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पंजाब

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Jun 11, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Jun 2005 00:00:00

समृद्धि की चकाचौंध में भूल गए पहचान- राकेश सैनपंजाब की धरती, जिसने सबसे पहले विदेशी आक्रमणकारियों का मुंहतोड़ जवाब दिया और हिन्द की रक्षक भुजा कहलायी, आज समृद्धि और वैभव के भटकाव में फंसी दिखती है। सामान्य तौर पर राजनीति और प्रशासन में नैतिक और चारित्रिक गिरावट दिखती है तो उसके साथ ही वहां के युवाओं में “दुनिया अपनी मुट्ठी में” करने की अभूतपूर्व ललक और महत्वाकांक्षा भी। आज विश्व का शायद ही ऐसा कोना होगा जहां “पंजाब दी कुड़ी” या “पंजाब दा मुंडा” अपनी प्रतिभा, तेजस्विता और कौशल के सहारे सबसे अलग और सबसे आगे चमक न रहा हो। भारत में संभवत: पंजाब, गुजरात और केरल ही ऐसे प्रांत होंगे जहां के शब्दकोष में असहायता या हाथ फैलाना लिखा ही नहीं होता। जहां पंजाब ने देश को दो प्रधानमंत्री दिए वहीं विश्व की श्रेष्ठतम कम्प्यूटर कम्पनियों, वित्त संस्थाओं, यहां तक की धार्मिक नवजागरण में यहां के युवाओं ने अपना स्थान बनाया और रूढ़ियों तथा कुरीतियों के विरुद्ध आर्य समाज तथा सिख पंथ ने निर्णायक भूमिका निभायी। लेकिन आज पुन: उस भावना को जाग्रत करने की आवश्यकता हो रही है, क्योंकि समृद्धि की चकाचौंध में अंधे लोग इसी प्रांत में सबसे ज्यादा भ्रूण हत्याएं कर रहे हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों का स्वर वैभव के कोलाहल में दबता प्रतीत होता है।पंजाब में नशीले पदार्थों की बाढ़ के चलते ऐसा कहा जाने लगा है कि यहां नशा छठी नदी के रूप में प्रवाहित हो रहा है। पांच नदियों के कारण “पंजाब” नाम अस्तित्व में आया था। पर अब राज्य के नौजवानों की सुबह और शाम नशीले पदार्थों के साथ उदय और अस्त हो रही हैं। राज्य में नशा-नदी का प्रवाह पहले इतना तीव्र नहीं था। आतंकवाद जब अपने चरम पर था, तब पड़ोसी देश ने राज्य में नशीले पदाथों का जाल बिछा दिया। फिर क्या था? बेरोजगारी और आतंकवाद से त्रस्त राज्य के युवक अपने मन की निराशा दूर करने के लिए नशे के जाल में उलझते चले गए। यह पश्चिमी आधुनिकता का ही असर है। पंजाब में जब शांति और खुशहाली के दिन लौटे, लोगों की आमदनी बढ़ी, तब विशेषकर युवकों का रुझान विदेशों की ओर बढ़ने लगा। इसी बीच कब पंजाब अपनी अलमस्त जीवंत जीवन-शैली छोड़ पश्चिमी रंग में रंगने लगा, लोगों को पता ही न चला।आज पंजाब का युवक स्वतंत्र भी है और स्वच्छन्द भी। पंजाब युवा पीढ़ी में हो रहे मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को लेकर जहां कुछ लोग चिंतित हैं वहीं कुछ इसे सहज और समय के अनुरूप भी मानते हैं। वरिष्ठ पत्रकार संजीव शर्मा कहते हैं, “अति सर्वत्र वर्जयेत”। अब जो हो रहा है वह “अति” नहीं तो और क्या है? किसी को इस हद तक स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती कि पहचान का ही संकट बन जाए।” सरदार पटेल इंस्टीट्यूट के संचालक श्री सीताराम शर्मा का मानना है कि हम जैसे-जैसे धर्म-अध्यात्म से दूर हो रहे हैं, वैसे-वैसे हमारा नैतिक पतन हो रहा है। एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता ओम प्रकाश झुकरना का मानना है कि युवाओं के सामने बेरोजगारी की समस्या है। उनकी समस्याओं को दूर बिना किए उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाना बेमानी है और नैतिकता कोई उपदेश की चीज नहीं है। बड़ों को यह समझना चाहिए कि उन्हें देखकर, उनके बनाए मार्ग पर ही आज के युवा चल रहे हैं।अमृतसर की एक गृहिणी वीणा रानी युवाओं के सन्दर्भ में समाज, सामाजिक संगठनों की जिम्मेदारी को प्रमुख मानती हैं। उनके अनुसार “विभिन्न प्रकार के युवकों के संगठन बनाकर उन्हें उनके मनोनुकूल सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यों में सक्रिय कर इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।”NEWS

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