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दासता से मुक्ति दिलाने वालीहमें अंग्रेजों की दासता से तो मुक्ति मिली लेकिन आंतरिक उपनिवेशवाद ने शायद हमें अभी तक जकड़ रखा है। कुछ वर्ष पहले तक इसके शिकार बने हुए थे तमिलनाडु के थिरूवल्लूर जिले की इरूला जनजाति के लोग। इन्हें वहां के चावल मिल के मालिकों ने लगभग बंधक बनाकर रखा था। उन्हें खुली हवा भी नसीब नहीं थी। यहां तक कि सगे-संबंधियों की मौत पर भी उन्हें छुट्टी नहीं दी जाती थी। इन मिलों के प्रांगण में वे एक तरह से नजरबंद थे। इन्हें 19-19 घंटे तक काम करना पड़ता था, लेकिन तनख्वाह के नाम पर मिलते थे सिर्फ 19 रुपए। इन अशिक्षित जनजातियों के लिए सामाजिक आंदोलन महज एक सपना था।लेकिन 1993 में इनके जीवन में एक प्रकाश की किरण दृष्टिगोचर हुई। मिल के एक मजदूर कृष्णन की पत्नी, जिसे तीन दिन बाद प्रसव होने वाला था, को मिल से छुट्टी नहीं दी जा रही थी। अन्तत: कृष्णन ने इसका विरोध करने का प्रण किया। फिर समाजसेवी सिद्धम्मा की मदद से “सर्पम इरुलर वर्कर्स एशोसिएशन” का गठन किया गया। इसके बाद शुरू हुआ आंदोलन का सिलसिला। इसके तहत 850 चावल मिलों का गुप्त सर्वेक्षण किया गया। पाया गया कि प्रत्येक मिल में औसतन 50 मजदूर दास की तरह काम कर रहे हैं और ये सभी इरुला जनजाति के हैं। दो सालों में सर्पम के प्रयास से 250 मिलों के 600 से अधिक मजदूरों को दासता की जिंदगी से मुक्ति मिली। अब उन्हें खेती करने के लिए प्रशासन की ओर से पट्टे पर जमीन भी दी गई है। मजदूर-दासता समाप्ति अधिनियम के तहत उन्हें प्रति व्यक्ति 20,000 रुपए भी दिए गए हैं। जिन मजदूरों को रहने के लिए घर की व्यवस्था नहीं थी, उनके पुनर्वास के लिए थिरूवल्लूर जिले के उथुकटोतई में 12 एकड़ भूमि में 200 झोपड़ियों का निर्माण किया गया। यानी सिद्धम्मा और कृष्णन के प्रयासों ने आखिर अपना रंग दिखाया।(स्रोत: आउटलुक: स्पीक आउट)NEWS
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