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पाठकीय

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Aug 5, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Aug 2005 00:00:00

अंक-संदर्भ, 10 अप्रैल, 2005पञ्चांगसंवत् 2062 वि. वार ई. सन् 2005वैशाख अमावस्या रवि 8 मई,, शुक्ल 1 सोम 9 “”,, ,, 2 मंगल 10 ,,(श्री परशुराम जयन्ती),, ,, 3 बुध 11 “”,, ,, 4 गुरु 12 “”,, ,, 5 शुक्र 13 “”(श्री शंकराचार्य जयन्ती),, ,, 6 शनि 14 “”(श्री रामानुजाचार्य जयन्ती)भारत हिन्दू ही रहेवर्ष प्रतिपदा विशेषांक में “भारत हिन्दू क्यों रहे?” विषय पर विभिन्न विद्वान लेखकों के विचार पढ़े। भारत का हिन्दू रहना आवश्यक है क्योंकि हजारों वर्ष से यह देश हिन्दू संस्कृति और सभ्यता का परचम पूरे विश्व में लहराता आया है। अंग्रेजी शासन के समय में भी स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू संस्कृति की भव्यता को हिमालय की ऊंचाइयों तक पहुंचाकर भारत का जो मान बढ़ाया था, उसे क्या कभी भुलाया जा सकता है? परन्तु विडम्बना यह है कि जिस हिन्दू संस्कृति को लगभग एक हजार वर्ष की पराधीनता भी नष्ट नहीं कर सकी थी, उसी को आजादी के बाद तथाकथित सेकुलर राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग समाप्त करने के लिए कटिबद्ध है।-रमेश चन्द्र गुप्तानेहरू नगर, गाजियाबाद (उ.प्र.)पुरस्कृत पत्रयह कैसी दांडी यात्रा?महात्मा गांधी ने सन् 1930 में दांडी यात्रा का आह्वान कर देशवासियों में अधिकार चेतना जाग्रत करने के निमित्त नमक सत्याग्रह किया था। उसी सत्याग्रह की याद में गत दिनों कांग्रेस के नेतृत्व में दांडी यात्रा निकाली गई। निश्चय ही गांधी जी के नेतृत्व में निकाली गई उस दांडी यात्रा ने ब्रिटिश सरकार को जहां संकट में ला खड़ा किया था, वहीं स्वाधीनता आन्दोलन को भी नया ओज व बल प्रदान किया था। यह सत्याग्रह गांधी जी की अपनी मौलिक खोज नहीं था बल्कि ऐसा अभिनव प्रयोग तो चार वर्ष पूर्व ही सेठ गुलाबचंद सालेचा ने किया था। सन् 1926 में उन्होंने मारवाड़ रियासत के बाड़मेर जिले में पचपदरा के नमक उत्पादकों व मजदूरों को अपने साथ लेकर इस सत्याग्रह की शुरुआत की थी। सेठ गुलाबचंद सालेचा ने 1922-23 में यहां लक्ष्मी साल्ट ट्रेडर्स कं.लि. की स्थापना कर नमक व्यवसाय की शुरुआत करके विदेशी नमक के व्यापार को चुनौती दे डाली थी। इस आन्दोलन के कारण ब्रिटिश सत्ता को “टैक्सेशन इन्क्वायरी कमेटी”, “टेरिफ बोर्ड आन साल्ट इंडस्ट्री”, “साल्ट सर्वें कमेटी” तथा “स्ट्रेथी आयोग” इत्यादि का गठन करना पड़ा। इसी आन्दोलन से प्रेरित होकर गांधी जी ने दांडी यात्रा की योजना बनाई।दांडी यात्रा प्रतीक थी राष्ट्र के स्वत्व और अस्मिता की रक्षा की, विदेशी हस्तक्षेप के उन्मूलन की, स्वावलम्बन और आर्थिक आजादी के आह्वान की। किन्तु दांडी यात्रा के इन निहितार्थों की आज आजाद भारत में धज्जियां उड़ रही हैं। इसके नाम पर नौटंकी हो रही है। गुलाम भारत की समूची अर्थ-व्यवस्था केवल ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों में कैद थी, लेकिन आजाद भारत की अर्थ-व्यवस्था सैकड़ों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की कैद में है और विश्व बैंक के मजबूत हाथ उनकी पीठ पर हैं। बाजारवादी सोच पूरी तरह भारतीय बाजार पर छायी हुई है। देश का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां विदेशियों की पदचाप सुनाई न पड़ती हो। हमारी पंचवर्षीय योजनाओं, प्रशासनिक ढांचे, कृषि, चिकित्सा, बैकिंग, व्यापार, वाणिज्य, उद्योग, शिक्षा, रक्षा आदि क्षेत्रों में विदेशी प्रभाव तेजी से बढ़ता जा रहा है। मां के गर्भ में पलने वाले शिशु पर भी लगभग दो हजार रुपए का विदेशी कर्ज चढ़ा हुआ है। महंगाई का दौर थम नहीं रहा, बिना छत और अध्यापक के असंख्य प्राथमिक विद्यालय चल रहे हैं, भ्रष्टाचार व अपराध-वृत्ति अपने चरम पर है, लोकतंत्र की गंगा गंदे नाले का स्वरूप ग्रहण कर चुकी है, बेरोजगारी का यह आलम है कि देश की तीस प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे आ गई है। नागरिकों का आर्थिक शोषण खुद सरकार ही शराब, तम्बाकू, बीड़ी-सिगरेट, पान मसाला, शीतल पेयों के माध्यम से करा रही है। प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए एलोपैथिक दवाओं की खरीद के नाम पर विदेश चला जाता है लेकिन आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को हतोत्साहित किया जा रहा है। भारतीय कृषि रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों व विदेशी बीजों तथा ट्रैक्टरों के अधीन हो चुकी है। विदेशी नस्लों की जर्सी गायें इस देश में पदार्पण कर चुकी हैं और देशी नस्लों को बूचड़खानों के हवाले किया जा रहा है। कहीं भी तो गांधी जी द्वारा चलाए गए स्वदेशी आन्दोलन की छाप दिखाई नहीं देती। अत: दांडी यात्रा की नौटंकी महज कांग्रेस को संजीवनी प्रदान कराने के लिए की गई न कि किसी राष्ट्रीय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए।-स्वामी केवलानन्द सरस्वतीवैदिक मोहन आश्रम, भूपतवाला, हरिद्वार (उत्तराञ्चल)——————————————————————————–हर सप्ताह एक चुटीले, हृदयग्राही पत्र पर 100 रु. का पुरस्कार दिया जाएगा।सं.महर्षि अरविंद ने कहा है कि भारत के उत्थान का अर्थ है धर्म का उत्थान। स्पष्ट है कि यदि भारत हिन्दू नहीं रहा तो संसार में धर्म नहीं रहेगा। धर्म क्या है? धर्म धारण करने वाला गुण है। पैसा समाज को समृद्ध बना सकता है, राजनीति उसे सबल बना सकती है, विज्ञान राष्ट्र को साधन दे सकता है, किन्तु धर्म समाज को एक रखता है। एक बनाए रखने के लिए सबको बांधता हुआ एक सूत्र अथवा धागा चाहिए। हिन्दुओं ने कहा- वह सूत्र है ब्राहृ। ब्राहृ से संसार जन्मा है और ब्राहृ में ही जी रहा है। इस एकता को प्रयोगशाला में अथवा बौद्धिक बहस से नहीं जाना जा सकता। स्वयं बूंद उस सागर के आकार और गहराई को नहीं जान सकती जिसकी वह एक अंश मात्र है। किन्तु हिन्दू ने ब्राहृ को जानने की विधि ढूंढ निकाली है, जिसको अध्यात्म कहते हैं। अत: हिन्दू यदि न रहा तो अध्यात्मज्ञान भी नहीं रहेगा।-श.द.लघाटेसंकट मोचन आश्रम, रामकृष्णपुरम (नई दिल्ली)पंथनिरपेक्षता के नाम पर भ्रामक राजनीति, अपने ही लोगों द्वारा बहुसंख्यक हिन्दुओं के साथ छल और स्वार्थसिद्धि के लिए साम्प्रदायिकता की आड़ लेना, आज की राजनीति का विद्रूप रूप है। इसे समाप्त करने के लिए हिन्दू समाज को एकजुट होना होगा। नि:संदेह आज की आवश्यकता संगठित हिन्दू-शक्ति है। हिन्दुत्व इस देश की आत्मा है, यह लोगों को समझाना होगा।-गजानन पाण्डेयम.न. 2.4.936, निम्बोली अड्डा,काचीगुडा, हैदराबाद (आंध्र प्रदेश)विशेषांक को पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आज भी भारत में कुछ लोग ऐसे हैं जो “हिन्दू दर्शन” व “संस्कृत भाषा” की महानता को समझ रहे हैं। श्री श्री रविशंकर के विचार अत्यधिक रोचक हैं। किन्तु श्री अमीर चन्द कपूर का लेख “अपनी कुल्हाड़ी, अपना पांव” विशेष व मार्गदर्शक लगा। हिन्दुओं को जगना होगा अन्यथा उनका जीना दूभर हो जाएगा।-डा. नवीन चन्द्र खण्डूड़ी8, फ्रेन्ड्स कालोनी, नागपुर (महाराष्ट्र)वहां क्यों नहीं?डा. उमर खालिदी का साक्षात्कार “भारत में मुस्लिमबहुल राज्य बनने चाहिए” पढ़कर उनकी नासमझी पर हंसी आती है। खालिदी रहते हैं अमरीका में, परन्तु वे परेशान हैं भारतीय मुसलमानों के लिए। अमरीका में लगभग 70 लाख मुसलमान रहते हैं। वह यह मांग अमरीकी मुसलमानों के लिए क्यों नहीं करते? मुझे पता है वे वहां ऐसी मांग नहीं कर सकते, क्योंकि साम्प्रदायिकता फैलाने के आरोप में उन्हें वहां जेल में बन्द किया जा सकता है।-हरिसिंह महतानी89/7, पूर्वी पंजाबी बाग (नई दिल्ली)यही है हिन्दू परम्परायह अंक सभी प्रकार से उपयोगी और सार्थक है। आपने सदा श्रद्धेय श्री गुरुजी की भी विशेष याद दिला दी। वे मेरे जीवन में आये प्रथम महापुरुष थे। मेरे प्रति उनकी सहज आत्मीयता की याद प्राय: आती रहती है। हिन्दू संगठनों में आयी नकरात्मकता के बारे में आपको लिखे गये पत्र में मेरी स्पष्ट, तीखी टिप्पणी को भी आपने प्रकाशित किया, यह आपकी उदारता का परिचायक है। शुभचिंतकों के अप्रिय लगने वाले विचारों को भी सम्मान देना एक उदात्त हिन्दू परम्परा है। कभी-कभी उसमें श्रेयस्कर फल के बीज होते हैं।-लल्लन प्रसाद व्याससी-13, प्रेस एन्कलेव, साकेत (नई दिल्ली)अथ-लम्बा एवं नीरससन्तुलित सामग्री से विशेषांक सन्तुलित बन गया। लेकिन मुख्य शीर्षक “भारत हिन्दू क्यों रहे?” नहीं भाया, क्योंकि यह शीर्षक एक नकारात्मक सोच की तरफ चित्त को ले जाता है। जबकि डा. हेडगेवार ने आत्मविश्वास के साथ कहा था कि जब तक एक भी हिन्दू यहां है यह “हिन्दू राष्ट्र” है। अथ “भारत तत्व का कोई और ठौर नहीं” तथा श्री देवेन्द्र स्वरूप का आलेख “हिन्दुत्व की अदृश्य अजस्रधारा”- दोनों का केन्द्रीय मर्म करीब-करीब एक ही है। मात्र भाषा, शब्दावली, प्रस्तुतिकरण का ढंग अलग-अलग लगा। अथ में श्री तरुण विजय की लेखनी लड़खड़ाती सी प्रतीत हुई। भावों को बराबर शब्दावली नहीं मिल पाई है, इस कारण “अथ” लम्बा तथा नीरस लगा।-बालकृष्ण कांकाणी6/83, निर्मल जीवन, ठाणे पूर्व (महाराष्ट्र)रमारमण शर्माएक कर्मठ कार्यकर्ताराजस्थान के हाडौती अंचल के कोटा नगर में जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक श्री रमारमण शर्मा 7 अप्रैल, 2005 को धराधाम से विदा हो गए। सिद्धांतों और कर्तव्यों के प्रति सजग श्री रमारमण शर्मा जाने-माने वकील, समर्पित समाजसेवी तथा राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने जनसंघ तथा भाजपा के विस्तार में भी योगदान दिया था। पदलिप्सा से सर्वथा परे रहते हुए स्व. शर्मा ने शुरुआती दिनों में श्री सुन्दर सिंह भंडारी और श्री लालकृष्ण आडवाणी के साथ हाडौती क्षेत्र में संगठन कार्य को आगे बढ़ाया था। कर्मठ कार्यकर्ता की छवि रखने वाले स्व. शर्मा मृदुभाषी और मिलनसार व्यक्तित्व के धनी थे। वे किशोरावस्था में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने थे। 80 वर्षीय स्व. शर्मा कुछ दिनों से गंभीर रूप से रुग्ण थे तथा उनके शरीर का दाहिना भाग लकवाग्रस्त हो गया था।-महेश विजयवर्गीय69 ए, रामकृष्णपुरम, कोटा (राजस्थान)यह स्थिति क्यों?पिछले दिनों पाञ्चजन्य के प्रचार-प्रसार और उसकी ग्राह्रता पर वेदप्रकाश विभीषण और ऋषि भूपेन्द्र राठौर के पत्र पाठकीय स्तम्भ में छपे। इन दोनों के विचार अलग-अलग थे। परन्तु मुझे दु:ख है कि पाञ्चजन्य की लोकप्रियता घटी है। दक्षिण दिल्ली में शायद ही किसी समाचार पत्र विक्रेता के पास पाञ्चजन्य मिलेगा। जबकि पाञ्चजन्य को कभी सबसे बड़ा राष्ट्रीय साप्ताहिक होने का गौरव प्राप्त था। हालांकि सुबह 2 रुपए के दैनिक पत्र में पाञ्चजन्य से अधिक जानकारी एवं महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है, पर हम जैसे कुछ लोग है, जो पाञ्चजन्य पढ़े बिना नहीं रह सकते हैं। आप चाहे दाम बढ़ाएं या घटाएं, ऐसे लोग पाञ्चजन्य पढ़ेंगे ही। किन्तु यह प्रसन्नता की बात नहीं है। पाञ्चजन्य केवल पुराने स्वयंसेवक ही न पढ़ें, बल्कि उनके बच्चे और अन्य पाठक भी पढ़ें, इस दृष्टि से इसे आधुनिक एवं आकर्षक बनाना होगा।-बी.एल. सचदेवा263, आई.एन.ए. मार्केट (नई दिल्ली)प्रसार पर ध्यान देंसामग्री की दृष्टि से यह अंक वास्तव में विशेष रहा। इसमें हिन्दुओं में नव-चेतना लाने वाले कई लेख हैं। पर दु:ख इस बात का है कि पाञ्चजन्य का जितना प्रसार होना चाहिए, उतना दिखता नहीं। यह स्थिति सुधरे, इसके लिए प्रयास क्यों नहीं किया जाता है?-रामनिवास कसट3006/से3013, श्रीजी मार्केट सूरत (गुजरात)अद्भुत थेविष्णुकांत जी शास्त्री, चले गये प्रभु-धामचलते-चलते सफर में, पाया चिर विश्राम।पाया चिर विश्राम, धन्य है उनका जीवनजीवनभर वे रहे बांटते सहज ज्ञान-धन।कह “प्रशांत” श्रद्धा-निष्ठा के मूर्त रूप थेविष्णुकांत जी सचमुच अद्भुत थे-अनूप थे।।-प्रशांतसूक्ष्मिकादिलचस्पदास्ता कोई भी हो दिलचस्प होनी चाहिए,रास्ता कोई भी हो दिलचस्प होना चाहिए,पेट भरने को महज नाश्ता कोई भी हो दिलचस्प होना चाहिए।-शरदघंटाघर, कटनी (म.प्र.)NEWS

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