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संस्कृति सत्य

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Jul 8, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jul 2005 00:00:00

सेठ मूंगालाल का दानवचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”वचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”1950 का प्रसंग है जब मैं हिन्दी दैनिक स्वदेश लखनऊ के सम्पादक अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सह-सम्पादक का कार्य करता था। वहीं रहते हुए मैंने उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद की “उत्तम” (साहित्य रत्न) परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हीं दिनों एक भेंटवार्ता में राज्यपाल मुंशी ने एक संस्मरण सुनाया कि-एक दिन उनके निवास पर एक आदमी लट्ठे की धोती और वंडी पहने, माथे पर चंदन का तिलक और गले में तुलसी की माला धारण किए, देखने में मामूली आदमी ही लगता था, आया। पूछने पर पता चला कि उसका नाम मंूगा लाल है। ध्यान से देखने और याद करने पर मुंशी जी को याद आया कि वह उनका मुवक्किल रह चुका है। उसने कहा, “वकील साहब, मुझे आप एक राय दीजिए। मुझे “टाटा डेफर्ड” के शेयरों से 6 लाख रुपए का मुनाफा हुआ है। मैं उस राशि को सेवाकार्य के लिए किसे दान कर दूं।” मुंशी जी को उसकी बात पर विश्वास न हुआ। न ही उन्होंने उस बात को गंभीरता से लिया। टालते हुए उन्होंने कह दिया, “ठीक है जब आप धन देना चाहेंगे तो मैं सलाह दूंगा।” मूंगालाल उस समय तो लौट गया लेकिन कुछ दिन बाद फिर आ गया। मुंशी जी ने जब उस पर प्रश्न सूचक दृष्टि डाली तो गिड़गिड़ाते हुए कहने लगा, “वकील साहब, “टाटा डेफर्ड” के शेयरों की कीमतें फिर बढ़ जाने से मुनाफे की राशि 8 लाख हो गई है। अत: बताएं कि यह राशि कहां दान करूं?”मुंशी जी चकित-स्तंभित रह गए। उन्हें शक हुआ कि इसका दिमाग सही है भी या नहीं? इतने में वह पुन: बोल पड़ा-“वकील साहब मेरी बात से आप नाराज न हों। अगर आप सोच में पड़ गए हों तो यही बता दें कि 8 लाख रुपए संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति और गोमाता की सेवार्थ दे दूं तो ठीक रहेगा। आप मुझे पागल या सिरफिरा तो नहीं समझ रहे हैं?” मुंशी जी ने कहा, “इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है। आपका विचार बहुत काम का है।”इतना कहकर मुंशी जी अपने काम में लग गए। लेकिन जाते-जाते वह आदमी कह गया, “वकील साहब, आपकी सहमति से मेरे दिल को बहुत तसल्ली मिली है। मैं जाता हूं।” कुछ समय बाद वह फिर आ गया और मुंशी जी से कहा, “आपके भाग्य से आज सोमवती अमावस्या का शुभ दिन है। पंडित जी ने दोपहर 12 बजे से पहले ही दान देने को कहा है इसलिए में 2 लाख रुपए गोमाता की सेवा के लिए और 6 लाख रुपए संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति-सेवार्थ दान करता हूं। आप कृपया स्वीकार करें।”मुंशी जी को अब गुस्सा आ गया और कहने लगे, “रोज लम्बी-चौड़ी बातें करके मेरा समय बर्बाद करते हो, दान क्या सिर्फ बातों से होता है? आठ लाख रुपए हैं भी तुम्हारी जेब में?” वह बोला, “बस! आपके हुक्म की देर है। अभी फोन करके रुपए मंगा देता हूं।” तब मुंशी जी चौंके और एक आदमी 10 बजे नोटों से भरी थैली लेकर उनके पास आ गया। यह राशि दान करते हुए मूंगालाल फूले नहीं समा रहा था। वह कह रहा था, “वकील साहब,” “मैं अपनी हैसियत भूला नहीं हूं। मैं एक गरीब मारवाड़ी, राजस्थान से सिर्फ लोटा-डोर लेकर बम्बई आया था। व्यापार” करते हुए प्रभु ने जो कुछ दिया उसमें मेरा क्या, उसी की कृपा का प्रसाद है।” मुंशी जी उसकी निरहंकारिता से स्तंभित थे। 8 लाख रुपए के इस दान से भारतीय विद्या भवन निर्माण की मुंशी जी की कल्पना साकार हुई। इसी राशि से इस भवन की नीवं रखी गई।NEWS

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