महेश्वरदयालु गंगवारलोकसभा अध्यक्ष पद पर सोमनाथ दा के सात महीनेबस, अभी से असहाय?सांसद सोमनाथ चटर्जी क
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महेश्वरदयालु गंगवारलोकसभा अध्यक्ष पद पर सोमनाथ दा के सात महीनेबस, अभी से असहाय?सांसद सोमनाथ चटर्जी क

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Sep 1, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 01 Sep 2005 00:00:00

महेश्वरदयालु गंगवारलोकसभा अध्यक्ष पद पर सोमनाथ दा के सात महीनेबस, अभी से असहाय?सांसद सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा का अध्यक्ष पद संभाले सात महीने से कुछ अधिक समय हो गया है और इस बीच उन्हें ढेर सारे खट्टे-मीठे अनुभव हुए होंगे। किन्तु उन्होंने सपने में भी यह नहीं सोचा होगा कि लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी संभालने पर सदन में कुछ भी बोलने की उनकी आजादी पर अंकुश लग जाएगा और लोकसभा की कार्रवाई चलाने में उनके पसीने छूट जाएंगे। उन्होंने यह भी नहीं सोचा होगा कि सदन की कार्रवाई की शुरूआत वह उस अंदाज में नहीं कर पाएंगे, जिस अंदाज में वह अपने भाषण की शुरूआत किया करते थे- कभी विवादास्द ढांचे के, जिसे वह अदालत के निर्देश के बावजूद बाबरी मस्जिद कहते हैं, विध्वंस का उल्लेख करके और कभी तथाकथित सांप्रदायिक ताकतों पर प्रहार करके। इस साल 6 दिसम्बर को तो उन्हें असीम पीड़ा हुई होगी, जब अन्य सांसदों ने ढांचा ध्वंस की 13वीं बरसी पर अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति दी। सात-आठ महीने में ही उन्हें यह अहसास हो गया होगा कि सदन के सामने अपनी बात रखना और सांसदों को नियंत्रित करना दो अलग-अलग बातें हैं। उसमें एक ही साम्य है कि दोनों बातें सदन में ही होती हैं।सात-आठ महीनों में ही निरंकुश सांसदों पर अंकुश लगाने में अध्यक्ष ने खुद को कितना असहाय महसूस पाया होगा कि अगर खबरों पर विश्वास किया जाए तो उन्होंने तीन बार अध्यक्ष पद छोड़ने की इच्छा व्यक्त की। संसद के गत सत्र में तो उनकी यह विवशता इस हद तक बढ़ गयी कि उन्होंने सदन में ही अपना लिखित त्यागपत्र पढ़कर अध्यक्ष पद छोड़ने की घोषणा कर डाली। उनकी इस घोषणा ने सांसदों को स्तब्ध कर दिया। सोमनाथ दा को पद पर बने रहने के लिए पक्ष-विपक्ष के नेताओं को उन्हें मनाना पड़ा। यही नहीं सदन सुचारु रूप से चले, यह सुनिश्चित करने के लिएसत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं को बार-बार अपने कक्ष में बुलाकर उन्हें समझाना-बुझाना पड़ा। बार-बार सदन की कार्रवाई को स्थगित करना पड़ा। किन्तु नतीजा हर बार वही ढाक के तीन पात। सदन की कार्रवाई शुरू होते ही फिर पहले जैसा शोर-शराबा प्रारंभ हो जाता और सोमनाथ दा को अपनी सारी ऊर्जा सांसदों को शांत करने में खर्च करनी पड़ती। अध्यक्ष की अवमानना करना कुछ सांसदों का तो मानो विशेषाधिकार ही बन चुका है। इनमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के ही सांसद शामिल पाए जाते हैं। सदन में जोर-शोर से अपनी बात कहने और कार्रवाई को बाधित करने वाले कम शिक्षित और ग्रामीण परिवेश से आये सांसद ही नहीं होते, शहरी सांसद भी पीछे नहीं रहते, बल्कि कई बार तो वे सारी मर्यादाएं ही लांघ जाते हैं और संसद उनके लिए गांव की चौपाल बनकर रह जाती है, जहां कोई बेरोकटोक कुछ भी बोल सकता है। बोलने वाला इस बात की भी परवाह नहीं करता कि उसकी बात कोई सुन-समझ भी पा रहा है या नहीं।ऐसा क्यों करते हैं हमारे सांसद? इस प्रश्न का सटीक उत्तर सोमनाथ दा से बेहतर और कौन दे सकता है। वह लोकसभा में नाबाद लंबी पारी खेल रहे हैं। अध्यक्ष के रूप में अलबत्ता यह उनकी पहली पारी है, जिसका अनुभव उनके लिए सुखद नहीं रहा है। बार-बार पद त्यागने की उनकी पेशकश को इसका प्रमाण माना जा सकता है। संभवत: कभी-कभी वह यह भी सोचते होंगे कि साधारण सांसद रहते हुए जो मजा अध्यक्ष को छकाने में है, वह अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठकर सांसदों को अनुशासित रहने का पाठ पढ़ाने में भला कहां। जहां तक सदन की कार्रवाई बाधित करने का प्रश्न है, उसके दो प्रमुख कारण हैं-एक, सांसदों को जब यह लगता है कि अध्यक्ष उनको बोलने न देकर उनके साथ अन्याय कर रहे हैं और दूसरा, सांसद अपने मतदाताओं के हित के लिए चुनाव क्षेत्र में भले ही कुछ न कर रहा हो या कर पा रहा हो, लेकिन सदन में ऊंचे स्वर में बोलकर मतदाताओं तक यह संदेश पहुंचाने का प्रयास करता है कि वह उनके लिए सुख-सुविधाएं जुटाने के लिए क्या कुछ नहीं करना चाहता है, किन्तु उसे वह करने नहीं दिया जा रहा है। मगरमच्छ के आंसू बहाने में हर्ज ही क्या है? ऐसा करते हुए वह यह अलबत्ता भूल जाता है कि सदन की कार्रवाई पर होने वाले व्यय को व्यर्थ करके वह मतदाता पर करों का बोझ बढ़ाता ही है। सोमनाथ दा जैसे वयोवृद्ध सांसद को इससे कुछ अधिक ही पीड़ा पहुंचना स्वाभाविक है। किन्तु इस स्थिति में सुधार लाने के लिए वह सफल नहीं हो पा रहे हैं, तो इसके भी कारण हैं। एक, संभवत: वह यह नहीं भुला पा रहे हैं कि वह एक पार्टी विशेष के प्रतिनिधि हैं और उसके हितों की रक्षा करना उनका सर्वोपरि कत्र्तव्य है। दूसरे, जो विपक्ष में बैठते हैं, वे उनकी पंथनिरपेक्षता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं, इसलिए वह उन्हें कोई रियायत देना नहीं चाहते हैं। नतीजतन सदन की कार्रवाई अनपेक्षित रूप से बाधित होती है और सदन को नियंत्रित करने में अध्यक्ष को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है और तब भी सफलता न मिलने पर इस्तीफे के ब्राह्मास्त्र का वह इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए हाल में पंजाब में हुई रेल दुर्घटना को लिया जा सकता है। रेलमंत्री ने दुर्घटनास्थल का दौरा किया। उन्हें वहां से लौटकर सदन को दुर्घटना के बारे में जानकारी देनी थी, किन्तु वह दिल्ली लौटने के बजाय अपनी पार्टी की रैली की तैयारी का जायजा लेने पटना चले गए। इस पर विपक्ष द्वारा होहल्ला मचाना स्वाभाविक ही था। किन्तु अध्यक्ष ने सदन में अनुपस्थित रहने के लिए लालू प्रसाद को फटकार नहीं लगायी। अलबत्ता विपक्ष को अनुशासित रहने का पाठ पढ़ाया। इस पर विपक्ष ने उन पर पक्षपात करने का आरोप लगाया और इससे व्यथित होकर अध्यक्ष ने लिखित वक्तव्य पढ़कर देने त्यागपत्र देने की अपनी इच्छी व्यक्त की।एक समय था, जब अध्यक्ष के अपने आसन से उठकर खड़े होने पर सदन में और सब बैठ जाते थे। यह सदन की मर्यादा बनाए रखने का तकाजा है। अध्यक्ष के खड़े हो जाने पर अगर कोई खड़ा रहता, तो उसे अध्यक्ष और सदन की अवमानना माना जाता था। इसी तरह अध्यक्ष के आसन के पास जाना भी ठीक नहीं माना जाता था। बहुत जरूरी होने पर ही सदस्य अध्यक्ष के आसन के पास “वेल” में जाते थे। किन्तु अब तो जरा-जरा सी बात पर सांसद “कुएं” में छलांग लगाने लगे हैं। वर्तमान अध्यक्ष के कार्यकाल में सांसदों की यह आदत कुछ अधिक ही बढ़ गयी जान पड़ती है। आश्चर्य की बात है कि अब अध्यक्ष के निर्देशों की अवहेलना न केवल विपक्षी सदस्य करते हैं, बल्कि सत्तापक्ष के सांसद भी जब तब ऐसा करने से बाज नहीं आते हैं। हद तो तब हो जाती है, जब कभी-कभी कोई मंत्री भी संसदीय मर्यादाओं को ताक पर रखकर सामान्य सांसद की तरह आचरण करता है।गठबंधन सरकारों के इस दौर में संसदीय मर्यादाएं सर्वाधिक आहत हुई हैं। मिली-जुली सरकार में शामिल हर घटक यह मानकर व्यवहार करता है कि सरकार उसी के बलबूते चल रही है, इसलिए उसे मनचाहा आचरण करने का लाइसेंस प्राप्त है। सोमनाथ दा की यह प्रतिबद्धता कुछ ज्यादा ही है। अध्यक्ष किसी भी दल का प्रतिनिधि क्यों न हो, अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने के बाद उसे निर्दलीय हो जाना चाहिए। तभी वह हर किसी के साथ पक्षपात रहित व्यवहार कर सकता है। अन्यथा वह अध्यक्ष के आसन की गरिमा को कम ही करेगा। अध्यक्ष के आसन की गरिमा कम होगी, तो सांसद निरंकुश होंगे। सांसद निरंकुश होंगे, तो संसदीय मर्यादाएं टूटेंगी। संसदीय मर्यादाएं टूटेगी, तो लोकतंत्र कमजोर होगा। लोकतंत्र कमजोर होगा, तो प्रशासन पर नौकरशाही हावी होगी। नौकरशाही के हावी होने से न जनता का भला होगा, न जनप्रतिनिधियों का।लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी इस खतरे को अवश्य जान पा रहे होंगे। उनके जैसा अनुभवी सांसद अगर इस खतरे को नहीं देख पा रहा है, तो यह निश्चय ही लोकतंत्र की बहुत बड़ी विडंबना है। अध्यक्ष के आसन का सम्मान और आदर करना हर दल के सांसदों का कत्र्तव्य है, तो हर किसी को साथ लेकर चलना अध्यक्ष का उत्तरदायित्व है।NEWS

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