिलाएइतिहास के सबकसमुद्री भूकम्प से पीड़ित लोगों को राहत सामग्री वितरित करते हुए स्वयंसेवकसुनामी लहरों के तांडव के बाद आज और कोई भी चीज मायने रखती नहीं दिखती। हजारों-लाखों को लील लेने वाली इस आपदा ने बाकी सभी घटनाओं- मोबाइल पर नग्न चित्र प्रकरण, शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी आदि-को पीछे कर दिया है। लेकिन जब भारत सहित अन्य देशों में लाखों उजड़े लोग धीरे-धीरे अपने बिखरे जीवन के अंश जोड़ने में लगे हैं, एक सवाल फिर भी बना हुआ है: अगर यह विभीषिका पूरी तरह रोकी नहीं जा सकती थी तो क्या उसका परिमाण भी कम नहीं किया जा सकता था?भूगर्भीय चट्टानों के खिसकने और उनके घर्षण को शायद किसी भी मानवीय प्रयास से रोकना संभव नहीं था, न ही इससे उपजीं सुनामी लहरों को ही रोका जा सकता था। इसके उद्गम स्थान के पास रहने वाले इण्डोनेशिया के लोगों को बचाना संभव नहीं था। लेकिन, अगर खबरें सच्ची हैं तो, सुनामी लहरों के भारतीय तटों पर चोट करने से पहले 2 बहुमूल्य घंटे उपलब्ध थे। उन 120 मिनटों में हजारों जानें बचायी जा सकती थीं? (यही सवाल थाईलैण्ड से लेकर सोमालिया तक के शासनों से पूछा जाना चाहिए, पर यहां मैं केवल भारत तक ही सीमित रहूंगा।)सरकारी स्पष्टीकरण है कि हिन्द महासागरीय क्षेत्र में किसी के भी पास सुनामी की पूर्व चेतावनी देने वाला तंत्र नहीं है। न ही पानी के नीचे हजारों मील तक बहतीं उन लहरों को खोज पाने के ही साधन हैं। ऐसी तकनीक केवल प्रशांत महासागर तट पर बसे राष्ट्रों में ही उपयोग की जाती है।जब चिली में भूकम्प आया था, तो महासागर के दूसरे छोर पर जापानी अधिकारियों ने पूर्व सूचना का उपयोग करके अपने देश के हजारों लोगों की जान बचा ली थी।) कहा यह भी जा रहा है कि भारतीय महासागर में न तो जीते जी कभी सुनामी के बारे में सुना गया है, न ही दर्ज इतिहास में कहीं उल्लेख है। क्या यह सच है?हां, कुछ हद तक तो सच है। साइमन विंचेस्टर की पुस्तक “क्राकाटोआ: द डे द वल्र्ड एक्सप्लोडेड” के अनुसार 1883 की वह प्रचंड भूगर्भीय घटना भारत के तट से कुछ दूर पानी में एक जलजले जैसी मानी गई थी। “जब तक वे लम्बी लहरें भारत तक पहुंचीं, उनका आवेग घटता गया था- मद्रास में 14 इंच ऊंची थीं तो कोलकाता पहुंचते तक 10 और 6 इंच रह गईं…”। इसलिए, शायद इसे मामूली ढंग से लिया गया।लेकिन लोक स्मृति जैसी भी एक चीज होती है। लोगों की अलिखित चेतना शक्ति थोड़ी अलग तस्वीर रखती है। और हर समाज-विज्ञानी जानता है कि कुछ तथ्य इतिहास की बजाय साहित्य में कहीं बेहतर तरीके से संरक्षित होते हैं। अत: प्राचीन तमिल साहित्य परंपरा पर नजर डालना चाहता हूं।कहा जाता है कि तमिल साहित्य की प्रारंभिक रचनाएं तीन संगोष्ठियों में रचीं और प्रस्तुत की गई थीं। पहली संगोष्ठी प्राचीन मदुरै में हुई, फिर दूसरी कपाटपुरम (जिसे अलैवाई भी कहा जाता है) में हुई और तीसरी फिर नए मदुरै नगर में। इसमें दिलचस्प बात यह है कि पहले वाले दोनों शहर अब मौजूद नहीं हैं, क्योंकि दोनों को प्रचंड लहरों ने लील लिया था। क्या यह सुनामी का ही मामला है?ऐतिहासिक काल का उल्लेख करूं तो चोल साम्राज्य के पहले शासकों में एक थे करिकल्ला चोल। (इस शासक का स्वतंत्र साक्ष्य बाद के श्री लंकाई इतिहास में मिलता है।) करीब 2000 वर्ष पूर्व शासन करने वाले इस राजा के बारे में कहते हैं कि एक बार उसने 12 हजार श्रीलंकाई बंधकों को अपने सागर तटीय किले- पूमपुहार- की किलेबंदी के निर्माण में लगाया था। माना जाता है कि वह महान नगर भी सागर द्वारा ध्वस्त कर दिया गया।उसके बाद एक और बहुत चौंकाने वाला प्रकरण देखने में आया। 1941 में अंदमान द्वीपों के पास एक भूकम्प ने संभवत: सुनामी लहर पैदा की जिसने मद्रास (तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश) के ब्रिटिश प्रोविंस के तटों पर प्रहार किया था। ईमानदारी से कहूं तो मैंने इस घटना के बारे में कहीं नहीं पढ़ा है। लेकिन लोक स्मृति आमतौर पर सटीक ही होती है। तमिल गद्य की सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है “पोन्नियन सेलवन”। यह अत्यंत प्रसिद्ध पुस्तक “कल्कि” आर. कृष्णमूर्ति द्वारा लिखित है। यद्यपि यह राज राजा चोल के समय पर आधारित एक ऐतिहासिक उपन्यास है, इसमें कई वर्णन ऐसे हैं जहां कल्कि ऐसा लिखते हैं मानो वह सब उन्होंने खुद अनुभव किया था। “सैकड़ों नारियल के पेड़ बाल खोले पिशाचों की तरह झूम रहे थे, जैसे संहारमूर्ति (संहार के देवता) के सामने नाच रहे हों। लहरें उठ रही थीं, कभी पेड़ों की ऊंचाई तक जो क्षण भर को ऐसी दिखतीं जैसे हिमालय की चोटी हो…”। यह तो ऐसा है जैसे कोई 26 दिसम्बर, 2004 के बारे में लिख रहा था!पुस्तक में आगे कल्कि एक अन्य विनाश के बारे में लिखते हुए इससे ज्यादा गंभीर चित्र रच डालते हैं। “इस समय तक सागर ने भण्डारघर और राजस्व गृहों को जलाप्लावित कर दिया था और पानी सड़कों तक पहुंच गया था। नाव और जलपोत हवा में तैरते दिख रहे थे मानो पानी के पहाड़ पर अधर लटके थे।” कैसी निष्ठुर विडम्बना है, कल्कि प्राचीन बंदरगाह शहर नागपट्टनम के बारे में लिख रहे थे- जो 2004 में तमिलनाडु में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला था। क्या यह महज संयोग था, या कल्कि भूले-बिसरे घटनाक्रमों की ओर हमारा ध्यान खींच रहे थे?हमें शायद इसका जवाब नहीं मिल पाएगा, क्योंकि खुद कल्कि 1954 में परलोक सिधार चुके हैं। हम केवल यही उम्मीद कर सकते हैं कि भारत सरकार भूगर्भीय परिवर्तनों पर नजर रखने के लिए संवेदी यंत्र लगाने की दिशा में आगे बढ़े और दूसरे देशों के साथ इन प्रयासों में सहयोग करे। क्योंकि, जैसा हमने अभी सबक लिया, प्रकृति राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं पहचानती, न ही मौत किसी खास जाति, नस्ल या वर्ग को बख्शती है। (30.12.2004)NEWS

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