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दिशादर्शन

by
Aug 5, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Aug 2005 00:00:00

संघ पर आरोप लगाने वालों की असलियतभानुप्रताप शुक्लभानुप्रताप शुक्लदेश के विभिन्न संप्रदायों, मत-मतांतरों, समूहों और वर्गों के बीच सामंजस्य एवं सौमनस्यता निर्माण करने के लिए आज तक जितने प्रयास किये गये, उनका परिणाम यह निकला कि सभी वर्गों के मन और विषाक्त हुए, वैमनस्यता और अधिक बढ़ी, यहां तक कि वह शत्रुता की सीमा तक पहुंच गई। अब स्थिति इतनी विस्फोटक है कि सभी अपने-अपने दरवाजे बंद करके अपनी कीमत वसूलने में लगे हैं। सबका अपना-अपना बाजार भाव है। यहां अल्पसंख्यक हैं, हरिजन हैं, पिछड़ा वर्ग हैं, शोषित-पीड़ित हैं, किन्तु कोई ऐसा समाज नहीं है, जिसके प्रति इन सबकी समान निष्ठा हो।यही कारण है कि जब अल्पसंख्यक आयोग का गठन हुआ तो अल्पसंख्यक समुदाय ने शोर मचाना शुरू कर दिया कि आयोग का अध्यक्ष कोई मुसलमान ही होना चाहिए। मानो अल्पसंख्यक शब्द “मुसलमान” का पर्यायवाची हो गया और उसकी सीमा में जैसे ईसाई एवं पारसी आदि आते ही नहीं हैं। अल्पसंख्यक शब्द पर यह मुस्लिम एकाधिकार किस चिंतन का परिचायक है? यह विचार इस देश के मुस्लिम समुदाय में कहां से उत्पन्न हुआ कि मुसलमानों का हित केवल मुसलमान के हाथों में ही सुनिश्चित है, शेष समाज उनका हितैषी नहीं है?यह मानसिकता केवल मुस्लिमों की है, यह कहना सत्य को नकारना होगा। ठीक यही स्थिति हरिजनों, पिछड़े वर्गों और अन्य समुदायों की भी है। इन सबकी स्थिति पर विचार करने के लिए जब समिति और आयोग का गठन किया जाता है तो मूल समस्या दरकिनार करके पहली मांग यह रखी जाती है कि उस समिति या आयोग का अध्यक्ष उसी वर्ग का होना चाहिए जिसके लिए उस समिति-आयोग का गठन किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में कोई अन्य वर्ग या समुदाय यदि यह आवाज उठाये कि अमुक आयोग या समिति की सिफारिश शेष समाज स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि वह पूर्वाग्रह पर आधारित है और निहित स्वार्थ से प्रेरित है तो क्या इसके लिए उसे दोषी ठहराया जा सकता है?वर्तमान भारत की जो सामाजिक अवस्था है, वह इसकी सर्वपंथसमभाव और सामंजस्ययुक्त चिंतन की मूल प्रकृति के प्रतिकूल है। भारतीय संस्कृति में घृणा-विद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं है। विविधता इस देश का वैशिष्ट है। विविधता में एकता के इस सूत्र को सभी स्वीकार करते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मौलिक रूप से सांस्कृतिक धरातल पर संपूर्ण राष्ट्र और सभी वर्ग तथा समुदाय एक हैं, केवल ऊपरी तौर पर वे अलग दिखते और कुछ लोग उन्हें अलग रखकर आपस में लड़ाकर अपना स्वार्थ साधन करते रहते हैं।इन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर चौतरफा हमला हो रहा है। किन्तु जब हमलावर अपने प्रहार का कोई प्रभाव नहीं देखते तो निराश होकर कई बार अपने ही कपड़े फाड़ने लगते हैं। उन्हें यह बात सहन नहीं होती कि एक सुगठित, जागृत और कर्तव्यनिष्ठ समाज का निर्माण हो। बंटा हुआ, झगड़े में उलझा समाज उनकी राजनीति का अंग है। वैचारिक छुआछूत की संक्रामक बीमारी से ग्रस्त कुछ पेशेवर लोग अपनी हीनता एवं अक्षमता पर परदा डालने के लिए यह शोर मचाते हैं कि संघ के स्वयंसेवक सभी क्षेत्रों में घुसते जा रहे हैं। किन्तु वे स्वयं से यह सवाल क्यों नहीं करते कि उन्हें उन सभी क्षेत्रों में घुसने से किसने रोका है? यह भी कोई आरोप है कि संघ के पास लाखों स्वयंसेवक हैं, हजारों समर्पित कार्यकर्ता हैं, उनका मुकाबला तभी किया जा सकता है जब यह कार्य कुछ समय के लिए बंद करा दिया जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को न समझ पाने के कारण ही विभिन्न राजनेताओं से लेकर लेखक और विचारक सभी अपनी-अपनी कल्पना की उड़ान भरते हैं। वे उसकी शक्ति का उपयोग तो करना चाहते हैं, लेकिन अपनी शर्तों पर, अपने हितों की पूर्ति के लिए। समय पड़ने पर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की देशभक्ति, अनुशासन एवं कर्तव्य की सराहना करते हैं और बाद में तिरस्कार। उनका छोटा मन शायद डरा रहता है कि कहीं उनकी सत्ता के लिए संघ संकट न बन जाए। वे यह समझ ही नहीं पाये कि संघ सत्ता के लिए नहीं, समाज जागरण के लिए समर्पित है। नश्वर शासन नहीं, शाश्वत समाज उसका आराध्य है। जो समाज से कटे हुए लोग हैं, वे उसे समाज के साथ जुड़ा हुआ शायद देखना नहीं चाहते।कुछ सिरफिरे लोगों द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ किये जा रहे कुप्रचार के अंधड़ से ऐसा लगता है कि इस देश में जो भी अशांति, अराजकता, हिंसा, बिखराव, टकराव, दलीय मतभेद, सामाजिक विद्वेष और प्राकृतिक प्रकोप की घटनाएं होती हैं- सबका कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही है। प्रचार के पीछे की प्रवृत्ति की पहचान न हो तो विश्वास भी होने लगता है कि शायद जो कुछ कहा जा रहा है, उसमें सच्चाई होगी। किन्तु सच्चाई क्या है? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सचमुच सांप्रदायिक है? क्या वह हिंसा में विश्वास रखता है? क्या उसकी मान्यताएं राष्ट्र को बिखेरने, समाज को तोड़ने और सत्ता की राजनीति में हिस्सा लेने की प्रवृत्ति को पुष्ट करती है? क्या संघ पर इस प्रकार के आरोप लगाने वालों ने कभी यह विचार करने का कष्ट किया है कि सम्प्रदाय और सांप्रदायिकता किसे कहते हैं? हिंसा को बढ़ावा कौन देते हैं, दे रहे हैं? देश और समाज को बांटने की कोशिश में किस प्रकार के लोग और संस्थाएं संलग्न रहती हैं, संलग्न हैं?संघ पर आरोप लगाया जाता है कि वह सांप्रदायिक है। किन्तु आरोप लगाने वाले यह नहीं बताते कि संघ किस संप्रदाय का प्रतिनिधित्व करता है? हिन्दू को संप्रदाय सिद्ध करके संघ को सांप्रदायिक बताने में सफलता प्राप्त होती है तो इन सवालों का जवाब इस प्रकार देना होगा कि “हिन्दू” वह है जो अमुक पुस्तक, अमुक ग्रंथ अमुक उपासना पद्धति को मानता हो। किन्तु आज तक हिन्दू को इस चौखटे में कोई बैठा नहीं पाया। “हिन्दू” संप्रदायवाची नहीं राष्ट्रवाची शब्द है। इसकी अपनी सांस्कृतिक परम्परा है। इसमें एक-दो नहीं अनेक संप्रदायों का समावेश है। हिन्दू वह जो स्वयं को हिन्दू कहे। आस्तिक, नास्तिक, शैव, वैष्णव, द्वैतवादी, अद्वैतवादी, प्रकृति के उपासक, माता-पिता के भक्त और स्वयं के अस्तित्व को भी नकारने वाले सभी हिन्दू हैं। यह जीवन की वह धारा है जिसमें सर्वपंथसमभाव है, संघ अगाध स्नेह के आधार पर कार्य करता है, घृणा के लिए वहां स्थान कहां? और जहां स्नेह है वहां हिंसा कौन करेगा?स्पष्ट है कि जो लोग संघ पर तरह-तरह के आरोप लगाते रहते हैं वे अत्यन्त सतही और दूषित मनोवृत्ति के लोग हैं। कर्महीनता और पौरुष के अभाव से ग्रस्त नपुंसक चिंतन ही इस प्रकार की छीछालेदर और वैचारिक छुआछूत को जन्म दे सकता है। इस प्रकार के आरोप लगाने वालों की अपनी कोई जमीन न होने के कारण वे जब दूसरों से उधार मांगे गये वैचारिक मंच पर खड़े होकर भारत की शाश्वत जीवनधारा की ओर देखते हैं तो अपनी दुकान जमाने के लिए उन्हें एकमात्र उपाय यही दिखाई देता है कि इस देश के पुष्ट आधार को समाप्त कर दिया जाए। वे इसकी विविधता का उपयोग इसकी एकता को खंडित करने के लिए करने लगते हैं।NEWS

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